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Monday, August 26, 2013

आसक्ति से विरक्ति की ओर .....!





 आसक्ति से विरक्ति की ओर .....!

:::  भाग एक  ::::

श्रावस्ति नगर के निकट स्थित प्रकृति की सुन्दरता से सजी जेतवन में सुबह की नर्म धूप की सजावट मौजूद थी । और ये धूप, वन में मौजूद पेड़ो से छन कर ; राह पर पड़े पत्तो पर गिरी हुई ओस की बूंदों पर बार बार अपने देवता सूर्य के अद्भुत प्रकाश की झलक दिखा जाती थी ! और इसी सुन्दर प्रदेश में स्थित बुद्ध विहार से महात्मा बुद्ध की धीर गंभीर स्वर में उनकी देशना गूँज रही थी । 

श्रीघन तथागत कह रहे थे ,  “ मनुष्य अपने जीवन में अनेक प्रकार के दुखो से पीड़ित है , और इनमे से अधिकांश दुःख वो होते है जिन्हें स्वंय मनुष्य ने ही अंगीकृत किया हुआ होता है और ये सब मनुष्य ने सिर्फ और सिर्फ अपने अज्ञान के कारण ही अपनाया होता है और उन दुखो का निराकरण सिर्फ और सिर्फ ज्ञान के द्वारा ही सम्भव है और इसके निवारण के लिए दूसरी कोई राह नहीं है । किसी के आशीर्वाद या वरदान से उन्हें दूर नहीं किया जा सकता

जेतवन के बौद्ध विहार में भगवान बुद्ध की कुटिया के सामने बड़ी संख्या में  बौध भिक्षु बैठे हुए थे और भगवान अपनी मृदल वाणी में उन्हें एक नयी देशना दे रहे थे ।

तथागत के इस कुटिया को गंधकुटीके नाम से जाना जाता था और प्रभु वर्षाकाल में यहीं  उपस्थित रहते थे। आज काफी संख्या में बौद्ध भिक्षु आये हुए थे और भगवान के सभी प्रमुख शिष्य भी उपस्थित थे। सबके आतुर नयन ज्ञान की अभिलाषा में , महात्मा बुद्ध के सुन्दर और शांत मुख पर टिके हुए थे 

शास्तृ बुद्ध के वचन भिक्षुओ के मन के भीतर में अमृतकण की तरह उतर रहे थे।

तथागत आज एक नए भिक्षु विचित्रसेन का परिचय देने वाले थे. ये नया सन्यासी विचित्रसेन ; एक अद्भुत आलोक को अपने मुख पर लिए हुए था. दुसरे प्रमुख शिष्य सारिपुत्र , आनंद, राहुल , उपाली , अनिरुद्ध  , कात्यायन , सुभूति , पुन्ना मंतानिपुत्त , महाकश्यप , मौदग्‍लायन भी वहां उपस्थित थे और शांत ध्यान की मुद्रा में बैठकर तथागत को सुन रहे थे  

विचित्रसेन एक अनोखे मौन में था। अद्ववयवादिन बुद्ध के स्वर जैसे उसकी आत्मा का अंग बनते जा रहे थे। उसका ध्यान दुसरे सन्यासियों से अलग ही था। उसके मुख पर एक सौम्य मुस्कान थी , जो कि  उसके मन की स्थिरता की सूचक थी। 

तथागत कह रहे थे , " सत्य या यथार्थ का ज्ञान ही सम्यक ज्ञान है । अत: सत्य की खोज दुःख के मोक्ष के लिए अत्यंत आवश्यक है   खोज अज्ञात सत्य की ही की जा सकती है और यदि  सत्य किसी शास्त्रआगम या उपदेशक द्वारा ज्ञात हो गया है तो वो एक खोज नहीं है , अत: अपनी खोज सत्य की सही  दिशा  के लिए ही रखनी चाहिए तथा स्वंय ही अपने लिए सत्य की खोज करनी चाहिए 

भगवान बुद्ध की वाणी स्निग्ध , मृदु , मानोज्ञवाक् तथा मनोरम थी । भगवान की वाणी के 64 अंग थे ; जिन्हें 'ब्रह्मस्वरभी कहा जाता था  और आज तो मारजित बुद्ध की करुणा और शान्ति से भरी हुई वाणी , उनके शिष्यों को जैसे परमज्ञान दे रही थी ।

भगवान जिन ने आगे कहा :
“ को नु हासो किमानन्दो निच्चं पज्जलिते सति |
अंधकारेन ओनद्धा पदीपं न गवेसथ ||”

षडभिज्ञ बुद्ध ने शांत स्वर में कहा , “इस श्लोक का अर्थ है कि यह हँसना कैसा ? यह आनंद कैसा ? जब  नित्य ही चारों ओर आग लगी है। संसार उस आग में जला जा रहा है। तब अंधकार में घिरे हुए तुम लोग प्रकाश को क्यों नहीं खोजतेइसलिए मैं तुमसे कहता हूँ कि प्रकाश को खोजो, सुखो को नहीं |

ये कहकर भगवान  मुस्कराए और फिर उन्होंने विचित्रसेन को इशारे से अपने करीब बुलाया । और वहां स्थित सारे भिक्षुओ को उसका परिचय दिया। बुद्ध ने कहा,  “ये युवा भिक्षु अपने आप में एक पूर्ण सन्यासी है , इसके मुख की आभा ही बताती है कि ये बुद्धत्व  को प्राप्त है , और एक दिन ये सन्यासी एक नयी देशना इस संसार को देंगा ”

विचित्रसेन ने झुककर कर संघ को प्रणाम किया और कहा , “आपके तथा अन्य भंतो के सानिध्य में अगर मैं कुछ भी सीख पाऊं तो वही मेरे जीवन की अमूल्य निधि कहलाएंगी 

सभी भिक्षुओ ने प्रसन्नता जाहिर की।

बुद्ध ने अपना चीवर ओढ़ा और अपना भिक्षापात्र उठाकर सभा समाप्ति की घोषणा की।

इसके साथ ही अन्य भिक्षु भी अपने भिक्षापात्रो को उठाकर  नगर और गाँवों की ओर भिक्षाटन के लिए चल दिए 

श्रावस्ति कोशल देश की राजधानी थी। कोशल देश का ये नगर हमेशा ही सुन्दर, रमणीकदर्शनीयमनोरम और धनधान्य से संपन्न था। वहाँ के नागरिक गौतम बुद्ध के बहुत बड़े भक्त थे। उस वक़्त वहां के भिक्षुओं की संख्या करीब 5 करोड़ थी। इसके अलावा वहाँ के तीन लाख से ज्यादा गृहस्थ बौद्ध धर्म को मानते थे।

इसी नगर में 'जेतवन'  नाम का एक उद्यान था जिसे वहाँ के राजकुमार जेत ने आरोपित किया था। इस नगर का एक प्रसिद्द व्यापारी अनाथपिण्डिक बुद्ध का प्रिय शिष्य था और वह  इस उद्यान के शान्तिमय वातावरण से बड़ा प्रभावित था। उसने इसे ख़रीद कर बौद्ध संघ को दान कर दिया था। इस पूँजीपति ने जेतवन को उतनी मुद्राओं में ख़रीदा था जितनी कि बिछाने पर इसके पूरे फ़र्श को भली प्रकार ढक देती थीं। उसने इसके भीतर एक मठ भी बनवा दिया जो कि श्रावस्ती आने पर बुद्ध का विश्रामगृह हुआ करता था। इसे लोग 'कोसल मन्दिरभी कहते थे। अनाथपिंडिक ने जेतवन के भीतर कुछ और भी मठ बनवा दिये जिनमें भिक्षु लोग रहते थे। इसके अतिरिक्त उसने कुएँतालाब और चबूतरे आदि का भी वहाँ निर्माण करा दिया था। 

भिक्षु , भिक्षाटन भी करते और बुद्ध के उपदेशो को हर जगह पहुंचाने का कार्य भी करते थे । वह काल बुद्ध और उनके अनुयायियों और बुद्ध धर्म के विकास का काल था 

::::: भाग दो  ::::

आज बुद्ध पूर्णिमा थी और करीब १५००० शिष्य और भिक्षु और अन्य ,इस अवसर पर  एकत्रित हुए थे  चारो ओर चंद्रमा की शीतल चांदनी छिटक रही थी और उसकी दुग्ध रौशनी में भगवान बुद्ध का चेहरा दीप्तिमान हो रहा था 

हर कोई सिर्फ तथागत के मुखमंडल को देख  रहा था और एक अलोकिक ध्यान में डूबा हुआ था।

गौतम बुद्ध की मन को मोहने वाली वाणी गूँज रही थी   :

"मेरे प्रिय अनुनायियो , मैं तुम्हे मोक्ष या निर्वाण देने का कोई वादा नहीं कर सकता हूँ , हाँ ये जरुर कह सकता हूँ की जो मेरे बताये हुए मार्ग पर पूर्ण समर्पण से चलेगाउसे निर्वाण की प्राप्ति अवश्य होगी।'
 
मुनिवर समन्तभद्र ने आगे कहा मेरा मार्ग तुम सबके लिए मध्यम मार्ग है”  और फिर उन्होंने अपने भिक्षुओं को ये कालजयी उपदेश दिया, ‘‘ भिक्षुओ कभी भी इन दो अतियो का सेवन न करे इन्हें  न पाले , इन्हें अपने विनाश का कारण न बनने दे।

१.      काम सुख में लिप्त होना
२.      शरीर को पीड़ा देना

इन दो अतियों को छोड़ कर जो मध्यम मार्ग हैजो अंतर्दृष्टि देने वालाज्ञान कराने वाला और शांति देने वाला हैवही मध्यम मार्ग श्रेष्ठ है और यह आठ अंगों वाला अष्टांगि है-सम्यक दृष्टिसम्यक संकल्पसम्यक वचनसम्यक कर्मसम्यक जीविकासम्यक व्यायाम अभ्यास, सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि। यहां सम्यक का अर्थ  है सही संतुलित , उचित और ठीक !”

अंत में लोकजित बुद्ध ने मुस्कराकर कहा , “सभी गलत कार्य मन से ही उपजते हैं | अगर मन परिवर्तित हो जाए तो क्या गलत कार्य रह सकता है कुछ  भी तो नहीं  इसलिए अपने मन को संयमित रखो। इसी एक सत्य से तुम्हारा जीवन सुखमय बनेंगा ।“

आज के शब्द , विचित्रसेन के मन पर अंकित हो गए थे ! विनायक बुद्ध के यही शब्द उसकी देशना के सूचक थे

::: भाग तीन :::

आज सुबह ही सभी भिक्षु भिक्षाटन के लिए आस पास के नगर में निकल पड़े थे। विचित्रसेन ने भी अपना चीवर ओढ़ा और अपने भिक्षापात्र को लेकर पास के नगर में निकल पड़ा  जाने के पहले वो बुद्ध की कुटिया के पास रुका और वहां बैठे भगवान को प्रणाम किया   बुद्ध उसे देखकर मुस्करा दिए  आज उनकी मुस्कराहट में एक रहस्य छुपा हुआ था ; जिसे विचित्रसेन नहीं समझ पाया 
विचित्रसेन धीमे धीमे उस नए नगर की गलियों से गुजर रहा था और जहाँ जहाँ उसे लोग दिख पड़ते , उनसे वो भिक्षा माँग लेता था। लोग उसके मांगने के पहले ही उसके भिक्षापात्र में कुछ दान डाल देते थे।  उस सन्यासी की आभा ही कुछ ऐसी थी ।

धीमी चाल से चलते हुए उस सन्यासी ने एक ऐसी राह पर अपने पग डाल दिए , जो कि उसके लिए सर्वदा अनजान थी । वो राह उस नगर की नगरवधू के घर की ओर जाती थी । नगरवधू के निवास की ओर जाने वाली राह में बहुत सजावट थी । लोग उस राह पर जगह जगह एकत्रित थे। वासना और प्रमोद के कोलाहल से वो राह गूँज रही थी । विचित्रसेन के लिए ये सब कुछ नया ही था , पर वो निर्लिप्त भाव से आगे चला जा रहा था। उसकी चाल में एक महात्मा का अनुभव था । एक देवता का वास था । वो अपनी स्निग्ध मुस्कराहट को ओढ़ कर आगे चला जा रहा था। उसके चेहरे पर एक अद्भुत शीलता और शान्ति थी !

लोगो में अचानक ही एक कोलाहल निर्मित हुआ । नगरवधू ने अपने निवास से बाहर कदम रखे थे । नगरवधू ने चारो ओर देखा , हर दिन की भाँति , वासना से भरे हुए लोग । कहीं कुछ भी नया नहीं था। कुछ भी नहीं । उसका मन वितृष्णा से भर उठा।  वहां उपस्थित मानवो की भीड़ उसे पुकार रही थी । उसकी ओर उपहार फेंक रही थी । राजकुमार , धनवान, व्यापारी , योद्धा , इत्यादि ने उसके चहुँ ओर एक घेरा सा बना दिया था। नगरवधू ने सबको धन्यवाद दिया और फिर अपने गृह में वापस जाने के लिए मुड़ी , अचानक उसकी नज़र उस सन्यासी विचित्रसेन पर पड़ी और वो एकटक उसे देखती रह गयी ।

उसने अपने जीवन में अनेक पुरुषो को देखा था , लेकिन ये सन्यासी , उस सब से अलग था । इस सन्यासी का पुराना , फटा हुआ चीवर भी उसमे स्थित आभा को नहीं छुपा पा रहा था । उसका मुख ,उसकी शान्ति , उसकी सौम्य मुस्कराहट , उसकी मस्त चाल, कुछ बात थी उसमे ।

नगरवधू के कदम वापस उस गली की ओर चल पड़े , जिस पर से वो सन्यासी गुजर रहा था । वो विचित्रसेन का रास्ता रोककर खड़ी हो गयी । विचित्रसेन के जीवन में ये एक नयी घटना थी । उसके कदम भी रुक गए । नगरवधू उसे अपलक निहार रही थी ।  वो सन्यासी भी उसे अपलक निहार रहा था। नगरवधू ने अब तक और आज तक सौम्यता से भरा हुआ ऐसा सौंदर्य नहीं देखा था।  विचित्रसेन ने भी ऐसा रूप जिसे अनावश्यक रूप से अति श्रुंगार करके कुरूप सा बना दिया गया था , अब तक नहीं देखा था। क्योंकि उसकी दृष्टी में सच्चा सौन्दर्य तो बस मन के चेहरे का था .

नगरवधू ने विचित्रसेन को प्रणाम किया और कहा , “मेरा नाम देवयानी है , मैं इस नगर की नगरवधू हूँ ।“

सन्यासी ने कहा , “और मैं तुम्हारे नगर का भिक्षु हूँ , मेरा नाम विचित्रसेन है ।“

देवयानी ने कहा , “ऐसा न कहिये प्रभु , आप के सामने तो मैं स्वंय एक भिक्षुणी हूँ । आपका अभूतपूर्व सौंदर्य मुझे आपके वश में करके अभिभूत कर रहा है । आप अतुलनीय है । मैं आप पर मोहित हो गयी हूँ , मुग्ध हो गयी हूँ । हे देवता , मेरा एक निवेदन है आपसे , इस वर्षाकाल में आप मेरे निवास पर रुक जाईये । मैं हर तरह से आपकी सेवा करुँगी । आप जो कहेंगे मैं करुँगी , जो भी आप चाहे ।”

विचित्रसेन ने देवयानी को ओर गहरी नज़र से देखा । उस नगरवधू की आँखों में एक अनबुझी प्यास थी , एक अनंत खोज थी , जो कि उसे उसके भोग विलास में नहीं मिल पा रहा था । राजा महाराजाओ के सानिध्य में नहीं प्राप्त हो रहा था । कुछ ऐसा था ,जो कि वासना से परे था। विचित्रसेन मुस्कराया और विनम्रता से उसे प्रणाम करके शांत और सौम्य स्वर में कहा , “ हे देवी , मैं आज तो आपको कुछ नहीं कह सकता , मुझे अपने गुरु तथागत से इसकी आज्ञा लेनी होंगी । आप कल तक मेरी प्रतीक्षा करे , मैं उनसे पूछकर आपको जवाब देता हूँ । अगर वो आज्ञा दे देंगे तो मैं जरुर आपका आतिथ्य स्वीकार कर लूँगा ।”

ये कहकर विचित्रसेन ने देवयानी को प्रणाम किया और अपने विहार की ओर चल दिया ।

देवायानी ने विचित्रसेन को प्रणाम किया और उसे अपनी आँखों में सारे संसार का प्रेम लिये ; जाते हुए देखती रही । उसका मन कह रहा था कि वो साधू  , जरुर ही उसके आमन्त्रण को स्वीकार कर लेंगा । उसने उसके चरणों की धूल को अपने आँचल  में समेटा और अपने विलासिता से भरे हुए गृह में लगभग नृत्य करते हुए प्रवेश किया । उसका मन उस मयूर की भांति नाच रहा था जिसने अभी अभी ही वर्षा की प्रथम बूँद चखी हो । 

वो अपने आसन पर आनंद में भरकर लेट गयी , और उस मनमोहक सन्यासी के बारे में सोचने लगी । कितना सुन्दर चेहरा था , कितनी मोहकता थी उसके नयनो में । नही नहीं मोहकता नहीं बल्कि शान्ति . हाँ , इसी शान्ति की तो उसे तलाश थी । उसकी बातो में एक नया ही अलंकार था। जिसे उसने अब  तक नहीं जाना था। अब तक जो भी उसके पास आते थे , वो सब वासना से लिप्त होते थे। सिर्फ उसके शरीर के भूखे  , लेकिन इस सन्यासी की बात ही  कुछ और थी । 

देवयानी इस सन्यासी पर आसक्त हो चली थी । एक प्रेम से भरी आसक्ति , जो आज तक उसके मन में कभी जागृत नहीं हुआ था. उस सन्यासी की वाणी में एक चिर कालीन शान्ति थी , एक स्थिरता थी । मानो अमृत रस बरस रहा हो उसकी बातो में । वो परम तृप्ति की अनुभूति में रच गयी ; और उठकर नृत्य करने लगी ।

ये सब देखकर उसकी एकमात्र और प्रिय दासी विनोदिनी ने आकर पुछा , “देवी , क्या बात है , आज बहुत खुश हो , क्या किसी राजकुमार ने तुमसे प्रणय निवेदन किया है ।“ 

ये सुनकर देवयानी ने कहा , " अरी पगली , कोई राजकुमार भला उस सन्यासी के सामने क्या होंगा । मेरा तो भाग्य ही है कि मुझे उस भंते का साथ मिला । किसी सन्यासी का संग मेरे लिए मेरे इस पतित जीवन की सबसे अनमोल निधि है । आज तक तो मुझे सिर्फ मांस के भूखे पशुओ से ही पाला पडा है , वासना की भूखी आँखे लिए गिद्ध की तरह नोचने वाले पशु ही मेरे जीवन में आये है , लेकिन इस सन्यासी में कुछ बात है , कुछ है जो औरो से अलग है । बस मुझे सच्चे प्रेम की प्राप्ति हो गयी है । अरी विनोदिनी , तुम नहीं जानती , आज भगवान कितने खुश  हुए है मुझ पर?

उसने विनोदिनी से कहा , “इस शयन कक्ष को खूब सुन्दर तरह से सजा दे संवार दे, कल मेरे देवता आने वाले है , वो मेरे गृह पर चार माह के लिये निवास करेंगे।“

विनोदिनी ने कहा , “देवी मुझे बहुत ख़ुशी हो रही है कि कोई यहाँ इतने दिन रहेंगा । वरना यहाँ तो रोज ही नित नए लोग आते है और चले जाते है । कोई यहाँ रहेंगा , और आपकी ख़ुशी में वृद्धि करेंगा , मेरे लिए तो यही सबसे बड़ा आनंद है । आपकी ख़ुशी ही मेरे लिए सर्वोपरि है.”

देवयानी की प्रसन्नता मानो आसमान छु  रही थी ।  उसे प्रेम हो गया था , उस सन्यासी से। वो नृत्य कर रही थी , प्रेम के गीत गा रही थी । और उसकी ख़ुशी उसके पूरे निवास स्थल पर अनोखी छटा बरसा  रही थी। उसने दासी से कह दिया कि आने वाले चार माह , इस निवास के द्वार हर किसी के लिए बंद रहेंगे । बस इस गृह में , हम तीन मनुष्य ही निवास करेंगे ।


::: भाग चार  :::


विचित्रसेन भगवान बुद्ध की भरी हुई सभा में पहुंचा । उसने सुगत बुद्ध को प्रणाम किया और कहा , " प्रभु , मैं पास के नगर में भिक्षा मांगने गया था। वहां पर उस नगर की नगरवधू ने मेरा मार्ग रोका और मुझसे निवेदन किया है कि मैं आने वाले वर्षा ऋतु के चार माह उसके साथ उसके निवास स्थान पर व्यतीत करू।  मैंने उससे कहा है कि मैं प्रभु की आज्ञा लेकर आता हूँ।  अगर प्रभु जी आज्ञा देंगे तो मैं जरुर तुम्हारे संग चार माह तुम्हारे गृह पर रह जाऊँगा । अब  आप कहे कि मैं क्या करूँ , मेरे लिए क्या आज्ञा है?

भरी सभा में सन्नाटा छा गया , सारे भिक्षुओ के लिए ये एक नयी घटना थी । कुछ अशांत और विद्रोह के स्वर भी सभा में उठने लगे। मुनीन्द्र मुस्कराए और उन्होंने पुछा , " विचित्रसेन तुम क्या चाहते हो.”

विचित्रसेन ने शांत स्वर में कहा , " हे दशबल बुद्ध   , मेरे लिए तो वो सिर्फ एक स्त्री ही है । वो कुरूप है या सुन्दर , वो नगरवधू है या एक सामान्य युवती , वो धनवान है या निर्धन , इन सब बातो से मुझे कोई सरोकार नहीं है,  न ही ये बाते मेरे लिए महत्वपूर्ण हैं । मेरे लिए तो सबसे महत्वपूर्ण  बात यह  है कि उसने मुझे राह पर रोक कर अपने गृह पर रुकने का निमंत्रण दिया है । उसके नेत्रों में एक अनबुझी प्यास थी , उसके मन में शान्ति की इच्छा थी। उसके पास सब कुछ होते हुए भी कुछ न था। उसकी मुझ पर जो श्रद्धा है , उसे मैं स्वीकार करना चाहता हूँ ; अन्यथा ये बात मेरे मन ह्रदय पर एक बोझ  बनकर रह जायेगी ।  अगर आपकी आज्ञा हो तो मैं इस वर्षा ऋतु  के चार माह उसके निवास पर रुकना चाहता हूँ। आगे आपकी आज्ञा और परम इच्छा ! अब आप जो भी कहें। "

भगवान बुद्ध ने एक बार बहुत गहराई से अपने सन्यासी विचित्रसेन की शांत और स्थिर आँखों में झाँका और फिर मुस्कराकर आज्ञा दे दी।

चारो तरफ शोर सा उठा। एक आग सी लग गयी , कई विरोध के स्वर उठने लगे । कुछ भिक्षुओ ने उठकर बुद्ध से कहा , “ तथागत ; ये तो गलत बात है , अगर आप स्वंय ही इस बात के , एक ऐसी बात की, जो कि सरासर गलत है -एक सन्यासी और वो नगरवधू के घर में  रहे ; की आज्ञा देंगे तो संघ का क्या होगा, हमारी आचार  संहिता का क्या होगा?  इससे तो हमारे ही आचरण पर सवाल उठने लगेंगे ।“

मुनि बुद्ध ने उठकर शांत स्वर में कहा , " मैं विचित्रसेन को जानता हूँ । अगर वो नगरवधु इस सन्यासी के चरित्र को डगमगा देंगी तो इसका संन्यास ही झूठा है । मैं जानता हूँ , एक सन्यासी को इस बात से कोई मतलब नहीं होना चाहिए कि उसका साथी कौन है , कैसा है । देखते है , वर्षा ऋतु के खत्म होने पर विचित्रसेन जब वापस आयेंगा , तब  ही इस पर चर्चा होंगी ।  इस बात को अब यही ख़तम करते है.”

सभा भंग हो गयी । एक अशांति सी छा गयी थी । बहुत से साधुओ में असंतोष भी छाया हुआ था। बहुत से साधू वो भी थे , जिनमे इस बात की कामना थी कि उन्होंने क्यों नहीं मांगी ऐसी आज्ञा जिससे , उनकी सुप्त मनोकामना भी पूरी हो जाती । 

विचित्रसेन अपने चीवर और  भिक्षापात्र के साथ नगर की ओर चल पड़ा.  सभी एक अनजाने से कौतुहल से उसे जाते हुये देखने लगे।

::: भाग पांच   :::

विचित्रसेन  जब नगरवधू के घर पहुंचा तो उसने पाया कि नगरवधू ने अपने गृह को बहुत अच्छे से सजाया हुआ था । पूरे आलय को दीपकों से सजाया हुआ था और अनेकानेक खुशबुओं से उसका आवास महक रहा था । गृह के भीतर  मधुर संगीत की लहरियां गूँज रही थी । विचित्रसेन को ये नूतन परिवेश देखकर ख़ुशी हुई। जैसे ही वो गृहद्वार पर पहुंचा तो उसने देवयानी को अपनी प्रतीक्षा में रत पाया । देवयानी अपनी दासी विनोदनी के संग वहां  खड़ी  थी । उसके हाथो में सुन्दर फूलो का हार था जो उसने उस साधू को अर्पण किया । विचित्रसेन ने झुककर देवयानी को प्रणाम किया । दीपकों की रोशनी में विचित्रसेन का चेहरा दमक रहा था। देवयानी भी खूब अलंकारों से सजी हुई थी । विचित्रसेन ने एक गहरी नज़र से देवयानी को देखा और कहा , " हे देवी , मैंने तथागत की आज्ञा ले ली है । और अब मैं आपके अनुरोध पर आपके निवास में चार माह बिताऊंगा । इस आयोजन के लिए मैं अपने ह्रदय से आपका आभारी हूँ "

देवयानी ने विनम्र स्वर में कहा , " हे महापुरुष , ये तो मेरा सौभाग्य है कि , आपने मेरी प्रार्थना स्वीकार कर ली और मुझ जैसी दासी को अपनी सेवा का अवसर दिया, आईये , भीतर पधारिये "
देवयानी ने विचित्रसेन के कदमो में फूलों को डालना शुरू किया. उसके पग जहाँ जहाँ पड़ते थे , वहां वहां देवयानी, विनोदनी के थाल में से फूल  चुन चुन कर डाल  रही थी । फिर देवयानी  विचित्रसेन को अपने शयन कक्ष में लेकर आई । वहां उसने अपने जीवन के सबसे प्रिय अतिथि को स्थान दिया । फिर उसने विनोदनी से एक थाली मंगवाई , जिसमे चन्दन का जल था , उस जल से उसने विचित्रसेन के चरण पखारे। अपने वस्त्र के किनारे से उन्हें पोंछा। इसके बाद  उसने विनोदनी से कुछ फल मंगवाए और उन्हें विचित्रसेन को अर्पित किया ।

विनोदनी एक किनारे खड़ी होकर नर्म वस्त्रो के बने हुए पंखो  से साधू को पंखा झल रही थी ।
विचित्रसेन के मृदु चेहरे पर एक मुस्कान थी । उसने देवयानी को कहा ," हे देवी , तुमने तो बहुत सा आयोजन कर रखा  है । मैं तो एक साधू हूँ। इस तरह की सेवा का आदि नहीं हूँ और न ही होना चाहता हूँ। इसलिए मेरी विनंती है कि आप कृपया इस अलंकार और आडम्बर से मुझे दूर रखे "
देवयानी ने साधू के चरणों में बैठकर विनम्रता से कहा , " हे महापुरुष , जैसा आप कहे , मैं तो सिर्फ आपको प्रसन्न  करना चाहती हूँ। फिर भी जैसा आप चाहे"

विचित्रसेन ने मुस्कराकर कहा ," नहीं देवी , इन सांसारिक बातो से मुझे कोई ख़ुशी नहीं होती , मैं तो गौतम बुद्ध के  वचनों से ही खुश हो जाता हूँ , और आपसे विनंती करूँगा कि आप भी बुद्ध के वचनों में जीवन का अर्थ ढूंढें "

देवयानी ने कहा ," जैसा आप कहेंगे देवता , मैं तो आपकी दासी हूँ "

अब देवयानी ने  निवेदन किया , “हे देव , आपके स्नान का प्रबंध कर रखा है । आईये । "

विचित्रसेन ने कहा , " मैं अभी स्नान करके पूजा गृह में उपस्थित होता हूँ । मुझे संध्या पूजन करना है "

देवयानी ने आग्रह करके उसे स्वंय नहलाया , और सुगंधित तेलों से उसके शरीर को सुगन्धित  किया । और जब विचित्रसेन का संध्या पूजन ख़त्म हुआ तो  उसने स्वयं  अपने हाथों से उसे सुस्वादु व्यंजन खिलाये. फिर उसे आराम करने के लिए स्वंय के शयन कक्ष में सुला दिया ।
एक तरफ देवयानी और दूसरी तरफ से विनोदनी  हवा के लिये पंखे झल रही थी.  देवयानी ने विचित्रसेन से कहा ," हे प्रभु , क्या मैं आपको एक गीत सुनाऊं ? बाहर  वर्षा हो रही है और वर्षा ऋतु के आगमन पर विरह में तडपती नायिका कुछ निवेदन करना चाहती है " विचित्रसेन ने मुस्कराकर आज्ञा दे दी ।

विनोदनी ने सितार संभाला और उसकी अभ्यस्त उंगलियाँ ने राग मेघ मल्हार की तीन ताल को सितार के तारो पर गुंजायमान किया. देवयानी ने वीणा पर अपनी मधुर तान छेड़ी,   अपने सुमधुर और मनमोहक स्वर में एक गीत सुनाना शुरू किया.

घिर आई फिर से .... कारी कारी बदरिया
लेकिन तुम घर नहीं आये ....मोरे सजनवा !!!
नैनन को मेरे , तुम्हरी छवि हर पल नज़र आये
तेरी याद सताये , मोरा जिया जलाये !!
लेकिन तुम घर नहीं आये ...मोरे सजनवा !!!
सा नि ध पा , मा गा रे सा ......!

बावरा मन ये उड़ उड़ जाये जाने कौन देश रे
गीत सावन के ये गाये तोहे लेकर मन में
रिमझिम गिरती फुहारे बस आग लगाये
तेरी याद सताये , मोरा जिया जलाये !!
लेकिन तुम घर नहीं आये ...मोरे सजनवा !!!
सा नि ध पा , मा गा रे सा ......!

सांझ ये गहरी , साँसों को मोरी ; रंगाये ,
तेरे दरश को तरसे है ; ये आँगन मोरा
हर कोई सजन ,अपने घर लौट कर आये
तेरी याद सताये , मोरा जिया जलाये !!
लेकिन तुम घर नहीं आये ...मोरे सजनवा !!!
सा नि ध पा , मा गा रे सा ......!

बिंदिया, पायल, आँचल, कंगन चूड़ी पहनू सजना
करके सोलह श्रृंगार तोरी राह देखे ये सजनी
तोसे लगन लगा कर , रोग दिल को लगाये
तेरी याद सताये , मोरा जिया जलाये !!
लेकिन तुम घर नहीं आये ...मोरे सजनवा !!!
सा नि ध पा , मा गा रे सा ......!

बरस रही है आँखे मोरी ; संग बादलवा।।
पिया तू नहीं जाने मुझ बावरी का दुःख रे
अब के बरस , ये राते ; नित नया जलाये
तेरी याद सताये , मोरा जिया जलाये !!
लेकिन तुम घर नहीं आये ...मोरे सजनवा !!!
सा नि ध पा , मा गा रे सा ......!

आँगन खड़ी जाने कब से ; कि तोसे संग जाऊं
चुनरिया मोरी भीग जाये ; आँखों के सावन से
ओह रे पिया , काहे ये जुल्म मुझ पर तू ढाये
तेरी याद सताये , मोरा जिया जलाये !!
लेकिन तुम घर नहीं आये ...मोरे सजनवा !!!
घिर आई फिर से .......कारी कारी बदरिया
लेकिन तुम घर नहीं आये ...मोरे सजनवा !!!
सा नि ध पा , मा गा रे सा ......!

इतना गाकर देवयानी शांत हो गयी , उसकी आँखों से अश्रु बह रहे थे। विनोदनी भी रो ही रही थी और जब देवयानी ने साधू की ओर देखा तो उसे आश्चर्य हुआ कि विचित्रसेन की आँखों से भी अश्रुधारा  ही बह रही थी.

देवयानी ने अपने हाथो को जोड़कर कांपते हुए स्वर में कहा , " हे देव , क्या मुझसे कोई गलती हो गयी , क्या मेरी किसी बात से आपको दुःख पहुंचा जो आपकी आँखों में अश्रु ? मैं तो आपको ख़ुशी देना चाहती हूँ।"

विचित्रसेन ने शांत स्वर में कहा , " हे देवी , मैं तो आपको प्रणाम करना चाहूँगा । आप पर माते सरस्वती की असीम कृपा है । आपके स्वर में एक ऐसा आनंद है , एक ऐसा अनहद है कि जो ह्रदय को छूता है , मेरी आँखों में ये अश्रु इसलिए आये है कि मैं आपके गीत में भगवान बुद्ध के विरह को महसूस कर पा रहा हूँ । आपने निश्चित ही एक प्रेम से भरे गीत को मुझे गाकर सुनाया , पर मैंने तो इसमें सिर्फ अपने तथागत को ही देखा । उन्ही का विरह मुझे छू गया है , इसलिए ये अश्रु है । आपकी कला को प्रणाम। "

पहली बार देवयानी विचलित हुई , उसने सोचा था कि वो अपने गीत से इस साधू को रिझा लेगी, उसे अपने प्रेम के वश में कर लेगी , लेकिन विचित्रसेन तो इन सांसारिक बातो से दूर ही दिख रहा है । क्या करे?  वो सोच में पड़ गयी , तभी विचित्रसेन ने कहा , " हे देवी अगर आज्ञा हो तो मैं भी कुछ कहूँ.

देवयानी ने कहा, “हां देवता ,जरुर , ये गृह भी आपका और मैं भी आपकी ही हूँ । कहिये न. आपका स्वागत है. ”

विचित्रसेन ने कहा, “हे देवी मैं तुम्हे बुद्ध के प्रवचनों का सार सुनाना चाहता हूँ.”  देवयानी ने कहा , “निश्चित ही देव, ये तो मेरा परम सौभाग्य  होगा । मुझे अब तक उन्हें  सुनने का सौभाग्य नहीं मिला है , कम से कम उनके वचनों का आनन्द तो उठा ही लूं.”

विचित्रसेन ने कहना शुरू किया , " बुद्ध की शिक्षाओं का सार है : शील, समाधि और प्रज्ञा। सर्व पाप से विरति ही 'शील' है। शिव में निरंतर निरति 'समाधि' है। इष्ट-अनिष्ट से परे समभाव में रति 'प्रज्ञा' है।"

विचित्रसेन के चेहरे पर एक ओज था. उसने आगे कहा ," बुद्ध के उपदेशों का सार इस प्रकार है , सम्यक ज्ञान ,जीवन की पवित्रता बनाए रखना, जीवन में पूर्णता प्राप्त करना , निर्वाण प्राप्त करना , तृष्णा का त्याग करना.”

विचित्रसेन इतना कहकर चुप हो गया । उसने देखा कि एक अदभुत शान्ति उस कक्ष में छा गई  है । देवयानी उसे अपलक निहार रही थी , विनोदनी के दोनों हाथ प्रणाम की मुद्रा में जुड़े हुए थे।
बहुत देर की खामोशी के बाद देवयानी ने कहा, " हे देव अब आप विश्राम करे, आप थके  हुए है । यदि किसी भी सेवा की आवश्यकता हो तो मुझे आदेश दिजीयेगा , मैं यही आपके चरणों के पास लेटी हुई हूँ।  "

विनोदिनी ने सारे आलय के दीपकों को मंद कर दिया और स्वंय देवयानी के पास आकर बैठ गयी ।
रात्रि का तीसरा प्रहर था , जब शनै शनै तीनो निद्रा के आगोश में चले गए।

:::: भाग छह ::::

वर्षा ऋतु के दिन और रातें  गुजरने लगे । अब तो ये रोज की ही दिनचर्या हो गयी , देवयानी अलग अलग तरह से विचित्रसेन को रिझाने की कोशिश करती , उसकी खूब सेवा करती , नृत्य करती , गीत गाती , ठिठोली करती , आनंद के उत्सव प्रस्तुत करती . लेकिन विचित्रसेन ; उसे हमेशा बुद्ध की देशना के बारे में कहता , बुद्ध की शिक्षा  के बारे में उसे बताता , बुद्ध के उपदेशो को उसे सुनाता। धीरे धीरे देवयानी की सारी तरकीबें विफल हो गयी , वो विचित्रसेन और उसके संन्यास को डिगा न सकी , धीरे धीरे वो अब स्वंय ही एक बौद्ध भिक्षुणी में परवर्तित होने लगी थी । उसकी वासना , उसका प्रेम , उसका अलंकार ,सब कुछ  विचित्रसेन के संन्यास के तप में पिघल कर एक नए भाव को उसके मन में जगा गया । और ये भाव था त्याग का , प्रेम के अनुग्रह का , जीवन को उसकी पवित्रता में जीने का ! दोनों के मध्य अब शरीर का कोई महत्व नहीं रह गया था और न ही शरीर में उपजती वासना का कोई औचित्य ! और तो और विचित्रसेन की बातों को सुनकर देवयानी के साथ साथ विनोदनी भी बुद्ध के प्रभाव में बहने लगी थी . 

देवयानी को इस बात का बहुत अहंकार था कि उसके सौन्दर्य के आगे विचित्रसेन पिघल जायेगा, उसके प्रेम में बह जायेगा .  जो प्रेम उसने अब तक किसी से नहीं किया था वो प्रेम अब शरीर के धरातल से उठकर मन के अंतस में समाने लगा  था. विचित्रसेन ने उसके ह्रदय को पूरी तरह से परवर्तित कर दिया था .

उधर बुद्ध के दुसरे भिक्षु , विचित्रसेन के खिलाफ बुद्ध के पास शिकायत करते । उनसे कहते कि देवयानी से विचित्रसेन खूब सेवा करवा रहा है  , देवयानी उसे नहलाती है , उसे नित नए इत्रो से सुगंधित करती है  , उसे नए नए पकवान खिलाती है  , अपनी गोद में उसे सुलाती है  , उसके लिए नृत्य करती है , जितने भी आमोद प्रमोद के साधन है , उन सब का उसके आवास में विचित्रसेन के लिए उपयोग होता है । विचित्रसेन ने बौद्धधर्म का नाश कर दिया , इत्यादि, इत्यादि  । भगवान  बुद्ध सिर्फ सुनते और मुस्कराकर रह जाते । फिर कहते , बस अब वर्षा ऋतु  का समापन होने ही वाला है । कुछ ही दिन की बात और है । देखते हैं क्या होता है, थोडा रुक जाओ भिक्षुओ !

आज वर्षा ऋतु का अंतिम दिन था। आज विचित्रसेन को वापस संघ में लौट जाना था। 

सुबह , जब विचित्रसेन ने अपने मौन ध्यान से गुजरकर आँखे खोली तो देखा ,देवयानी उसके सामने बैठी हुई थी। ये एक नयी देवयानी थी , उसने भिक्षुणी का वेश धारण किया हुआ था। देवयानी ने कहा , " हे देवता , अब तो मैं भी आपके संग ही बुद्ध के पास चलूंगी , मैं हार गयी, आप जीत गए "

विचित्रसेन को ये सुनकर बड़ी ख़ुशी हुई । उसने कहा, “हे देवी , कहीं कोई हार  या जीत का प्रश्न नहीं है । बुद्ध का धम्म तो सबके लिए है,  सबके लिए ही सम्यक भाव से है । और ये धम्म  वही है  जो , प्रज्ञा की वृद्धि करे , जो धम्म सबके लिए ज्ञान के द्वार खोल दे , जो धम्म यह बताए कि केवल विद्वान होना ही पर्याप्त नहीं है , जो धम्म यह बताए कि आवश्यकता प्रज्ञा प्राप्त करने की है , जो धम्म मैत्री की वृद्धि करे , जो धम्म यह बताए कि प्रज्ञा भी पर्याप्त नहीं है, इसके साथ शील भी अनिवार्य है , जो धम्म यह बताए कि प्रज्ञा और शील के साथ-साथ करुणा का होना भी अनिवार्य है , जो धम्म यह बताए कि करुणा से भी अधिक मैत्री की आवश्यकता है , जब वह सभी प्रकार के सामाजिक भेदभावों को मिटा दे , जब वह आदमी और आदमी के बीच की सभी दीवारों को गिरा दे , जब वह बताए कि आदमी का मूल्यांकन जन्म से नहीं कर्म से किया जाए ,जब वह आदमी-आदमी के बीच समानता के भाव की वृद्धि करे। आओ देवी तुम्हारा स्वागत है ।“

विचित्रसेन और देवयानी और विनोदिनी ; जेतवन में स्थित बुद्ध के विहार की ओर चल पड़े ।

::::: भाग सात  :::

चार माह बाद आज विचित्रसेन बुद्ध विहार में पहुंचा। सारे भिक्षुओ को जैसे उसकी ही प्रतीक्षा थी । बुद्ध अपने सारे मुख्य शिष्यों के साथ शांत मुद्रा में विराजमान थे। उन्होंने देखा कि विचित्रसेन के साथ साथ देवयानी और उसकी दासी विनोदिनी भी आ रही है । बुद्ध मुस्करा उठे। सारा संघ आश्चर्य से विचित्रसेन और देवयानी को देख रहा था। विचित्रसेन शांत कदमो से बुद्ध के पास पहुंचा और झुककर प्रणाम किया  और कहा , “हे शाक्य मुनि , आपकी आज्ञा और देवयानी की इच्छा के अनुसार मैंने वर्षा ऋतु के चार माह इसके आवास में व्यतीत किए हैं ।  अब देवयानी भी मेरे साथ यहाँ आपके संघ में शामिल होने के लिए आई है ।"

धर्मराज बुद्ध ने विचित्रसेन को आशीर्वाद दिया और देवयानी की ओर  देखा । देवयानी ने भगवान के चरणों में अपने आपको झुका दिया । और अपने अश्रुओं से उनके चरणों को भिगोने लगी । उसने कहा, " हे तथागत सिद्धार्थ, मैं नहीं जानती कि आपके पास , इस साधू को क्या मिल गया? वो क्या है आपकी देशना में,  जिसके सहवास में इसे इतना आनंद है , मैंने चार माह तक इसे पाने का खूब प्रयास किया लेकिन मैं इसके संन्यास को डिगा तक नहीं सकी , मैंने हर  संभव कोशिश की । लेकिन  ये टस से मस नहीं हुआ । ऐसा क्या दे दिया आपने इसे? ये भिक्षु मेरे हर कार्य से अप्रभावित ही रहा । इसने कभी भी,  मेरी किसी भी बात  या कार्य का विरोध नहीं किया । जो मैं कर सकती थी एक पुरूष को रिझाने के लिए,  वो सब उपाय  मैंने किये। नाच, गाना, साथ सोना, छूना पर वह सदा अप्रभावित ही  रहा। मैं हार गई भगवान,  ऐसा पुरूष मैंने जीवन में नहीं देखा। हजारों पुरूषों का संग किया है। पुरूष की हर गति विधि से में परिचित हूं। पर आपके भिक्षु में जरूर कुछ ऐसा रस है , जिसके कारण  वो इन सांसारिक बातो से ऊपर है । जो इस भोग के रस से कहीं उत्तम है। मुझ अभागी को भी वही मार्ग दिजिये प्रभु,  मुझे  भी उसी  रस की आकांक्षा है  जो क्षण में न छिन जाये और शाश्वत रहे। मैं भी पूर्ण होना चाहती हूं। सच ही आपका भिक्षु पूर्ण पुरूष है। "

बुद्ध ने देवयानी को दीक्षा दी । विचित्र सेन ने भगवान के चरणों में अपना सर रखा। भगवान ने उसे उठा कर अपने गले से लगया। और कहा , “देखा तुमने भिक्षुओ , मैंने कहा था ये भिक्षु एक नयी देशना इस संसार को देगा , और वही हुआ ।  जो आज तक इसकी शिकायत करते थे , वो देख लें, मेरा भिक्षु संन्यास में विफल नहीं हुआ है.”

उस क्षण में सारे संघ के भिक्षुओं की आँखों से झर-झर अश्रुधारा बह रही थी।

गौतम बुद्ध ने आगे कहा , " हम अपने विचारों से ही स्वंय को अच्छी तरह ढालते हैं; हम वही बनते हैं जो हम सोचते हैं| जब मन पवित्र होता है तो ख़ुशी परछाई की तरह हमेशा हमारे साथ चलती है |  सत्य के रास्ते पर चलने वाला मनुष्य कोई दो ही गलतियाँ कर सकता है, या तो वह पूरा सफ़र तय नहीं करता या सफ़र की शुरुआत ही नहीं करता | मनुष्य का दिमाग ही सब कुछ है, जो वह सोचता है वही वह बनता है | और यही सच्चा संन्यास है.”

बुद्ध का  बोलना जारी रहा........

“वीतरागी होना उच्च स्तर की सिद्धि है। इसे प्राप्त करने के बाद मनुष्य कभी अशांत नहीं होता, अंदर से बाहर तक वह प्रभु भाव से जीवन जीता है एवं तुरंत ही आध्यात्मिक सिद्धि के उच्च सोपानों को पा जाता है। यही सच्ची विरक्ति है जो आसक्ति के सोपानो को बंद कर देती है । यही एक सच्ची यात्रा है जो आसक्ति से विरक्ति की ओर ले जाती है । "
“मेरा प्रथम और अंतिम सन्देश तो यही है कि अप्पो दीपो भव: , स्वंय के दीपक स्वंय ही बनो , खुद की चेतना से खुद को रौशनी से अनुग्रहित करो . जब हम खुद के दीपक बन जायेंगे तो ,सारा सम्यक मार्ग प्रकाशित हो  जायेंगा और वही सच्चा संन्यास का मार्ग होंगा और वही सच्ची दीक्षा होंगी.”
ये कहकर बुद्ध ने सभी को प्रणाम किया और फिर सारा संघ एक स्वर में गा उठा :


बुद्धं शरणं गच्छामि : मैं बुद्ध की शरण लेता हूँ।
धम्मं शरणं गच्छामि : मैं धर्म की शरण लेता हूँ।
संघं शरणं गच्छामि : मैं संघ की शरण लेता हूँ।



कहानी और फोटोग्राफ्स © विजय कुमार