पिताजी की स्मृति में...................
दोस्तों, आज पिताजी को गुजरे एक माह हो गए.
इस एक माह में मुझे कभी भी नहीं लगा कि वो नहीं है. हर दिन बस ऐसे ही लगा
कि वो गाँव में है और अभी मैं मिलकर आया हूँ और फिर से मिलने जाना है. कहीं भी
उनकी कमी नहीं लगी. यहाँ तक कि संक्रांति की पूजा में भी ऐसा लगा कि वो है. बस कल
अचानक लगा कि फ़ोन पर उनसे बात करू तो डायल कर बैठा और सिर्फ फ़ोन की घंटी बजती रही.
बहुत देर तक..............कोई उसे उठाने वाला नहीं था !
आज सोचा कि पिताजी की स्मृति पर कुछ लिखू.
पिताजी ने बहुत बरस पहले हमारे गाँव को रोजगार के लिए छोड़ दिया था.
कलकत्ता में कुछ दिन रहे फिर नागपुर में आकर बसे. वही पर हम तीनो भाई बहनों का
जन्म हुआ. और फिर हमारी पढाई नौकरी इत्यादि भी वही की शुरुवात है. पिताजी ने गाँव
भले ही छोड़ा हो, लेकिन जैसे कि होता है, गाँव ने उन्हें और हमें नहीं छोड़ा. हम भी यदा-कदा
गाँव जाते रहे. लेकिन गाँव में कुछ भी नहीं रहा था !
पिताजी की ज़िन्दगी में पांच टर्निंग पॉइंट आये. [१] उनकी नागपुर में
नौकरी. [२] मेरा इंजिनियर बन जाना. [३] मेरी माँ की मृत्यु और [४] मेरी बहन की
शादी. और फिर एक सबसे बड़ा और पांचवा टर्निंग पॉइंट आया. मेरी बेटी का जन्म, बस वो उसी में रम
गए. हम सब एक तरफ और वो और मेरी बेटी एक तरफ. ज़िन्दगी बस गुजरती रही. और फिर इन सब
के बाद, बहुत
बरसो के बाद, जब हम तीनो भाई बहन धीरे धीरे जमने लगे अपनी ही अलग अलग दुनिया में
तो वो कभी गाँव में रहते, कभी हम तीनो के पास रहते. उनकी ज़िन्दगी कुछ इसी
तरह से गुजरती रही.
फिर मैंने अपने गाँव के टूटे फूटे घर को थोडा अच्छा बनवा दिया ताकि वो
और मेरे ताऊ जी अच्छे से रह सके. ज़िन्दगी अच्छे से बस गुजरती रही.
उनके और हमारे परिवार के अन्य सदस्यों के दो पीढी के जेनेरेशन गैप में
कई बाते कभी पसंद की गयी और कई बाते नापसंद की गयी. कुछ आदतों और बातो को स्वीकार
किया गया, कुछ पर
आपत्ति उठायी गयी. लेकिन मैं हमेशा उनके साथ रहा, भले ही उनकी कुछ बातो से मुझे मेरी
विचारधारा नहीं मिलती थी. कई बार मेरा और उनका कई बातो पर विरोध हुआ. और फिर बाद
में patch-up भी होता रहा. लेकिन फिर भी मेरे लिए पिता ही थे. और अंत तक रहे.
उनकी जब भी तबियत ख़राब होती, मैं या मेरा छोटा भाई हमेशा उनके पास होते. मेरे
छोटे भाई ने भी उनकी बहुत सेवा की.उनके साथ होते. उनका बेहतर से बेहतर इलाज होता
और फिर कुछ दिन साथ में गुजारने के बाद फिर गाँव में रहने जाते. जिस गाँव से वो वो
सब कुछ खोकर बाहर निकले थे, हम ने उस गाँव को उन्हें वापस दिया था. घर और
दूसरी सारी सुविधाओं के साथ !
और वो खुश ही थे. मुझसे हमेशा ही कहते रहते थे की तू इतना अच्छा क्यों
है, तू हर
जनम मेरा बेटा ही बनना. ऐसे ही प्रेम और अनुराग की बहुत सी बाते. और मैं बस मुस्करा
देता था. वो अक्सर मुझसे अपनी की गयी गलतियों के बारे में भी दुखी होकर कहते, जिस पर मेरा कुछ
विरोध रहा. लेकिन ये तो ज़िन्दगी है, बस इसे ऐसे ही गुजरना होता है. कभी ख़ुशी, कभी गम, कभी सही तो कभी गलत
!
करीब ९-१० साल पहले जब मैंने अपने आपको ज़िन्दगी के एक नए आयाम स्पिरिचुअल
डाईमेंशन में परावर्तित किया तो उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ और ख़ुशी भी. और मुझसे
कहते रहते कि तू जहाँ पहुंचा है वहां हममें से कोई नहीं पहुंचा. मैं मुस्कराकर
कहता, आप सभी न होते तो मैं भी नहीं होता. बस ऐसे ही बातो से जीवन गुजर रहा था.
मैंने अपनी माँ को बहुत चाहा,अब भी चाहता हूँ, मुझे लगता है कि दुनिया में कोई और इंसान
कभी भी मुझे मेरी माँ की तरह प्रेम नहीं कर सकेंगा. लेकिन मेरे पिताजी भी मुझे
बहुत चाहते थे. मेरे स्वभाव में उन्हें मेरी माँ नज़र आती थी. जो क्षमा की देवी थी
!
करीब ७ महीने पहले उनके एक रूटीन चेकअप के दौरान पता चला कि उन्हें
liver cancer – terminal stage पर है. हम सब को एक आघात सा लगा. मैंने करीब ४
हॉस्पिटल में उन्हें दिखाया. पर सभी डॉक्टर्स ने एक ही बात कही की अब ज्यादा समय
नहीं रहा है, मुश्किल से ६ महीने !
मेरे पिताजी को इस समाचार पर विश्वास नहीं हुआ. मैंने उनसे बैठकर बात
की, उनसे
कहा कि ये सच है. लेकिन अब इससे भी बड़ी बात ये है कि आपको पूरी तरह से जीना है और
अपने जीवन के अंत को स्वीकार करना है. ये सब बाते उनके लिए मुश्किल थी. वो समझ
नहीं पा रहे थे. उनके पैर में एक घाव हो गया था, मैं उसकी ड्रेसिंग करता, उन्हें दवाई देता
और उनसे ढेर सारी बाते करते रहता. लेकिन जैसे ही मैं कुछ देर के लिए उनसे अलग होता
वो अपने एकांत में चले जाते. वो अपने जीवन के इस तरह के अंत को स्वीकार नहीं कर पा
रहे थे.
फिर एक दिन मैंने उनसे पूछा कि वो कहाँ से जीवन को विदा कहना चाहते है, मेरे घर से या छोटे
भाई के घर से या गाँव से. उन्होंने सोचकर कहा कि वो गाँव से ही विदा होना चाहते है
क्योंकि वो वही पैदा हुए, वही बड़े हुए, वही पर शुरुवाती रोजगार किया और वही उनका
ब्याह हुआ, वही पर
से वो नागपुर पहुंचे और फिर अब वो वही से, अपने गाँव से विदा होना पसंद करेंगे.
मैंने गाँव में सारी व्यवस्था की. और उन्हें गाँव में लेकर गया. मैंने
हर १० दिन में गाँव जाता,हफ्ता भर रहता जाता, उनके साथ वक़्त बिताता. मैंने दवाई और
खाने पीने की सारी व्यवस्था कर दी. धीरे धीरे मेरा भी गाँव से एक रिश्ता बन गया.
मैंने पिताजी के साथ बहुत देर तक बैठकर बहुत सी बाते करता.
धीरे धीरे मैंने उन्हें मृत्यु को प्रेम से और आनंद से स्वीकार करने
के लिए तैयार कर दिया. अब वो सहज हो चुके थे. मैंने उन्हें बहुत सी कहानियाँ बतायी.
लेकिन मृत्यु से शायद सभी को डर लगता ही है. उन्हें समय लगा सहज होने के लिए और
मेरी ही सोच पर उतर कर जीने के लिए !
ज़िन्दगी अब जैसे रिवर्स गियर में चल रही थी. जैसे उन्होंने मुझे बड़ा
किया था वैसे ही अब मैं उनके साथ कर रहा था. मैं उन्हें खिलाता. मैं उन्हें चलाता, मैं कहानी बताता, उनकी ड्रेसिंग करता, उनके कपडे बदलता, उनका मल-मूत्र साफ़
करता. उन्हें अपने साथ लेकर चलाता. उनकी खूब सेवा की.
मैंने उनसे कहा कि जैसे उन्होंने जीवन को स्वीकार किया है, वैसे ही वो मृत्यु
को भी स्वीकार करे. जो हो गया वो हो गया. जो बीत गया वो बीत गया. उन्होंने एक भरा
पूरा जीवन जिया है. एक परिवार , एक ज़िन्दगी. सब कुछ तो जी लिया है. अब किसी भी
बात से उन्हें व्यथित नहीं होना चाहिए.
मैंने उनसे एक बार कहा, हो सकता हो की जीवन की इस आपाधापी में इतने बरसो
में कभी मुझसे कोई गलती हुई हो, तो वो मुझे माफ़ जरुर करे. क्योंकि ये ज़िन्दगी तो
बहुत सी घटनाओ का ही जमा-पूँजी होती है.तो उन्होंने कहा कि मुझसे कभी भी कोई गलती
नहीं हुई और उन्होंने मुझे ढेर सारा आशीर्वाद दिया था.
उनके लिए अंतिम दिनों में मैं उनका पुत्र ही नहीं बल्कि उनका दोस्त,
उनकी माँ, उनका भाई, उनका सन्यासी गुरु बन गया था जो कि उनसे जीवन के अंत को स्वीकार करने
की कला को जानने के बारे में कहता था.
और फिर इसी तरह से पिछले साल के ६ महीने गुजरे और उन्होंने २२ दिसंबर
२०१४ को सुबह ५ बजे अंतिम सांस ली !
जैसे एक युग का ही अंत हुआ हो, पर मुझे तो अब भी वो करीब ही है ऐसा ही लगता है, कोई कमी नहीं महसूस
होती है. वो अक्सर मुझसे कहते थे, विजया [ उन्होंने मुझे कभी विजय नहीं कहा, बस हमेशा विजया ही
कहा, माँ भी
विजया ही कहती थी ] तू हमेशा इतना शांत कैसे रह सकता है, इतनी मुश्किल में भी
हँसना, ये तो
बहुत कठिन है मैं उनसे कहता, यही सबसे आसान है इसी तरह से जीना है. और इसे ही
जीवन कहते है. वो मुझे बहुत सा आशीर्वाद देते और मैं बस मुस्करा देता.
आज वो शरीर रूप में नहीं है, लेकिन उनका प्रेम और उनका आशीर्वाद हमेशा ही
मेरे साथ है.
उनको नमन और श्रद्धांजलि.
विजय
[ फोटो में मेरे पिताजी , मेरे बच्चो के साथ ]
पिताजी को नमन और श्रद्धांजलि।
ReplyDeleteआपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (23.01.2015) को "हम सब एक हैं" (चर्चा अंक-1867)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।
पिताजी को नमन और श्रद्धांजलि....ऐसे बेटे-पिता का रिश्ता हर घर में हो!
ReplyDeleteआपके स्वर्गीय पिताजी की आत्मा को शांति मिले
ReplyDeleteऐसी कामना के साथ एक और कामना है—कि
हर मां व पिता को उनके बच्चे इसी तरह जीवन से
विदा दे सकें.
पिताजी को नमन....जब कोई अपना चला जाता है तो हम उन बातों को भी याद करते हैं जो कभी जीवन में मायने नहीं रखती थी। पारिवारिक संबंध सुखद हो तो जाने वाला और उन्हें याद करने वाला...सबको संतोष होता है।
ReplyDeletesuper
ReplyDelete