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Sunday, February 28, 2016

लघुकथा : दंगा



कल से इस छोटे से शहर में दंगे हो रहे थे. कर्फ्यू लगा हुआ था. घर, दूकान सब कुछ बंद थे. लोग अपने अपने घरो में दुबके हुए थे. किसी की हिम्मत नहीं थी कि बाहर निकले. पुलिस सडको पर थी.

ये शहर छोटा सा था, पर हर ६ – ८ महीने में शहर में दंगा हो जाता था. हिन्दू और मुसलमान दोनों ही लगभग एक ही संख्या में थे. कोई न कोई ऊन्हे भड़का देता था और बस दंगे हो जाते थे. पुलिस की नाक में दम हो गया था, हर बार के दंगो से निपटने में. नेता लोग अपनी अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेकते थे. पंडित और मुल्ला मिलकर इस दंगो में आग में घी का काम करते थे. आम जनता को समझ नहीं आता था कि क्या किया जाए कि दंगे बंद हो जाए. उनके रोजगार में, उनकी ज़िन्दगी में  इन दंगो की वजह से हर बार परेशानी होती थी.

एक फ़क़ीर जो कुछ महीने पहले ही इस शहर में आया था, वो भी सोच में बैठा था. उससे मिलने वाले मुरीदो में हिन्दू और मुसलमान दोनों ही थे और आज दो दिन से कोई भी उसके पास नहीं आ पाया था.

आज वो शहर में निकल पड़ा है, हर गली जा रहा है. और लोगो से गुहार लगा रहा है. न कोई उससे मिल पा रहा है और न ही कोई भी उसे कुछ भी नहीं दे पा रहा है. फ़कीर को दोपहर तक कुछ भी नहीं मिला.

वो थक कर एक कोने में बैठ गया. एक बच्चा कही से आया और फ़क़ीर के पास बैठ गया, फ़क़ीर ने उससे पुछा क्या हुआ, तुम बाहर क्यों आये हो, देखते नहीं शहर में दंगा हो गया है.

बच्चा बोला, “मुझे भूख लगी है, घर में खाना नहीं बना है. माँ भी भूखी है, बाबा को कोई काम नहीं मिला आज. हम क्या करे. हमारा क्या कसूर है. हम क्यों भूखे रहे इन दंगो के कारण !”

फ़क़ीर का मन द्रवित हो गया. फ़क़ीर के पास ५० रूपये थे. उसने वो ५०  रूपये बच्चे को दे दिए और कहा, “जाओ घर जाओ और बाबा को कहो कि गली के मोड़ पर पंसारी के घर में बनी हुई दूकान से कुछ ले आये और खा ले.”

बच्चा ख़ुशी ख़ुशी घर की ओर दौड़ पड़ा. फ़क़ीर उसे जाते हुए देखता रहा.

थोड़ी देर बाद कुछ सोचकर फ़क़ीर पुलिस स्टेशन पंहुचा. वहां के अधिकारी भी फ़क़ीर को जानते थे. उन्होंने फ़क़ीर को बिठाया और चाय पिलाई. फ़क़ीर ने कहा, “कर्फ्यू खोल दो बाबा.” अधिकारी बोले, “फ़कीर बाबा नहीं, दंगा बढ़ जायेंगा. पता नहीं कितने लोग घायल हो जाए.”

फ़क़ीर ने कहा, “आप शहर में खबर करवा दो कि फ़क़ीर बाबा मिलना चाहते है.”

और फिर वैसा ही हुआ लोग आये. फ़क़ीर ने बहुत सी बाते कही, एक दुसरे के साथ मिलकर रहने की बात कही, ये भी कहा कि आज के बाद कोई अगर दंगा करेंगा तो फ़क़ीर अपनी जान दे देंगे. लोगो पर असर हो ही रहा था कि किसी बदमाश ने कहा, “फ़क़ीर तो नाटक करता है, सब झूठ बोलता है.” इसी तरह की बाते होने लगी और वहां फिर संप्रदाय और जातिवाद का जहर फैलने लगा.

कुछ लोगो ने गुस्से से उस बोलने पर हमला कर दिया, वो किसी और जाति का निकला, फिर उस जाति के लोगो ने इन लोगो पर हमला कर दिया, खूब मारपीट होने लगी, फ़कीर बीच में पहुंचे बीचबचाव के लिए, तब तक मारपीट फिर से दंगे में बदल गया था.

पुलिस ने लाठीचार्ज किया, सबको अलग किया तो देखा, फ़क़ीर बाबा, इस छोटे से दंगे में फंसकर मर चुके थे.

सारे लोगो में सन्नाटा छा गया. उसी वक़्त शहर में ये तय हुआ कि कोई भी दंगा नहीं होंगा. उस  दिन से शहर में शान्ति छा गयी.  फिर कभी उस छोटे शहर में दंगा नहीं हुआ.


समाप्त 

लघुकथा : प्रेम की जीत !!



बिहार के दरभंगा जिले के दो परिवार है . एक है भूमिहार और दूसरा क्षत्रिय. दोनों के परिवार एक दुसरे से अपरिचित है . दो अलग अलग जगहों में रहते है . दोनों के बच्चे शहर में जाकर एक ही कॉलेज में एडमिशन लेते है . भूमिहार परिवार का पुत्र का नाम राजेश है और क्षत्रिय परिवार की लड़की का नाम संगीता है . दोनों के बच्चे शुरू की नोकझोंक के बाद दोनों में दोस्ती हो जाती है . इसी तरह से वो दोनों बहुत गहरे दोस्त बन जाते है .

दुसरे साल की पढाई में कॉलेज की टीम पिकनिक के लिए जाती है . वहां पर नदी में अचानक संगीता फिसल जाती है और बहने लगती है . तब ये राजेश उसकी जान बचाता है . बाद में इसी के कारण उसे निमोनिया हो जाता है . किसी तरह से वो बच जाती है , और लड़के की बहादुरी से संगीता प्रेरित होकर उससे प्रेम करने लग जाती है .और दोनों में प्रेम हो जाता है . 

उनका प्रेम परवान चढ़ता है . और वो दोनों निर्णय करते है कि उन्होंने शादी कर लेनी चाहिए . जब वो शहर से वापस जाते है तो अपने अपने परिवार में इसके बारे में बात करते है लेकिन दोनों के परिवार इसके लिए इनकार कर देते है . और दोनों परिवार के मुखिया एक दुसरे से लड़ते भी है .

इसी बीच राजेश की नौकरी किसी और शहर में लग जाती है और वो चला जाता है . वो संगीता  से कहता है कि भाग कर शादी कर लेते है . लेकिन संगीता मना कर देती है , वो कहती है कि सबकी रजामंदी से ही शादी होंगी . वो राजेश को विश्वास दिलाती है कि वो दोनों परिवारों को जोड़ेंगी .

संगीता , राजेश के छोटे भाई नरेश से दोस्ती करती है और उसी के सहारे वो राजेश की माँ से भी मिलती है . और धीरे धीरे वो राजेश की माँ को पसंद आने लगती है. राजेश की मां संगीता से , उसकी सादगी से , उसकी सरलता से और उसके बातो से बहुत प्रभावित होती है . वो और राजेश का छोटा भाई नरेश , दोनों मिलकर धीरे धीरे परिवार के सारे सदस्यों को संगीता की  तरफदारी में धीरे धीरे जोड़ते है .

कई घटनाएं घटती है और धीरे धीरे दोनों परिवार एक दुसरे के करीब आते है .सिर्फ राजेश के पिता ही नहीं मानते है . फिर एक दिन वो बीमार हो जाते है , मेडिकल हॉस्पिटल में चेकअप के दौरान पता चलता है कि उनकी दोनों किडनी  फेल हो गयी है . उनके परिवार में किसी भी सदस्य के किडनी का मेल उनसे नहीं होता है . वो मृत्यु के द्वार तक पहुँच जाते है . ऐसे में वो संगीता अपनी किडनी की जांच करवाती है और ये पता चलता है कि उसकी किडनी राजेश  के पिताजी की किडनी से मैच / मेल  करती है . तो वो ये निर्णय करती है कि वो राजेश के पिता को अपनी एक किडनी देंगी . सभी उसे मना करते है , पर वो अपनी किडनी , राजेश के पिता को डोनेट करती है . और वो बच जाते है

संगीता के त्याग को देखकर राजेश के पिता रो देते है. और उसे अपनी गलती समझ में आ जाती है . उनके ठीक होते ही राजेश और संगीता की शादी हो जाती है .

इस तरह से संगीता ने अपनी हिम्मत और दया और प्रेम से राजेश के कट्टर परिवार को जोड़ा दिया और अपने प्रेम को भी हासिल कर लिया

समाप्त 



लघुकथा : बेटी



आज शर्मा जी के घर में बड़ी रौनक थी, उनकी एकलौती बेटी ममता की शादी जो थी.

बहुत से मेहमानों से घर भरा हुआ था, दरवाजे पर शहनाई बज रही थी, खुशियों का दौर था.

शर्मा जी बड़े व्यस्त थे. फेरे हो रहे थे. बेटी की विदाई के बारे में सोच सोच कर ही शर्मा दम्पति का दिल दुःख जाता था. शर्मा जी की पत्नी की आँखों से आंसू बह रहे थे. शर्मा जी भी थोड़ी थोड़ी देर में आंसू पोंछ लेते थे. फेरे हो गए, सभी दावत में व्यस्त हो गए. शर्मा जी बात बात में अपनी पत्नी से उलझ जाते थे. दोनों में कभी भी एक बात पर एकमत नहीं हो पाता था.

पार्टी में शर्मा जी हर किसी से बस यही कह रहे थे कि आज उनकी बिटिया के जीवन का सबसे अच्छा दिन है, वो एक राजकुमार जैसे इंसान से शादी कर रही है, जो उसे राजकुमारी की ही तरह रखेंगा.

ममता बहुत खुश थी, बस उसके मन में एक ही उदासी थी कि उसे अब ये पीहर का घर छोड़कर जाना होंगा. उसे पता है कि उसके पिता की वो सबसे बड़ी कमजोरी है वो कैसे उसके बिना रह पायेंगे. बस यही सोच उसके मन में चल रही थी. एक और बात थी जो उसे बहुत परेशान कर रही थी, वो थी उसके माता पिता का आपस में बार बार हर दूसरी-तीसरी बात में लड़ना. वो सोच रही थी और फिर उसके मन में एक विचार आया.

दावत करीब ख़त्म होने पर थी. थोड़ी देर में ही विदाई की रस्म थी.

ममता स्टेज पर पहुंची और उसने माइक पर सबको संबोधन करना शूरू किया.

“आप सभी का धन्यवाद कि आप लोग यहाँ आये. मेरे पिताजी और माताजी का आप सभी ध्यान रखना क्योंकि मेरे जाने के बाद वो अकेले ही हो जायेंगे. मैं एक बात कहना चाहती हूँ. मेरे पिता से और सभी लडकियों के पिताओं से. आप हम लड़कियों को बड़े प्यार से पालते है और शादी करते समय यही चाहते है कि हमें पति के रूप में कोई ऐसा इंसान मिले जो हमें राजकुमारी की तरह रखे और एक ऐसी ज़िन्दगी दे, जो परीकथाओ जैसी हो.”

सब शांत हो गए थे. सभी ध्यान से  ममता की बाते सुन रहे थे.

ममता ने आगे कहा, “ आप सभी से मैं एक ही बात कहना चाहूंगी कि क्या आपने जिस लड़की से ब्याह किया है, उसे क्या आपने राजकुमारी की तरह रखा, क्या उसे परिकथा जैसा जीवन दिया. उसके साथ लड़ने झगड़ने में जीवन गुजारने के अलावा क्या आपने उसे वो सारी खुशिया दी, जिनकी कल्पना, उनके पिता ने आपके साथ उनकी शादी करवाते वक़्त की थी या जैसे मेरे पिता इस वक़्त मेरे लिए कर रहे है, या दुसरे पिता अपनी बेटियों के लिए करेंगे.”

हाल में सन्नाटा छा गया था. ममता की माँ की आँखे मानो बारिश बरसा रही थी. हाल में मौजूद कई स्त्रियाँ रो रही थी, पुरुष चुप थे. शर्मा जी का सर झुक सा गया था.

ममता ने फिर कहा, “अब भी समय है, मेरे जाने के बाद या आपकी बेटियों की विदाई के बाद आप उस औरत के साथ वही व्यवहार करिए, जो आप अपनी बेटी के साथ उसके पति या ससुराल के द्वारा होते देखना चाहते है. इससे उन औरतो को उनका खोया हुआ मान मिलेंगा, उनके पिता के चेहरों पर ख़ुशी आएँगी और आप सभी को जीने का एक नया सहारा मिलेंगा. बस मेरी इतनी सी बात मान लीजिये, यही मेरी सच्ची विदाई होंगी.”

ये कहकर ममता नीचे आ गयी, उसकी माँ और पिता ने उसे गले से लगा लिया, सारा हाल तालियों  की गड़गड़ाहट से गूँज गया था.

एक बेटी ने अपना हक अदा कर दिया था.

समाप्त 

लघुकथा : माँ



मैंने रेड सिग्नल पर अपनी स्कूटर रोकी . ये सिग्नल सरकारी हॉस्पिटल के पास था . उस जगह हमेशा बहुत भीड़  रहती थी. मरीज , बीमार, उनके रिश्तेदार और भी हर किस्म के लोगो की भीड़ हमेशा वहां रहती थी,

अब चूँकि सरकारी हॉस्पिटल था तो गरीब लोग ही वहां ज्यादा दिखाई देते थे. अमीर किसी और महंगे हॉस्पिटल में जाते थे. इस संसार में गरीब होना ही सबसे बड़ी बीमारी है . ऊपर से यदि कोई भयानक शारीरिक रोग लग गया हो तो , क्या कहना , जैसे कोढ़ में खाज !

मेरे लिए ये रोज का ही दृश्य था. मैं बड़ा संवेदिनशील व्यक्ति था और मुझे ये दृश्य पसंद नहीं था, पर क्या करू और कोई रास्ता भी नही था ऑफिस की ओर जाने के लिए. स्कूटर बंद करके मैंने अनमने भाव से हॉस्पिटल की तरफ देखा. वही भीड़ , वही रोना , वही कराहना !

मैंने देख ही रहा था कि एक औरत के जोर जोर से हंसने की आवाज़ आई , मैंने उस ओर देखा तो एक बूढी सी औरत जोर जोर से हंस रही थी. वो गरीब तो नहीं लग रही थी. मुझे कुछ अजीब सा लगा . फिर  वो रोने लगी . मैंने अपना स्कूटर उसकी तरफ मोड़ा और उसके पास जाकर रुका .

मैंने पुछा “माई क्या हुआ है . कुछ मदद चाहिए इलाज के लिए , क्या हुआ .बताओ तो सही .”

कुछ लोग और भी जमा हो गए थे . अपने देश में तमाशाई बड़े जल्दी जमा हो जाते है.

उस बूढी औरत ने कुछ नहीं कहा , वो रोते रोते चुप हो गयी , मैंने अपनी पानी की बोटल दी .उसे पीने को कहा. उसने भरी हुई आँखों से मुझे देखा और पानी पीने लगी .

वो थोडा शांत हुई तो मैंने फिर से पुछा , “क्या हुआ माई , हॉस्पिटल के लिए कोई मदद चाहिए . बोलिए तो . कुछ रुपया दे दूं. आपके साथ कोई नहीं है क्या . बच्चे कहाँ है ?

उसने कहा , “यहाँ कोई नहीं है बेटा. जब मेरे बच्चे छोटे थे तब , आपस में , मेरी माँ - मेरी माँ कह कर लड़ा करते थे... आज जब वो बड़े हो गए है तो तेरी माँ - तेरी माँ  कहकर लड़ते है और आज उन्होंने हमेशा के लिए यहाँ छोड़ दिया है . बचपन में मैं जब एक को संभालती थी , तो दूसरा भी आ जाता था ,कहता था माँ मुझे भी संभालो और आज जब मेरी तबियत ख़राब हो गयी है तो आपस में कहते है , तू संभाल , तेरी भी तो माँ है . अब मैं यहाँ हूँ. अकेली , सब है , पर कोई नहीं . मैंने जिन्हें संभालकर बड़ा किया है आज उनके पास मुझे संभालने के लिए न समय है और न ही प्यार बचा हुआ है ”

मैं स्तब्ध था . आसपास की भीड़ चुप थी और अब अपने अपने काम के लिए वापस जा रही थी. तमाशा ख़त्म हो गया था. अपने देश में तो ऐसा ही होता है .

मैं व्यथित था. मेरा मन भी भर आया था. मैंने धीरे से कहा, “ माई , बात सिर्फ प्यार और मोह की होती है , वो है तो सब है , वरना कुछ भी नहीं ! “

उस बूढी औरत ने फिर कहा , “मेरा कसूर क्या है , सिर्फ यही कि मैं अब बूढी हो चुकी हूँ और मैं बीमार हूँ , बचपन का मेरी माँ अब तेरी माँ में बदल चूका है. लेकिन फिर भी माँ हूँ, मेरा क्या है , आज हूँ और कल नहीं हूँ.  वो जहाँ रहे खुश रहे .”

मैंने भरी हुई आँखों से उसके हाथ में कुछ रुपये रखे और चल पड़ा.

माँ पीछे ही रह गयी . अकेली !

समाप्त