::: अमृत वृद्धाश्रम :::
||| एक नयी शुरुवात |||
मैंने धीरे से आँखे खोली, एम्बुलेंस
शहर के एक बड़े हार्ट हॉस्पिटल की ओर जा रही थी। मेरी बगल में भारद्वाज जी, गौतम और
सूरज बैठे थे। मुझे देखकर सूरज ने मेरा हाथ थपथपाया और कहा, “ईश्वर अंकल, आप चिंता न करे, मैंने हॉस्पिटल में डॉक्टर्स से बात कर ली है, मेरा
ही एक दोस्त वहाँ पर हार्ट सर्जन है, सब ठीक हो जायेंगा। “
गौतम और भारद्वाज जी ने एक साथ कहा, “हाँ सब
ठीक हो जायेंगा। “ मैंने भी धीरे से सर हिलाकर हाँ का इशारा
किया। मुझे यकीन था कि अब सब ठीक हो जायेंगा।
मैंने फिर आँखे बंद कर ली और बीते बरसो
की यात्रा पर चल पड़ा। यादो ने मेरे मन को घेर लिया।
||| कुछ बरस पहले |||
कार का हॉर्न बजा। किसी ने ड्राइविंग
सीट से मुंह निकाल कर आवाज लगाई, “अरे चौकीदार, दरवाज़ा
खोलना। “
मैंने आराम से उठकर दरवाज़ा खोला। एक
कार भीतर आकर सीधे पार्किंग में जाकर रुकी। मैं धीरे धीरे चलता हुआ उनकी ओर बढा।
कार में से एक युवक और युवती निकले और पीछे की सीट से एक बूढी माता। युवक कुछ
बोलता, इसके पहले ही मैंने कहा, “अमृत
वृद्धाश्रम में आपका स्वागत है, ऑफिस उस तरफ है। “
मैंने गहरी नज़रों से तीनो को देखा। ये
एक आम नज़ारा था इस वृद्धाश्रम के लिए। कोई अपना ही अपनों को छोडने यहाँ आता था।
सभी चुप थे पर लड़के के चेहरे पर उदासी भरी चुप्पी थी। लड़की के चेहरे पर गुस्से से
भरी चुप्पी थी और बूढी अम्मा के चेहरे पर एक खालीपन की चुप्पी थी। मैं इस चुप्पी
को पहचानता था। ये दुनिया की सबसे भयानक चुप्पी होती है। खालीपन का अहसास, सब कुछ होते हुए भी डरावना होता है और अंततः यही
अहसास इंसान को मार देता है।
तीनों धीरे धीरे मेरे संग ऑफिस की ओर
चल दिए। मैं बूढी अम्मा को देख रहा था। वो करीब करीब मेरी ही उम्र की थी। बहुत थकी
हुई लग रही थी, उसके हाथ कांप रहे थे। उससे ठीक
से चला भी नहीं जा रहा था। अचानक चलते चलते वो लडखडाई तो मैंने उसे झट से सहारा
दिया और उसे अपनी लाठी दे दी। लड़के ने खामोशी से मेरी ओर देखा। मैंने बूढी अम्मा
को सांत्वना दी। “ठीक है अम्मा। धीरे चलिए, कोई बात नहीं। बस आपका नया घर थोड़ी दूर ही है। ”मेरे
ये शब्द सुनकर सब रुक से गए। युवती के चेहरे का गुस्सा कुछ और तेज हुआ। लड़के के
चेहरे पर कुछ और उदासी फैली और बूढी माँ के आँखों से आंसू छलक पडे। युवती गुर्राकर
बोली, “तुम्हे ज्यादा बोलना आता है क्या ? चौकीदार हो, चौकीदार ही रहो”। मैंने ऐसे दुनियादार लोग बहुत देखे थे और वैसे भी मुझे
कोई फर्क नहीं पड़ता था। मैं इन जमीनी बातो से बहुत ऊपर आ चुका था। मैंने कहा,
“बीबीजी, मैंने कोई गलत बात तो नहीं कही, अब इनका घर तो यही है। ”युवती गुस्से से चिल्लाई,
“हमें मत समझाओ कि क्या है और क्या नहीं। “युवक
ने उसे शांत रहने को कहा। बूढी अम्मा के चेहरे पर आंसू अब बहती लकीर बन गए थे।
ये शोर सुनकर ऑफिस से भारद्वाज और
शान्ति दीदी बाहर आये। उन्होंने पुछा, “क्या बात है ईश्वर किस बात का शोर है ?”मैंने ठहर कर कहा”जी, कोई बात नहीं,बस ये आये है। बूढी अम्मा को लेकर।“ युवती
फिर भड़क कर बोली, “तुम जैसे छोटे लोगो के मुंह नहीं लगना
चाहिए।“ भारद्वाज जी सारा मामला समझ गए। उन्होंने शांत स्वर में कहा, “मैडम जी, यहाँ कोई छोटा नहीं है और न ही कोई बड़ा। ये
एक घर है, जहाँ सभी एक समान रहते है। और मुझे बड़ी ख़ुशी होती
अगर ऐसा ही घर समाज के हर हिस्से में भी रहता !”
युवती कसमसा कर चुप हो गयी। युवक ने
सभी को भीतर चलने को कहा। जाते जाते बूढी अम्मा ने मुझे पलटकर देखा। मैंने उसे
आँखों ही आँखों में एक अपनत्व भरी सांत्वना दी !
ऑफिस में मैंने बूढी माता के लिए
कुर्सी लाकर रख दी। मैं उन सभी को और इस फानी दुनिया के ख़त्म होते रिश्तो को देखते
हुए खुद दरवाजे के पास खड़ा रहा। थोड़ी देर की चुप्पी के बाद युवक धीरे से बोला, “भारद्वाज जी, आपसे कल बात हुई
थी, मैं अमित हूँ, ये मेरी माँ है। इनके बारे में आपसे बात
की थी।“ इतना बोलने के बाद वो चुप हो गया। वो असहज सा था। उसका गला रुक रुक जाता
था। मैंने अपने लम्बे जीवन में ये सब बहुत देखा था। मैंने युवती की ओर देखा। वो
अभी भी गुस्से में ही थी। बूढी अम्मा अपने बेटे की ओर देख रही थी, इस आशा में कि
अब जो होने वाला है, वो नहीं होंगा और वो फिर वापस चल देंगे।
लेकिन मैं जानता था, ये नहीं होने वाला था।
मैंने चुपचाप अलमारी से रजिस्टर और
रसीद बुक निकाल कर भारद्वाज जी के सामने रख दिया। भारद्वाज जी ने अमित को
वृद्धाश्रम के खर्चे के बारे में बताया। अमित ने चुपचाप अपने पर्स से रुपये निकाल
कर दे दिये और जरुरी कागजात पर दस्तखत कर दिए।
बूढी अम्मा की आँखों से आंसू बहे जा
रहे थे वो अब भी अपने बेटे को देखी जा रही थी। भारद्वाज जी ने धीरे से कहा, “अब सब ठीक है जी। “ ये सुनते
ही युवती उठकर खड़ी हो गयी चलने के लिए। बूढी अम्मा ने अपने आंसू पोंछ दिए और युवती
से कहा, “बहु, अमित का ख्याल रखना।“ युवती ने कोई जवाब नहीं
दिया और बाहर की ओर चल दी। युवक बैठा रहा चुपचाप। फिर उसकी आँखों में से भी आंसू
टपक पडे। बूढी अम्मा ने कहा, “जाने दे बेटा। सब ठीक है। यहाँ
ये सब मेरा ख्याल रखेंगे। तू अपना ख्याल रखना, समय पर खाना खा लिया करना। “
युवक, बूढी औरत के पैरों पर गिर पड़ा
और रोने लगा, ”माँ मुझे माफ़ कर दे। “
माँ बेचारी क्या करती। वो तो है ही
ममता की मूरत। उसने उसे उठाया और कहा, “अमित, कोई बात नहीं, चलो अपना
घर बार संभालो, मेरा क्या है, आज हूँ, कल नहीं। तू जा। हाँ, अब कभी मुझसे मिलने मत आना। “युवक
अवाक सा चुप खड़ा रहा। ये ख़ामोशी विदाई की थी। ये खामोशी रिश्तो के टूटने की थी। ये
खामोशी ; इंसान की इंसानियत के मरने की भी थी। इतने में दो आवाजे एक साथ आई। उस
युवती की, जो बाहर से चिल्ला रही थी, “अब
चलो भी, यहीं नहीं रहना है मुझे” और दूसरी आवाज शान्ति की थी, जिसने बूढी अम्मा को सहारा देकर अन्दर चलने के लिए कहा था।
युवक चुपचाप हार और बेचारगी को अपने
चेहरे पर लिए बाहर की ओर चल दिया। बाहर जाते हुए उसने मुझे कुछ रुपये देने चाहे और
कहा, “चौकीदार भैय्या, माँ का ख्याल
रखना” मैंने उसके पैसे वापस लौटाते हुए कहा, “माँ का ख्याल
तो हम रख लेंगे अमित बाबू। आप सोचो, आपका माँ जैसा ख्याल अब
कौन रखेंगा। और यहाँ पैसे नहीं प्यार का सौदा होता है”। युवक खामोशी से मुझे देखता
रह गया।
युवक - युवती कार की ओर चल दिये, बूढी
अम्मा शान्ति दीदी के साथ भीतर की ओर चल दी। भारद्वाज जी मुझे देखते हुए अलमारी की
ओर चल दिए और मैं फिर से अपनी जगह गेट पर चल दिया।
मेरे लिए ये कहानी लगभग हर महीने की थी।
जब कोई न कोई किसी न किसी अपने को यहाँ छोड़ जाता है। हाँ आज की गाथा थोड़ी अलग सी
थी। लड़का ज़िन्दगी के पेशोपेश में था, पर कायर था, खैर। मैंने मन ही मन गिनती की,
अब यहाँ २६ लोग हो गए थे। ये वो बूढ़े थे,
जिनमें से किसी का कोई नहीं था, इसीलिए वो यहाँ थे और किसी का हर कोई होते हुए भी
यहाँ था। कोई गरीब था, कोई अमीर था, पर एक बात सबमे एक समान
थी, वो ये कि सबके सब इस जगह पर अकेले ही बन कर आये। और यहाँ आकर एक दुसरे से
मानसिक और भावनात्मक रूप से जुड़ गए। यहाँ की बात कुछ और है। यहाँ सबको एक अपनापन
मिलता है। घर से अलग होकर भी यहाँ घर जैसा प्रेम और अपनत्व मिलता है।
||| बहुत बरस पहले |||
इस जगह का नाम अमृत वृद्धाश्रम था। और
मेरा नाम ईश्वर। पता नहीं मेरी माँ ने क्या सोच कर मेरा नाम इतना अच्छा रखा था। जब
मैं बीस बरस का था, तब मैं अपनी माँ के
साथ अपना गाँव छोड़कर यहाँ आया था, तब ये एक छोटा सा हॉस्पिटल था। डॉक्टर अमृतलाल
नामक सज्जन इस जगह के मालिक थे। इस हॉस्पिटल में माँ का इलाज होने लगा और फिर मुझे
भी कहीं नौकरी चाहिए थी सो मैं इस हॉस्पिटल का वार्ड बॉय + चौकीदार + सारे बचे हुए
काम करने वाला बन गया था। माँ का बहुत इलाज हुआ, उसे टी बी
थी पर वो बच नहीं सकी। करीब एक साल के बाद वो चल बसी। अब मेरा इस दुनिया में कोई
नहीं था, सो मैं यही का होकर रह गया। धीरे धीरे अमृतलाल जी का मैं विश्वसनीय बन
गया। हॉस्पिटल बड़ा होने लगा, लोग आने लगे। अमृतलाल जी का
यहाँ कोई न था जो यहाँ रह सके। एक अकेला बेटा गौतम था जो कि डॉक्टर बनने की चाह
में चंडीगढ़ में एम.बी.बी.एस. कर रहा था। ये उसका आखरी साल था। अमृतलाल जी चाहते थे
कि वो यहीं इसी जनता हॉस्पिटल में आकर काम करे। लेकिन उसके इरादे कुछ और थे, वो
आगे की पढाई के लिए लन्दन जाना चाहता था और इसी बात पर अक्सर दोनों पिता पुत्र में
तेज बातचीत हो जाती थी।
हॉस्पिटल बढ़ रहा था, सस्ता हॉस्पिटल
होने की वजह से बहुत से गरीब यहाँ आते थे। अमृतलाल जी की पुस्तैनी संपत्ति से ये
हॉस्पिटल चल रहा था। मैं हॉस्पिटल का हर काम कर लेता था। सब मुझे पसंद भी करते थे।
मैं मेहनती था और माँ के गुजरने के बाद हर किसी की सेवा करता था। और सभी इसी
सेवाभाव से खुश थे। अमृतलाल जी मेरा ख्याल रखते थे। मैं उन्ही के साथ उन्ही के घर
पर रहता था। एक दिन उनके मित्र भारद्वाज जी उनसे मिलने आये। दोनों बहुत सालों के
बाद मिले थे। मैंने उनके लिए खाना बनाया। खाने के दौरान भारद्वाज जी ने अमृतलाल जी
से कहा कि उनकी बहु उनसे ठीक बर्ताव नहीं करती है और वो बहुत दुखी हैं। अमृतलाल ने
बिना सोचे कहा कि वो यही आकर रहे और उनके साथ इस हॉस्पिटल की देखभाल करे। भारद्वाज
को जैसे मन चाहा वरदान मिल गया। वो यही रह गए। अमृत जी का घर बड़ा सा था, मैं उन के लिए खाना बनाता, घर
का रखरखाव करता और वहीं रहता। दोपहर में हॉस्पिटल के छोटे बड़े काम करता। बस
ज़िन्दगी कट रही थी। ये हॉस्पिटल एक बहुत बड़े परिवार का अहसास दिलाते रहता था।
मेरे मन में कभी शादी करने का ख्याल
भी नही आया। काम इतना रहता था कि किन्हीं और बातों के लिए समय ही नहीं मिल पाता
था। इतने सारे लोगो की सेवा में मुझे बहुत ख़ुशी मिलती, बदले में मुझे आशीर्वाद और
प्रेम ही मिलता। सब ने मुझे हमेशा अपना ही समझा।
समय बीतने के साथ भारद्वाज जी ने उस
हॉस्पिटल के पिछले हिस्से में एक वृद्धाश्रम खोला। जहाँ उन बूढ़े व्यक्तियों को
रहने की व्यवस्था की गयी थी, जिनका सबकुछ होकर भी,कहीं कोई नहीं था, कहीं कुछ नहीं था। मैंने धीरे धीरे ये हिस्सा संभालना
सीख लिया। मेरे विनम्र और दयालु स्वभाव की वजह से सब मुझे अपना ही मानने लगे।
एक दिन भारद्वाज का लड़का आया अपनी
पत्नी के साथ, जायदाद मांगने के लिए। खूब
हंगामा हुआ, भारद्वाज जी ने गुस्से में सारी जायदाद इस
वृद्धाश्रम के नाम लिख दी और उसी वक़्त से अपने बेटे,बहु से
रिश्ता तोड़ लिया। मैं अवाक था। मैंने अक्सर यहाँ एक घर को टूटते और दुसरे घर को
बनते देखा है।
हम तीनो मैं, अमृतलाल जी और भारद्वाज
जी दीन दुखियों की सेवा में ही अपना सारा सुख ढूंढते थे। फिर वो दिन भी आ ही गया
जो मुझे कभी पसंद नहीं था। अपनी पढाई पूरी करके अमृतलाल जी का लड़का लन्दन जाने की
तैयारी के साथ आया और अमृतलाल जी को अपना फैसला सुना दिया। अमृतलाल जी ने कहा, “ठीक है पढाई पूरी करके वापस आ जाओ ‘ और ये हॉस्पिटल
संभालो”, लड़के ने मना कर दिया। लड़के ने खुले रूप से कहा कि वो इन गरीबों के लिए
नहीं बना है और न ही वो कभी यहाँ आना चाहेगा। उसने पिताजी से कहा, या तो वो उसके
साथ चले या यहीं रहें। अमृतलाल जी अवाक रह गए। उन्होंने कहा, “ये मेरा घर है, ये सभी मेरे अपने लोग, मैं इन्हें छोड़कर कहाँ जाऊं, मैं ही इन सबका सहारा हूँ। “लड़के ने कहा ”आप ने इन सब का ठेका नहीं लिया हुआ है। मैं आपका अपना बेटा
हूँ, आपका खून हूँ, आपको मेरा साथ देना
चाहिए”। अमृतलाल जी ने कहा, “डॉक्टर तू बना है, लेकिन सेवाभाव मन में नहीं आया है”। लड़के ने कहा, “सेवा
करने के लिए मैंने पढाई नहीं की है। मैंने एक सुख भरे जीवन की कल्पना की है, जो कि यहाँ रहने से नहीं मिलेगा। आप मेरे साथ चलिए।“ पर अमृतलाल जी नहीं
माने। मैं चुप था। भारद्वाज जी भी चुप थे। अमृतलाल जी ने उसकी पढाई के लिए पैसों
की व्यवस्था कर दी और चुपचाप सोने चले गए। लड़का दूसरे दिन चला गया अकेला ही बिना
अपने पिता को साथ लिये।हमेशा के लिए।
अमृतलाल जी उसका पैसा भेजते रहे। वो
पढ़ता रहा, उसने वही लन्दन में अपने साथ काम करने वाली डॉक्टर लडकी से शादी कर ली
और फिर बीतते समय के साथ, उसे एक बेटा भी पैदा हुआ,
उसका नाम सूरज था, ये नाम अमृतलाल जी ने ही सुझाया था।
फिर वो दिन भी आ ही गया, जिसे मैं कभी भी याद भी नहीं करना चाहता।
उस दिन अमृतलाल जी का जन्मदिन था।
उन्हें सुबह से ही सीने में दर्द था। उनका बेटा गौतम लन्दन से आया हुआ था और वो
शाम को मिलने आने वाला था। अमृतलाल जी की उससे मिलने की बहुत इच्छा थी, क्योंकि
उनका पोता सूरज भी साथ आया हुआ था। उन्होंने अब तक उसे नहीं देखा था। हॉस्पिटल में
उस दिन कोई नहीं था। हम सब उनके कमरे में थे,
मैंने और भारद्वाज जी ने उनके कमरे को सजाया। शाम को करीब एक वकील साहब आये।
अमृतलाल जी, वकील साहब और भारद्वाज जी के साथ अपनी बैठक में चले गए। करीब एक घंटे
बाद वो सब बाहर निकले। अमृतलाल जी के चेहरे पर परम संतोष था।
फिर वो इन्तजार करने लगे अपने बेटे,
बहु और पोते का। मैंने सभी के लिए अच्छा सा खाना बनाया हुआ था और हाँ, उनके लिए
केक भी ले कर आया था। हम सब इन्तजार ही कर रहे थे कि अचानक शहर में तेज बारिश होने
लगी, बर्फ के ओले भी गिरे, और आंधी तूफ़ान का माहौल हो गया। बिजली भी चली गयी,
मैंने और भारद्वाज जी ने लालटेन जलाई। हम इन्तजार कर ही रहे थे कि उनका बेटा गौतम
अपने परिवार के साथ आये लेकिन कुछ ही देर बाद उसका फ़ोन आ गया कि वो इस आंधी तूफ़ान
में नहीं आ सकता। यह सुनकर अमृतलाल जी का चेहरा बुझ गया। उन्होंने हमें सो जाने को
कहा।और वापस अपनी बैठक में जाकर दरवाजा अंदर से बंद कर लिया। हम दोनों चुपचाप थे।
रात गहराती जा रही थी। मैंने भारद्वाज जी से कहा कि वो भी सो जाएं। उनके सोने के
बहुत देर बाद रात करीब दो बजे मैंने हिम्मत करके अमृतलाल जी की बैठक में झांक कर
देखा, वो चुपचाप बैठे थे। बार बार वो अपने फ़ोन की ओर देख उठते थे कि शायद वो बजे
और संदेशा आये कि उनका गौतम आ रहा है। लेकिन उसने न बजना था सो न बजा। केक वैसे ही
पड़ा रहा। खाना किसी ने भी नहीं खाया।
मैं वहीँ बैठक के बाहर बैठे बैठे सो
गया। सुबह सुबह भारद्वाज जी ने मुझे उठाया। वो और अमृतलाल जी दोनों रोज सैर को
जाते थे। रात बीत चुकी थी। आंधी तूफ़ान भी ठहर गया था। मैंने दरवाजा ठकठकाया। दरवाज
अन्दर से बंद था, कोई आवाज नहीं आई,
हम दोनों आशंकित हो उठे और जोर जोर से दरवाजा ठोका। फिर नहीं खुला तो तोड़ दिया।
वही हुआ जिसका डर था। अमृतलाल जी चल बसे थे। मैं और भारद्वाज जी रोने लगे। इतने
में गौतम अपनी पत्नी और सूरज के साथ आ पहुंचा। उसे सब कुछ समझते हुए देर नहीं लगी।
वो अचानक ही चुप हो गया। भारद्वाज जी ने कहा, “गौतम तुम यही
बैठो। इतने बड़े इंसान है, बहुत से लोग आयेंगे। बहुत सा काम
करना होगा, हम सब इंतजाम करते है।“
अंतिम संस्कार हुआ, सारे शहर से लोग
आये। मुझे भी उस दिन पता चला कि अमृतलाल जी की इस शहर में कितनी इज्जत थी। गौतम
चुपचाप बैठा रहा, बहु भी चुपचाप ही थी,
हाँ पोता सूरज थोडा परेशान सा था, विचलित था। उसने दादा को
पहले कभी नहीं देखा था और जब देखा तो इस अवस्था में देखा था। वो बार बार रो उठता
था। गौतम चुपचाप इसलिए था कि उसने शहर के लोगो की भीड़ देखी थी और उसे समझ में आ
गया था कि उसने क्या खो दिया है? मैं खुद हैरान सा था कि कितने सारे लोग उनसे
प्रेम करते थे और कितनो का रो रोकर बुरा हाल था।
रात को सारा कार्यक्रम निपटने के बाद, हम जब बैठे तो सिर्फ झींगुरो की आवाज़े ही सुनाई दे
रही थी। सभी बहुत चुपचाप थे। मैं था, भारद्वाज जी थे और गौतम
था। बहु, सूरज के साथ सोने चली गयी थी, सूरज को हल्का सा बुखार आ गया था और वो मन से भी परेशान था। इतने में
वकील साहब आये। वो अमृतलाल जी के पुराने मित्र थे। उन्होंने कहा, “कल रात को शायद अमृत को आशंका हो गयी थी कि वो शायद ज्यादा दिन नहीं रहेगा।
उसने अपनी वसीयत करवा ली थी। मैं उसे आप सब को बताना चाहता हूँ। “
मैं उठकर खड़ा हो गया। वकील ने मुझे
बैठने को कहा। वकील ने कहा”जायदाद के तीन हिस्से हुए है। एक बड़ा हिस्सा इस
हॉस्पिटल और वृद्धाश्रम को दिया गया है। दूसरा हिस्सा पोते सूरज के लिए दिया गया
है और तीसरा हिस्सा चौकीदार ईश्वर के नाम है। “
ये सुनकर मैं बहुत जोर से चौंका।
मैंने कहा, “साहब, कोई गलती हो गयी होगी, मुझे कोई पैसा रकम नहीं चाहिए। मैं तो यही रहूँगा। सब कुछ मेरा अब यही है।
अमृत साहब मेरे पिता जैसे थे। उनके बाद अब मेरा कौन है”कहकर मैं रोने लगा।
वकिल ने समझाया, “भाई जो उन्होंने कहा, वो मैंने
किया, भारद्वाज भी थे वहां। पूछ लो। “
मैंने कहा, “मुझे कुछ नहीं चाहिए, मेरा हिस्सा भी सूरज को ही दे
दीजिये। “वकील ने मेरा सर थपथपाया। मैं चुपचाप आंसू बहाने
लगा।
गौतम चुपचाप उठकर खड़ा हो गया। उसने
कहा,“कल सुबह मिलते है, राख को नदी में बहाने जाना है“
रात बहुत गहरी हो रही थी और मेरी
आँखों में नींद नहीं थी। कल तक मैं कुछ भी नहीं था और आज इस जायदाद के एक हिस्से
का मालिक। लेकिन मैं इस रुपये का क्या करूँगा,
मेरे तो आगे पीछे कोई है ही नहीं। नहीं नहीं, मुझे कुछ नहीं
चाहिए। मैं तो इसी जगह के एक कोने में पड़ा रहूँगा।
सुबह हुई, हम सब वही पास में मौजूद नदी के किनारे चले, रास्ते
में शमशान घाट से अमृत जी की चिता में से राख ली और नदी में जाकर उसे बहा दिया, मेरी आँखों से आंसू बहने लगे। भारद्वाज भी रोने लगे। उनका सबसे पुराना और
गहरा मित्र जो चला गया था। लड़का जो कल तक कुछ नहीं बोला, आज
रोने लगा, उसकी पत्नी भी रोने लगी और सूरज भी रोने लगा। कुछ
देर के शोक के बाद सब वापस आये। गौतम पास के ट्रेवल एजेंट के पास गया और वापसी की
टिकिट करवा ली। वो अचानक ही बहुत शांत हो गया था, अब उसे समझ
आ गया था कि जो उसने खोया था वो कभी भी वापस नहीं आने वाला था।
तेरहवी के भोज के बाद, गौतम, मेरे और भारद्वाज के पास आया, उसने उन्हें एक लिफाफा दिया और कहा। “मैं सारी
वसीयत, जो पिताजी ने सूरज के नाम की है, उसे इस वृद्धाश्रम और ईश्वर को देता हूँ।
इसके सही हक़दार यही दोनों है। “मैं शांत था। मैंने एक बार
कहा, “गौतम भैय्या, अगर यही रुक जाते तो हम सभी को बहुत ख़ुशी
होती। “गौतम चुपचाप रहा, कुछ नहीं कहा।
शायद कुछ कहने के लिए था ही नहीं।
दुसरे दिन गौतम वापस चला गया। शायद
हमेशा के लिए। शायद कभी भी वापस नहीं आने के लिए।
कुछ दिनों बाद मैंने वकील से कहकर
सारी जायदाद जो कि मेरे नाम थी, उसे उस वृद्धाश्रम के
नाम कर दी। अब चूँकि अमृत जी नहीं रहे तो धीरे धीरे हॉस्पिटल बंद हो गया और फिर
कुछ दिनों के बाद सिर्फ, आज का ये अमृत वृद्धाश्रम ही रह गया। भारद्वाज जी सारा
काम काज संभालते और मैं सबकी सेवा करते रहता।
मैंने भारद्वाज से वचन लिया कि वो
किसी से इस बारे में नहीं कहेंगे कि इस वृद्धाश्रम में मेरा क्या योगदान है। मैंने
कहा कि मैं इसी चौकीदार वाले रूप में खुश हूँ। और मुझे यहीं बने रहने दीजिये।
भारद्वाज जी नहीं माने, मैंने फिर उन्हें अपनी कसम दी, वो चुप हो गए। उन्होंने कहा, “बेटा, तू सच में ईश्वर है।
भगवान हर किसी को तेरे जैसी ही औलाद दे”।
वृद्धाश्रम चल पड़ा। यहाँ हर महीने कोई
न कोई आ जाता, कोई न कोई गुजर जाता। मैं कई
बातो का अभ्यस्त हो चुका था। ज़िन्दगी चल रही थी, एक दुसरे के
सुख दुःख बांटते थे। मिलकर काम करते थे, हमने कुछ नर्से रखी
हुई थी। कुछ लोग रखे हुए थे। सब इस आश्रम की देखभाल करते थे। और भारद्वाज जी ने
सभी से कह दिया था कि ईश्वर की बात हर कोई माने। बहुत कम लोग मुझे ईश्वर कहकर
पुकारते थे। ज्यादातर लोग मुझे सिर्फ चौकीदार ही कहते थे। और मुझे इससे कोई शिकायत
भी नहीं थी।
||| कुछ बरस पहले |||
एक दिन शान्ति दीदी का फ़ोन आया।
शान्ति हमारे पुराने हॉस्पिटल में नर्स थी, उसके आगे पीछे कोई नहीं था, एक भतीजा था, जो कि उसकी नौकरी
पर अपनी ज़िन्दगी के मज़े ले रहा था। फिर शान्ति को एक दिन एक्सीडेंट में पैर में
चोट लग गयी। वो अब काम पर नहीं आती थी। फिर भी अमृत जी ने इंतजाम करवाया था कि उसे
हर महीने, उसकी तनख्वाह मिल जाए।
उस दिन उसका फ़ोन आया कि उसके भतीजे ने
उसका घर ले लिया है और उसे घर से निकल जाने को कह रहा है, अब वो बेसहारा है। मैंने
और भारद्वाज जी ने कहा कि वो बेसहारा और बेआसरा नहीं है, वो यहाँ आ जाए और फिर मैं
उसे लाने के लिए आश्रम की गाडी लेकर उसके घर पंहुचा। मैं जब उसे लेने गया तो देखा
वो घर के बाहर एक छोटी सी पेटी लेकर चुपचाप बैठी है। मुझे देखकर वो उठी, पैर की
चोट की वजह से वो लड़खड़ा गयी, मैंने दौड़कर उसे संभाला। मैंने उससे कहा और कोई
सामान, जो ले जाना हो? उसने कहा, “कुछ नहीं, जो कुछ
कमाया, वो ये घर ही था। वो भी छिन गया। अब कहीं कुछ नहीं रहा। लेकिन हाँ
वृद्धाश्रम जाने के पहले मुझे तुम कुछ जगह ले जा सकते हो तो मुझे बहुत ख़ुशी होगी। “
मैंने कहा ”कोई बात नहीं आप चलो तो।“मैंने
उसे गाडी की पिछली सीट पर बिठाकर उससे पुछा, “बताओ कहाँ जाना है?” उसने कहा, “मैं हर जगह एक बार
जाना चाहती हूँ जहाँ मैंने अपनी ज़िन्दगी का कोई हिस्सा जिया है। “मैंने धीरे से पुछा, “अब इस बात का क्या मतलब है?”उसने
शायद रोते हुआ कहा था, “मुझे पता है, मैं उस वृद्धाश्रम में
आखरी दिन बिताने जा रही हूँ जहां से अब कभी भी नहीं लौट पाउंगी। “मैं चुप हो गया। मेरे गले में कुछ अटक सा गया था। मुझे भी शायद रुलाई आ
रही थी। पर मैंने चुपचाप गाडी आगे बड़ा दी। उसने रास्ते में रूककर कुछ फूल खरीदे।
सबसे पहले वो एक मोहल्ले में, एक बड़े
से घर के पास मुझे लेकर गयी, उसे देखते ही उसकी आँखों
में बड़ा दर्द सा उमड आया। उसने मुझे बताया कि वो ब्याह कर इसी घर में आई थी, फिर इसी घर में उसके पति का देहांत हो गया। और इसी घरवालो ने उसे उसके
बच्ची सहित घर से बाहर निकाल दिया।
फिर वो मुझे एक इसाई हॉस्पिटल में
लेकर आई, जहाँ उसने मुझे बताया कि यहाँ एक सिस्टर मेरी थी, जिसने उसे सहारा दिया और यहाँ पर उसे नर्सिंग सिखाया। फिर वो यहीं पर
नर्स बनी और फिर इसके बाद वो हमारे हॉस्पिटल में नर्स बनी।
फिर वो मुझे एक कब्रिस्तान में लेकर
आई, उसने रास्ते में जो फूल खरीदे थे, उन्हें लेकर उतर गयी। मैंने उसे एक प्रश्न भरी
निगाह से देखा। उसने आँखों में आंसू भरकर कहा, “यहाँ मेरी बच्ची की कब्र है, बचपन में ही कुपोषण की वजह से बीमारियों की
शिकार हुई और फिर एक दिन इस दुनिया से चल बसी। “उसी की कब्र
पर वो फूल चढाकर आना चाहती थी। मेरे मुँह से कोई बोल न फूटे। वो भीतर चली गयी और मैं
फूट फूट कर रो पडा।
कुछ देर बाद वो आई तो बहुत संयत दिख
रही थी, वो शायद जी भरकर रो चुकी थी और अपना मन हल्का कर चुकी
थी। वो गाडी में आकर चुपचाप बैठ गयी और एक गहरी सांस लेकर कहा, “चलो, मेरे नए घर में मुझे ले चलो, “मैंने गाडी को
मोड़ते हुए धीरे से पुछा, “एक बार क्या वो अपना घर भी देखना
चाहेंगी, जिसे वो छोड़ कर आ रही है। “उसने
एक आह भरी और थोडा सोचकर कहा, “हाँ एक बार दिखा दो, मैंने बड़ी मेहनत से उसे बनाया है। पर उसे भी इस दुनिया के मक्कार लोगो ने
छीन लिया। “
मैंने चुपचाप उसे उसके घर के पास रोका।
वो बहुत देर तक कार में बैठकर उसे देखती रही और रोती रही, फिर उसने धीरे से कहो, “चलो
चलते है। “मैं उसे यहाँ ले आया, तब से
वो यही पर है और इसी आश्रम का एक हिस्सा है। और मेरी तरह सबकी सेवा करती है।
||| अब |||
इसी तरह की कहानियों और किस्सों से
भरा हुआ है ये अमृत वृद्धाश्रम। लेकिन एक बात यहाँ बहुत अच्छी है, लोग यहाँ आकर अपने दुःख भूल जाते है, और सब एक ही परिवार का हिस्सा बनकर रहते है। मेरे परिवार का, हां, ये मेरा ही तो परिवार है एक बड़ा सा भरा हुआ
परिवार। मेरा अपना तो कोई है नहीं, लेकिन ये सभी अब मेरे अपनी ही बन गए हैं। ये तो
परमात्मा की ही कृपा थी, कि अमृतलाल जी, भारद्वाज जी और मैं, हम सब की सोच एक जैसी थी। और
इस सपने को हमने जीवन दिया। यहाँ हर धर्म के लोग रहते है और यहाँ हर त्यौहार भी
मनाया जाता है। बस जीवन के अंतिम दिनों में सभी खुश रहे यही हम सबकी एक निरंतर
कोशिश रहती है।
बस एक कमी है, और वो है - हॉस्पिटल की सेवाएं, उसके लिए हमें दुसरो
पर, दुसरे हॉस्पिटल्स पर निर्भर रहना पड़ता था। अब सभी बूढ़े
थे। सो हमेशा कोई न कोई बीमार ही रहता था। अक्सर हमें किसी न किसी को हॉस्पिटल ले
जाना पड़ता था। आश्रम के पास एक एम्बुलेंस था और्शंती थोड़ी बहुत प्राथमिक उपचार कर
लेती थी, पर हमेशा ही हॉस्पिटल जाना पद जाता था। अक्सर ऐसे
मौको पर एक कसक सी दिल में उठती थी कि, काश, उस वक़्त, अमृतजी का बेटा,
गौतम यहाँ रुक गया होता, या पढाई पूरी करके यही बस गया होता तो वो हॉस्पिटल कभी भी
बंद नहीं होता।
खैर विधि का विधान जो भी हो।
||| आज |||
आज सुबह मैं थोडा जल्दी उठ गया हूँ।
कुछ अच्छा नहीं लग रहा है। शायद उम्र का असर था। पता नहीं मेरी उम्र कितनी हो गयी
है, आजकल कुछ याद भी नहीं रहता।
भारद्वाज जी ने आकर मुझे देखा और कहा, “ईश्वर शायद तुम्हारी तबियत ख़राब है, तुम आराम कर लो।
मैंने कहा”जी कुछ नहीं, थोड़ी सी हरारत है शायद उम्र थक रही है। “
इतने में एक कार आकर रुकी। हम दोनों
ने पलटकर दरवाजे की ओर देखा। कार से अचानक एक आवाज आई, “ईश्वर काका !”मेरे लिए ये एक नया संबोधन था। सब मुझे
चौकीदार ही कहकर पुकारते थे। बाहर की दुनिया में किसी को मेरा असली नाम पता नहीं था।
हम दोनों ने गौर से देखा। कार का दरवाजा खुला और एक सुखद आश्चर्य की तरह अमृतलाल
जी का बेटा गौतम, एक नौजवान के साथ उतरा। मुझे बहुत अच्छा लगा, मैंने भारद्वाज जी
से कहा, “आज सूरज हमारे आँगन में उगा है, जरुर ये सूरज होगा।अमृत
जी का पोता। “पास आकर गौतम ने कहा”हाँ,
ईश्वर ये सूरज है। हमारा सूरज, आप का सूरज, हम सब का सूरज। “सूरज ने मेरे पास आकर मेरे पैर छुए
तो मेरी आँखे छलक गयी, पहली बार किसी ने मेरे पैर छुए थे।
मेरे हाथ कांपते हुए आशीर्वाद देने के लिए उठ गए।
सूरज ने कहा, “ईश्वर काका। मैं आज आपसे अपने पिता जी की तरफ से माफ़ी मांगने आया हूँ और
दादाजी का सपना पूरा करने आया हूँ। “मेरी आँखे ख़ुशी से बह
रही थी। सूरज ने आगे कहा, “मैंने भी डॉक्टरी की पढाई पूरी कर
ली है और अब मैं और पिताजी यहीं रहेंगे और दादाजी का सपना पूरा करेंगे। “मैंने कंपकंपाते स्वर में पुछा, “और माँ ?”गौतम ने
कहा, “वो नहीं रही। इसी साल उसका देहांत हो गया और मैंने
फैसला कर लिया है कि अब हम यही आकर रहें, आपने और भारद्वाज अंकल ने जो निस्वार्थ
सेवा का बीड़ा उठाया है, अब हम भी उसमें अपना योगदान देंगे।
यही सच्चे अर्थो में हमारी वापसी होगी, अपने देश के लिए, अपने पिता के लिए, उनके उद्देष्य के लिए और यही
हमारा प्रायश्चित होगा। “इतना कहकर गौतम ने अपनी आँखों से
आंसू पोंछे।
शान्ति जो इतने देर से पीछे से आकर
हमारी बाते सुन रही थी वो अपने आंसू पोंछते हुए वापस मुड़कर आश्रम के भीतर गयी और
एक पूजा की थाली ले आई। आरती का दिया जला कर दोनों की आरती उतारते हुए उसने कहा, “पधारो आपणे देश बेटा !”हम सबकी आँखे भीग उठी।
गौतम ने एक लिफाफा निकाल कर मेरे और
भारद्वाज जी के हाथो में दिया और कहा, “इसमें मेरी सारी संपत्ति के कागजात है, मैंने अपना
सबकुछ इस वृद्ध आश्रम को दे दिया है। और इसकी सारी जिम्मेदारी ईश्वर और भारद्वाज
अंकल को सौंपी है, सब कुछ अब इस आश्रम की मिटटी के लिए। “
ये सुनकर मैं रो पड़ा, मेरा दर्द और बढ
गया और मैं कांप कर गिर पडा। सूरज ने तुरंत मेरी नब्ज़ को देखा और कहा, अरे आपकी
नब्ज़ डूब रही है। जल्दी इन्हें हॉस्पिटल ले चलो”मैं ने कहा, “बस बेटा आज का ही इन्तजार था, तुम्हारी वापसी हो गयी
और मुझे अब क्या चाहिए? बस अब चलता हूँ। “
सूरज ने कहा, “कुछ नहीं होंगा,आपको माइल्ड
हार्ट अटैक आया है, सब ठीक हो जायेंगा। “
भारद्वाज जी ने जल्दी से आश्रम के
एम्बुलेंस का इंतजाम किया और मुझे उसमे लिटाकर,
शहर के एक हार्ट हॉस्पिटल की ओर चल पड़े।
||| एक नयी शुरुवात |||
हॉस्पिटल आ गया था, मुझे स्ट्रेचर पर ऑपरेशन थिएटर के भीतर ले जाया जा
रहा था, मैंने चारो तरफ सभी को देखा। मुझे ख़ुशी थी। अमृत
वृद्धाश्रम अब बेहतर हाथो में था। अमृतलाल जी का और मेरा सपना सच हो गया था। मैंने
सभी को प्रणाम किया और भीतर की ओर चल पड़ा। अब सब ठीक हो गया था। अब कोई दुःख मन
में नहीं था। और मुझे यकीन था कि मैं भी ठीक हो ही जाऊँगा,
फिर से अपने अमृत वृद्धाश्रम की सेवा करने के लिए।
कहानी और फोटोग्राफी © विजयकुमार
ReplyDeleteआदरणीय गुरुजनों और मित्रो ;
नमस्कार ;
मेरी नयी कहानी " अमृत वृद्धाश्रम " आप सभी को सौंप रहा हूँ ।
दोस्तों,मैंने ये कथा कुछ सोचकर ही लिखी है. ये कथा- बुढो के अंतिम वक़्त का जीवन, टूटती हुई joint families, अपना देश छोड़कर जाते हुए डॉक्टर्स और वृद्धाश्रम में मौजूद जीवन की आपा-धापी के बारे में है.
इस देश में बुढो के लिए कोई बहुत ज्यादा सम्मानपुर्वक जीवन नहीं रह गया है. और न ही बहुत से वृद्धाश्रम बहुत अच्छी तरह से कार्य नहीं करते है. देश के ज्यादातर डॉक्टर्स विदेशो में चले जाते है. सेवा भावना अब ख़त्म सी होती जा रही है और सबसे ज्यादा समस्या बिखरते परिवार की है, सामाजिक स्तर पर NUCLEAR FAMIFILY का CONCEPT ज्यादा बढ़ रहा है. इन सब के चलते बुढो के जीवन के आखरी दिन शान्ति और सुख से नहीं गुजरते है.
मैंने इस कहानी के जरिये एक सन्देश देने की कोशिश की है, हम बुढो को उनके जीवन का हक दे. सम्मान दे. डॉक्टर्स की जरुरत इस देश को ज्यादा है और जो सुख साथ रहने में JOINT FAMILY में है, वो कहीं भी नहीं है.
कहानी में तीन सच्ची घटनाओ का उल्लेख किया गया है. एक घटना [ अमृतलाल की मृत्यु ], ब्रिटेन में रहने वाले, मेरे एक पाठक श्री फ़िरोज़ खान की आपबीती का एक हिस्सा है, एक और घटना, [ शान्ति दीदी ] मेरे facebook spiritual group- HRUDAYAM [ http://www.facebook.com/groups/vijaysappatti/ ] की एक सदस्य की है, जो अमेरिका में रहती है, जिसके भतीजे ने उसका मकान छीन लिया. इसी घटना का अगला हिस्सा मैंने श्री निशांत मिश्र के ब्लॉग में उल्लेखित एक सच्ची कहानी से लिया है जो कि अमरीकन लेखक केंट नेर्बर्न की एक पुस्तक से लिया गया है.
मैं और भी कई सच्ची कहानियो को इस कथा में शामिल करना चाहता था. बहुत से किस्से, मेरे ग्रुप के members के ही है. लेकिन कहानी बड़ी हो जाती, मैं तो बस एक सन्देश देना चाहता था, जो कि मुझे लगता है कि मैं देने में सफल रहा हूँ.
जीवन ; सारी दुनिया में एक जैसा ही है, चाहे वो प्रेम हो या स्वार्थ हो या दुःख !
कहानी का plot / thought हमेशा की तरह 5 मिनट में ही बन गया । कहानी लिखने में करीब ३०-४० दिन लगे. कहानी के thought से लेकर execution तक का समय करीब ३ महीने था ।
दोस्तों ; कहानी कैसी लगी पढ़कर बताईये, कृपया अपने भावपूर्ण कमेंट से इस कथा के बारे में / कथा पर लिखिए और मेरा हौसला बढाए । कृपया अपनी बहुमूल्य राय दिजियेंगा. आपकी राय मुझे हमेशा कुछ नया लिखने की प्रेरणा देती है और आपकी राय निश्चिंत ही मेरे लिए अमूल्य निधि है.
आपका अपना
विजय
vksappatti@gmail.com
+91 9849746500
आ. विजय जी
Deleteबेहद मार्मिक कहानी है , एक एक शब्द का अक्षरतः मैंने रस पान किया है , मुझे बचपन से ही इस विषय के लिए संजीदगी थी, हृदय को छू लेने वाली कहानी है , बहुत बहुत बधाई , कहानी बहुत पसंद आई निशब्द हूँ। यह आज का कड़वा सच है .
shashi purwar
http://sapne-shashi.blogspot.com
बहुत ही सुंदर !
DeleteI.A.S.I.H - ( हिंदी में समस्त प्रकार की जानकारियाँ )
facebook comment :
ReplyDeleteविजय भाई आप की कहानी "अमृत वृद्धाश्रम " पढ़ने के
बाद पहले आप ढेर सारी शुभकामनाएं ओर बधाई .
बहुत ही मर्मिक दिल को छूने वाली कहानी है आखें भीगी ओर
कुछ देर पढ़ने को अक्षर नज़र नहीं आये... लगता है पढ़ने पर कहीं ना कहीं देखा है सुना भी है बस बडों के लिये बच्चों का थोड़ा सा प्यार अपनापन ही तो चाहिए जिसके लिये कुछ खर्चा नहीं होता .
आप की ये कहानी मुझे बहुत अच्छी लगी भाई कहीं कुछ अक्षरों की भूलचूक हुई तो क्षमा करना मुझे.तहे दिल से शुक्रिया आप का
इतनी मर्मिक कहानी के लिये.
आप यूहीं लिखा करें ,सेन्हअशिष आप को .
Jaya Laxmi
बढिया कहानी है समाज से ही उठाये जाते हैं किस्से और उन्हें कहानी की शक्ल दी जाती हैं ।
ReplyDeletebdhai nayi khani ki .....
ReplyDeleteकहानी अच्छी है, थीम भी अच्छी है, मगर थोड़ी लंबी है। कम शब्दों में अधिक बात कहने की कोशिश करें।
ReplyDeleteMarmik Kahani Ke Liye Aapko Badhaaee Aur Shubh Kamnayen .
ReplyDeleteजीवन के कटु सत्य को दर्शाती अत्यंत मार्मिक एवं हृदयस्पर्शी कहानियाँ. आधुनिक जीवन की निर्ममता एवं लुप्त होती इंसानियत को बयाँ करती ये कहानियाँ दिल को छू लेती हैं.
ReplyDeleteKahani.man ko chhu gayi!!!
ReplyDeleteपूरी कहानी आँखों के आगे चलचित्र की भांति घूम गयी
ReplyDeleteAuthor : आर. सिंह
ReplyDeleteविजय कुमार जी,आपने तो सचमुच मुझे रूला दिया. क्या कहानी लिखी है आपने।इस कहानी के लिए मार्मिक शब्द छोटा लग रहा है. दिल की गहराई में उत्तर गयी यह कहानी एक तरफ ईश्वर , अमृत लाल और भारद्वाज हैं ,तो दूसरी और गौतम ,उसकी बहू ,शांतिनका भतीजा और वृद्धा की बहु हैं. समाज का आदर्श कौन बने ?कहानी कला के दृष्टिकोण से यह कहानी कैसी है मुझे नहीं पता,पर यह कहानी अपना सन्देश देने में सफल रही है.
Wonderful story.
ReplyDeleteRealistic! My heartiest compliments.
suresh maheshwari
अति मार्मिक !
ReplyDeletebahut dino baad achhi kahani padhne ko mili .....behad marmik
ReplyDeleteनिःशब्द करती बेहद मार्मिक कहानी आज की सच्चाई से भरी |प्रवाह में कोई कमी नहीं ,शुरू से अंत तक बिना रुके पढने को बाध्य करती कहानी बहुत पसंद आई ,हार्दिक बधाई आपको
ReplyDeleteआपकी कहानी पर दो बार मेरा कमेन्ट गायब हो गया शायद स्पाम में गया होगा |
ReplyDeleteनिःशब्द करती हुई कहानी है |भाव ,कथानक प्रवाह कहीं कोई रूकावट नहीं अपना सन्देश देने में एक सफल कहानी ,आज की सच्चाई को उजागर करती हुई ,शुरू से अंत तक बिना रुके पढने को बाध्य करती कहानी जितनी भी प्रशंसा करो कम ही होगी |बहुत बहुत पसंद आई |हार्दिक बधाई आपको|बहुत दिनों बाद एक अच्छी कहानी पढने को मिली |
Rajesh Kumari
विजय जी,
ReplyDeleteवर्तमान परिदृश्य के संदर्भ में लिखी आपकी कहानी में जीवन की सच्चाई है | इसे प्रकाशन हेतु सहेजा जा रहा है | प्रकाशनोपरांत आपके पत्राचार के पता पर पत्रिका का मुद्रित संस्करण भेज दिया जाएगा |
धन्यवाद !
डॉ॰जी॰पी॰सिंह
संपादक, संभाव्य
पहले स्वयंको जाने यह बहोत बड़ी बात है| पर मन, बुध्धि और इंद्रियोके ही आधार पे जीने वाला मनुष्य जीसे हम करयुग कहते है | पर जो मनुष्य सांसोके आधारपे जीता है वही मनुष्य सत्तयुग का होता है | जीसमे सांसोपे ध्यान करके प्राणों को पकड़ कर आत्मयोगी बनके मनुश्य जन्म सफल कर लेता है | जो अति दुर्लभ है कलयुग में फिरभी सहेल है जो यहाँ(करयुग)में समझ ले ये भगवान और उसकी माया है और मैं उसका द्रष्टा आत्मा हूं | जय गुरुदेव जय आत्म ज्ञानी पारब्रह्म परमेश्वर परम आत्माकी जैहो |
ReplyDeleteAuthor : बीनू भटनागर
ReplyDeleteबहुत अच्छी कहानी, संतुलित चरित्र चित्रण
अनूषा जैन
ReplyDeleteबहुत सुंदर कहानी है. निराशा से बढ़कर आशा के दीपों का उजाला है आपकी इस कथा में.
Sunil Kumar
ReplyDeleteMarmik kahani.....speechless after reading....
Specially last part of story...reflects inner part of humanity...kyuki suraj aa gya ....nayi shuruwat how gyi hai
Author : rambasant
ReplyDeleteAap ki kahani hame rula gayi bahut hi marmsparsi. Kahani hai.thanks
Author : Iqbal hindustani
ReplyDeleteये कहानी उस मिसाल पर खरी उतरती है जिस में कहा गया है " साहित्य समाज का दर्पण होता है"
बहरहाल जितनी शिद्दत से आपने लिखा है उतने ही दिल से मैं ने पढ़ा है।
जब मैं ने माँ को आश्रम में छोड़ने वअले पात्र की कल्पना की तो मेरा दिल भर आया और ऐसा लगा ये ना इंसाफी और ज़ुल्म किसी मेरे अपने के साथ हो रहा है।
लिखक को बधाई।
वर्तमान भौतिक युग के दरकते रिश्तोँ को रेखांकित करती एक मार्मिक कहानी है
ReplyDeleteकहानी अच्छी है, थीम भी अच्छी है
ReplyDeletegiini arts
आपने इस कहानी में जीवन की सच्चाइयों को ऐसे सामने रख दिया जैसे कोई चल-चित्र आँखों के सामने घूम गया हो .आज की नहीं युगों की कहानी है यह.इसीलिए ऋषियों ने जीवन के उत्तरकाल के लिए वानप्रस्थ और सन्यास का विधान किया होगा .
ReplyDeleteयह समाधान बहुत अच्छा है काश, ऐसा होने लगे .
श्रेष्ठ कहानी के लिए बधाई आपको !
बढिया कहानी है
ReplyDeleteDear Mr. Satpatti ,
ReplyDeleteThank you for sending me your story. It is very moving and touching. specially to people of my age. There is realism woven in a beautiful plot. The relation of father and married son depicted by you is quite natural which we daily see in U.S.A.
Thank you again ,
Gulab Khandelwal
prawakta me maine is kahani ko parha hai,bhaw samvedna jaga kar apni
ReplyDeletebaat kahne me aap ko puri saflata mili hai,badhai.kahani padne ke baad
4-5 karyakramon me merei ore se is par aap ke naam ka ullekh karte
huye tippanhi bhi ki gai hai, nikat bhavishya me raipur ke sahitya
Mahesh Sharma
sadhkon ke beech is par charcha karane ka vichart hai..,jaisa
karyakrim banega , main soochit karoonga,
savita chadha
ReplyDelete5:25 PM
1
विजय, कैसे हो आप। तुम जैसे मिलनसार सारे लेखक बंधु हो जांये तो क्या कहने। तुम सच में बहुत नेक हो और सरल व्यक्ति हो, लिख भी अच्छा रहे हों। खूब लिखों मेरी हार्दिक शुभकामनाएं, तुम्हारी दीदी , सविता चड्ढा, दिल्ली
Author : डॉ. मधुसूदन
ReplyDeleteComment:
चिरस्मरणीय कहानी लिखने के लिए, लेखक को बार बार बधाई।
इसी प्रक्रिया का विशिष्ट कारण; एक निम्न पहलू भी ध्यान में आता है।
***पश्चिम का युवा वर्ग स्वतंत्रता से-स्वच्छंदता और आगे -स्वैराचार में
अनजाने ही, फिसल जाता है।***
***उसी में अंधा होकर वृद्धों की साधारण ज़रुरतों को भी भूल जाता है।
(पर-दुःख शीतल होता है।)
***व्यक्ति स्वातंत्र्य को सर्व श्रेष्ठ माननेवाले पश्चिम में यही घट रहा है।
***अन्य लेखकों से मेरा अनुरोध है, कि, अभी भी हमारी संस्कृति टिकी हुयी
है; उसे बचाने में अपनी लेखनी चलाएँ।
***यहाँ(अमरिका में) लोगों को, वृद्धत्व आनेपर परिपाटी के कारण समझ में
भी नहीं आता, कि, इसका कोई हल भी होगा।
***यह अतिवादी व्यक्ति स्वातंत्र्य का परिणाम है।
****Survival of the fittest की स्पर्धा में Survival of the weakest
(Old folks) को भूला जा रहा है।
***ऐसी गलाकाट स्पर्धा से भारत को आगाह करना चाहता हूँ।
***यहाँ केवल २०% माता-पिता ही अपने सगे बच्चों के साथ रहते हैं।
WWW.CIA.COM पर जाकर देखें।
***मनुष्य को स्वार्थी बनाकर पशुत्व की ओर ले जाना यह व्यक्ति
स्वातंत्र्य की अतिवादीता का परिणाम है।
***प्रबुद्ध पाठकों और लेखकों को आगाह करना चाहता हूँ।
"कहानी यदि हमें जगा पाए, तो, विनाश से बचा सकती है।"
॥वंदे मातरम्॥
बीनू भटनागर
ReplyDeleteOctober 18, 2014 at 8:30 am
बहुत अच्छी कहानी, संतुलित चरित्र चित्रण, अक्सर ऐसी कहानियों मे नई पीढ़ी को बहुत स्वार्थी बता दिया जाता है, आपने ऐसा नहीं किया, बहुत ख़ूब।
आज का कटु सत्य....कहानी दिल को छू गयी...बहुत मर्मस्पर्शी
ReplyDeleteDear Vijay Ji
ReplyDeleteI went through your story and liked it very much.
regards
Pravamayee Samantaray
विजय भाई, आप जब भी कलम उठाते हैं, अच्छा लगता है। पर आखिर में आप हमें रुला क्यों देते हैं ? हमें रुलाने का अधिकार आपको किसने दिया। सचमुच संवेदनाओं की नदी बहती रही, ऑंसू झरते रहे। एक बात पूछने की हिम्मत कर रहा हूँ, सच-सच बताना आखिर दर्द के कितने पड़ाव से गुजरकर इतनी अच्छी कहानी लिख पाए ?
ReplyDeleteमहेश परिमल
प्रिय वर विजय जी, प्रणाम!
ReplyDeleteकहानी बहुत मार्मिक, सत्य पर आधारित व यथार्थ भरी है । हम अज्ञान में अकारण अपने मोह व मनोरोग वश अपनों को भी कष्ट दिये जा रहे हैं जो बाद में हमें संस्कार स्वरूप में फिर स्वयं भोग करना पड़ेगा ।
सबके हृदय जाग्रत करें व सब आत्माएँ परस्पर बिना कष्ट दिये जीवन यात्रा में चल सकें ! अपने प्रिय जनों को कष्ट देकर हम अपनी आत्मा को भी व्यथित करते हैं और पुनः: संस्कार भोग करने आने को प्रकृति द्वारा बाध्य किये जाते हैं । यह कष्ट ही कम से कम हो जाये तो जगत ( ज+ गत = जो गत है) आनन्द की ओर बढ़े ! सब जगत हमारा ही अंग है ! सादर सप्रेम - गोपाल बघेल 'मधु', www.GopalBaghelMadhu.com, GPBaghel@gmail.com, फोन 001-416-505-8873
मर्मस्पर्शी कहानी, बहुत सुन्दर, साधूवाद एवं सस्नेह,
ReplyDeleteदिव्या माथुर
वातायन कविता संस्था, लन्दन
दिल को छू गई। बहुत दिनों बाद एक अच्छी और मर्मस्पर्शी कहानी पढ़ने को मिली। शुक्रिया।
ReplyDelete- सुवास दीपक, सिक्किम।
Anil Singh
ReplyDeleteआपको वर्तमान समाज के बारे में इतनी सजीव लिखने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद ।
आदरणीय आपकी कहानी काफी अच्छी लगी.....सधन्यवाद..आप ऐसे ही अपनी कहानियां पहुंचाना का कष्ट करे...काफी सिखने को मिलता रहता है...
ReplyDeleteआपका
Purushottam Joshi
मान्यवर विजय जी
ReplyDeleteइस बार नवसंचारसमाचार पर विलम्ब से रचना वेब होने के लिए क्षमा चाहता हूँ। यह रचना समाज के बदलते परिदृश्य का जीता जागता प्रमाण है। टिप्पणी – इतने मार्मिक और ज्वलंत रचना पहली बार मिली है जिसे अक्षरश :मैने पढी है.इस पर कुछ कहना सूरज के सामने दीप दीखाने के समान है यह रचना वाकई समाज का ऐनक है – संपादक
आप इसे बड़े हिंदी दैनिक पत्र में अवश्य भेजें। इसे ही कापी करके भेज दे. हिंदुस्तान, दैनिक ट्रिब्यून , सहारा इंडिया ,पंजाब केशरी आदि में।
धन्यवाद
इसके अतिरिक्त आपको देने लायक मेरे पास कुछ भी नहीं है।
शैलेश कुमार
वेब एडिटर
9355166654
2021 , सेक्टर -6 , बहादुरगढ़
समय के साथ बदलते सामाजिक सम्बन्धों की कटुता को दर्शाती अत्यन्त मार्मिक कहानी को पढ़कर मैं
ReplyDeleteनिश्शब्द रह गई । मन उदास हो गया है, संवेदनाहीन स्थितियों को पढ़ और देख कर ।समाज का सच्चा
किन्तु विकृत रूप प्रस्तुत करके संवेदना जगाने में लेखक पूर्णरूपेण से सफल रहा है । साधुवाद !
अत्यंत संवेदनशील विषय पर आपने बहुत सशक्त कहानी लिखी है ! लेकिन यह भी एक दुखद सत्य है कि हमारे समाज में आज भी आपकी कहानी में वर्णित वृद्धाश्रम जैसी सच्चे अर्थों में समर्पण भावी संस्थाएं उपलब्ध नहीं हैं ! अगर हैं भी तो उन तक उन सभी बुजुर्गों की पहुँच संभव नहीं है जो अपने स्वार्थी व कुटिल परिजनों का दुर्व्यवहार झेलने के लिये विवश हैं ! यदि ऐसा न होता तो समाचार पत्र आये दिन ऐसे दुखी व त्रस्त लोगों की कहानियों से भरे न होते !
ReplyDeleteविजय जी कहानी शानदार हे आप आगे भी इसी तरह लोगो को जागृत करते रहे हमारी शुभ कामनाएं आप के साथ हें !
ReplyDeleteindia look news network
विजय भाई जी,
ReplyDeleteआपके अनुरोध भरे पत्र नें मुझे आपकी कहानी अमृत आश्रम पढ़ने की प्रेरणा दी. सच मानो मैंने कहानी ओढ़ कर कोई गलत काम नहीं किया. कहानी नहीं यह पत्रो की जीवंत यात्रा है, कहानी के अंत में तो मेरे आंसू ही बहने लगे. कुछ वक़्त लगा सम्भलने के लिए. आप में एक विलक्षण प्रतिभा है की आप जीवन की सच्ची घटनाओं को अपनी कल, के माध्यम से अमर कर सकते है, और वो आपने कर दिखाया है. कहीं लगा ही नहीं की एक कोई कहानी है, बिलकुल चल चित्र की तरह घटनाये घट रही थी, और फ्लैशबैक के ज़रिये सारी परिस्थियाँ प्रकट ही रही थी. भगवान आपको वो सब कुछ प्रदान करे जिसके आप हक़दार है.
विजय भाई बहुत प्रभावशाली कहानी है। कल पढ़ी। कई जगह आँखे नम हो गई। बधाई और शुभकामनायें अच्छी कहानी के लिए। एक बढ़िया नाटक बन सकता है ये।
ReplyDeleteसादर
Arun Roy
bhut bdiyaa kahaani .
ReplyDeleteVijay ji kabhIi mere blog"unwarat.com"par aaiye kahani aur lekha padh kar apne vichaar vkta kre. muze achchaa lagega.
vinnie Didi.
bahot achhi kahaani hai, dil ko chhu gai
ReplyDelete
ReplyDeleteप्रिय विजय जी,
आपकी कहानी अच्छी है. इसको हिंदियन एक्सप्रेस में भी दिया जा सकता है.
- टीम हिंदियन एक्सप्रेस
विजय कुमार सप्पत्ति जी प्रणाम। हिंदी में आपकी रचना अमृत वृधाश्रम पढ़ा मैंने। बहुत ही संवेदनशील एवं मर्मस्पर्शी रचना है। लिखते रहिये।
ReplyDeleteसादर
आपका अनुज
ठाकुर दीपक सिंह कवि
प्रधान संपादक
लिटरेचर इन इंडिया
www.literatureinindia.blogspot.in
संवेदनाओं को उकेरती एक मार्मिक कहानी। साधुवाद।
ReplyDeleteआपकी कहानी कुल मिलाकर अच्छी लगी. कुछ बातें पची नहीं, पर कहानी में पठनीयता है, जोकि हर कहानी की एक विशेषता होनी चाहिए.
ReplyDeleteअर्चना
कहानी अब हकीकत बन चुकी है,वृद्धाश्रम ्खुल तो रहें हैं जो एक कडुआ सत्य है न वो लेकिन वो भी काले धम्धे हैं.
ReplyDeleteकहां छूट गये हम झुर्रियों को ओढ कर,पैरों की कपकपाहट लिये---क्यों कोई नहीं सुनता हमारी उम्र की
फोसफुसाहटें---काशःसभी को मिल जाय ईश्वर???
चटकते सत्य कांधों बोझिल कर रहे हैं.
Vinod Passy
ReplyDeleteVijay Kumar jee,
On your request I read your story. It was one of the best story i read it for quite some time. The tears started rolling down at the end when Suraj and his father came back to re start the hospital. You have the uncanny ability of weaving real life characters in the plot of a story. I salute you for such a wonderful story. But alas, we should have such real Ashrams full of dedicated persons in the society which is full of commercial considerations
Dear Sappatti Ji,
ReplyDeleteHope you are well over there with all your nears and dears.
I am a writer myself and have penned 12 books in Hindi in various forms of literature i.e. short stories, poetry, ghazals, spirituality etc. At present, I am retired Personal Assistant from the Department of Animal Husbandry & Dairying, Haryana and is presently re-employed at my Head Office at Panchkula.
On seeing so many reviews, I could not stop myself from reading your story and I utilized the time of my journey from Chandigarh to my native town, Ambala City for going through your story. The story revolves round the dying relations and lost respect for elders including parents who sacrificed their comforts in order to make us comfortable and lead a prosperous life. Once during my visit to Sri Jagan Nath Puri ji I stayed at Marwadi Dharmshala near the holy temple. Nobody was allowed to cook own food there. But in a corner, there was a big room where I found that some old ladies were cooking food. I asked the owner, who had a hotel in the premises itself about the same. I was stunned to get the reply. Among the old ladies, a majority of them were the mothers of very senior officers including even IAS officers. I was informed that those officers often visited those ladies but did not take them back home. The hotel owner told that most of the time, those old ladies took meals in numerous Bhandaras held from time to time in the nearby temples and in case there was no Bhandara at all, the hotel owner used to feed those ladies free. I was pained to hear and see it. On reading your story, I painfully remembered my that visit. However, your story is technically also in order and I congratulate for bringing forth such a story in the hope that better sense will certainly prevail on the young generation and the deserving old people could get their due share of respect and dignity.
Again with congratulations and with best wishes for a long and successful writing career,
With due regards,
Sincerely,
Shri Krishan Saini
Shradhey vijay kumar sappatti jee
ReplyDeleteYathochit namaskar
Avi-avi aap ki kahani Amrit vridhashram padhi. yah marmik aur dil ko
chhu dene wali kahani lagi. Kahani me aap ka shram kafi jhalakta hai,
Bahut-bahut badhai.
Amrendra suman
Dumka (Jharkhand)
बहुत ही संवेदनशील एवं मर्मस्पर्शी रचना है। लिखते रहिये।
ReplyDeleteGambheer story...
ReplyDeleteaapka mail mila kahani bhi padhi hamarey yaha agra mai bhi ek ramlal vridhashram hai jaha mai varsh mai ek baar jaati hu kuch madad key uddesya sey vastav mai bahut dukhad hai kyuki indian culture mai to bujurgo ko samman diya jata hai na ki vridhashram yeh to pashchami sabhyata ka prakop hai andhanukaran hai
ReplyDeletekavita raizada
सुन्दर कहानी है यह तो कविता है .... सभी चुप थे पर लड़के के चेहरे पर उदासी भरी चुप्पी थी। लड़की के चेहरे पर गुस्से से भरी चुप्पी थी और बूढी अम्मा के चेहरे पर एक खालीपन की चुप्पी थी। मैं इस चुप्पी को पहचानता था। ये दुनिया की सबसे भयानक चुप्पी होती है। खालीपन का अहसासए सब कुछ होते हुए भी डरावना होता है और अंततः यही अहसास इंसान को मार देता है।
ReplyDeleteDear Shri Vijaybhai,
ReplyDeleteHair raising story or shall I say stories. This world is full of such breaking old and creating new relations. Such stories are representing invaluable human values and humanity itself. These stories help us restore our shaking faith in humanity.
Here in Toronto some time i am invited by my Black and white friends to give some speeches as they consider me as a motivator. After one my such speech in the basement of a church a Black lady of around 60 came to me and asked as to how long I have been living in Canada? I said, "Just 14 years." Then I asked her the same question and she said she came to Canada with her parents from Rwanda when she was only 3 years. It mean she is living here for more than 50 yrs. She then asked me, " What are you?'
I am a Journalist, Critic, Observer, Believer (In God), trying to be a good Human.
So, you are a PP!!
PP? What is PP? I asked.
She said we call Journalist PP meaning People's Person. They move about among people and know people well.
Yes, I am PP.
So Mr.PP tell me what's Canadian culture?
I wasn't prepared for this type of a question. it sent me thinking for a while. Then I said, "Well, to me Canadian culture is Me, Me and Me culture. Meaning thinking or caring for self only. In other way 'Selfish culture.'
She never ever expected this answer from me. But then after a while she called other people who were around and said, "Look at our guest Mr. Firas (People over here don't speak my correct name and I don't mind). He is very learned man. He correctly described our Canadian culture as Me, me, Me culture."
Now, people 50 + are realising that they have gone too far. They mad blunders in breaking families and gone too far away from 'Family culture.' They want to re-invent the family values and culture but their young generation is saying, "No." The young ones say, When you were young you enjoyed your time. Now, why don't you allow us to enjoy our time?"
There are books available in the market over here with title 'Me To We.'
Many people in churches tell me that our Indian family culture is the best. When I tell them that in India too families are being broken. Young don't want to remain with their parents. They sent their old and ailing parents to 'Old Age Homes.' After listening to me the say, "Please Firas sir, tell your people not to accept our 'Garbage' culture."
Vijaybhai, after my lectures many men and women, White and Blacks come and hug me. At that time I hear their 'Maun ki Bhasha.' This Bhasha is so pure and powerful it has the capacity to move a mountain. Who am I?
Many time I take our Indian vegetable Samosas. Now, they still don't speak Samosa but ask me, 'Have you brought spicy Triangle?'
Do you remeber Kavi Pradeep ji's geet/ 'Jyot se jyot jalaate chalo, Prem ki Ganga bahate chalo?'
Yaar, prem se jeene ke liye to ek jeevan bhi kam pad jaata hai. Naa jaane log nafrat ke sahaare kaise jeete hain? Sab ko Sanmati de Bhagwan. Tathastu. Aaameen
Firoz Khan
Toronto, Canada.
Thanks Vijay Kumar ji
ReplyDeleteVery true and heart touching story ,
Best wishes ...
Sarla chandra
आदरणीय श्रीमान
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार !
काफी समय बाद एक सुन्दर भावपूर्ण सम्वेंदनशील कहानी पढ़ने को मिली इस हेतु हमारी शुभकामनाये। युग गरिमा के दिसंबर अंक में निश्चित रूप से यह कहानी प्रकाशित जाएगी पुनः इस कहानी के लिए बहुत बहुत शुभकामनाये तथा आशा करता हूँ की भविष्य में भी आप इसी तरह से अपनी सारगर्भित सुन्दर रचनाये हमें प्रेषित करते रहेंगे आप द्वारा प्रेषित समस्त रचनाये ससम्मान पत्रिका में यथा क्रमानुसार प्रकाशित की जाएँगी।
सादर अभिवादन
आपका
रवींद्र मिश्र
Priyawar,
ReplyDeleteMarmik awam hridayspershi kahani.Ankhe nam kar gayi.
raja singh
आपकी लिखी रचना बुधवार 05 नवम्बर 2014 को लिंक की जाएगी........... http://nayi-purani-halchal.blogspot.in आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
ReplyDeleteaapki yah kahani padhi bahut acchi lagi thi ..... dil ke karib hai yah hardik badhai - shashi purwar
ReplyDeleteआपका दिल से शुक्रिया जी
Deleteधन्यवाद
विजय
विजय जी एक सार्थक कहानी के लिए मेरी ओर से बधाई स्वीकार करें .......कहानी पढ़ते-पढ़ते ऐसा लगा जैसे मैं मूल कहानी का अनुवादित रूप पढ़ रही हूँ .........क्या आप और किसी भाषा में भी लिखते हैं ?
ReplyDeleteशुक्रिया दीप्ती जी ,
Deleteजी नहीं ये मेरी अपनी लिखी कहानी है . मैं इंग्लिश में भी लिखता हूँ . ये कहानी किसी और कहानी का अनुवाद नहीं है . मैंने इसे self writing biographical स्टाइल में लिखी है .
आपके कमेंट के लिए दिल से शुक्रिया .
विजय
विजयजी, कहानी अत्यंत मार्मिक,हृदयस्पर्शी प्रभावपूर्ण है ।आज का कटु सत्य । जिसे उजागर करने में आप सफल रहे हैं । हार्दिक बधाई ।
ReplyDeleteसुदर्शन रत्नाकर
आपका दिल से शुक्रिया जी
Deleteधन्यवाद
विजय
प्रिय विजय कुमार जी,
ReplyDeleteनमस्ते|
आपकी कहानी –‘अमृत वृद्धाश्रम’’ पढ़ी| सुंदर, ह्रदयस्पर्शी कहानी है| आपके लेखन में प्रौढता दर्शाती है| मुझे लगता है कि ‘कुछ बरस पहले’ अंश के अंतर्गत, नर्स का उदाहरण निकाल देने से यह कहानी और सशक्त बनेगी| आप एक उदाहरण कहानी के आरम्भ में दे चुके हैं, वह काफ़ी है| कहानी का अंत बहुत अच्छा है| आपकी अनुमति हो तो मैं इसे भविष्य में ‘हिन्दी-पुष्प’ में उपरोक्त संशोधन के साथ प्रकाशित करना चाहूँगा|
शुभ कामनाओं सहित
दिनेव्श श्रीवास्तव
आपका दिल से शुक्रिया जी
Deleteधन्यवाद
विजय
विजय कुमार जी ,
ReplyDeleteकुछ दिन पूर्व आप इस कहानी को भेज चुके हैं । जहाँ तक मुझे याद है , मैंने इसकी प्रशंसा करते हुए आपको मेल द्वारा बधाई भी दी थी । इस मर्मस्पर्शी कहानी में आपने आज के समाज के यथार्थ को बड़ी कुशलता से उकेरा है । पढ़ते हुए नेत्र सजल हो गए । मैंने कई लोगों को यह कहानी पढ़ाई भी और सभी ने एक स्वर से प्रशंसा की । वृद्ध जनों की व्यथा मन को उद्वेलित कर
गई । ये स्थिति अत्यन्त दु:खद है । सुबह का भूला शाम को घर आ गया - इस अन्त से मन कुछ आश्वस्त हो गया ।
एक बार फिर अपनी तथा अपनी मित्र मंडली की ओर से इस सार्थक एवं सशक्त कहानी के लिये बहुत बहुत बहुत बधाई !!!
शकुन्तला बहादुर
कैलिफ़ोर्निया
आपका दिल से शुक्रिया जी
Deleteधन्यवाद
विजय
अच्छी मार्मिक कहानी है। बधाई एवं शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteआपका दिल से शुक्रिया जी
Deleteधन्यवाद
विजय
sir
ReplyDeleteaapki story padhi bahut hi achhi lagi. samaj ko roshni ki kiran dikhayegi yah aapki story. bujurgo ka samman samaj me badhega.
आपका दिल से शुक्रिया जी
Deleteधन्यवाद
विजय
Aapkaa lekhan prashansaneeya hai. Vishay to puraanaa hee hai. Main inse bhee maarmik aur dukhad anubhavon ko suntaa rahaa hoon alag alag vriddhaashramon ke mahilaa-purush vriddhon se. Main anek vriddhaashramon mein ghoomtaa rahtaa hoon aur un logon kee dukhad kahaaniyaan suntaa rahtaa hoon. Kuchh varsh pahle ek television serial issee vishay par banaanaa chaahte the hum log, aur Ashok Kumar Sahib kaa saath bhee mil gayaa thaa, lekin uss samay kisee channel ne aesee dukh bharee kahaaniyon ko sweekaar naheen kiyaa thaa. -- Kishan Sharma.
ReplyDeleteआपका दिल से शुक्रिया जी
Deleteधन्यवाद
विजय
आपकी इस कहानी को पढ़ कर मन कहीं खो गया.बहुत ही मार्मिक रचना है.इस बेहतरीन रचना के लिए आपको बधाई देता हूँ.
ReplyDeleteआपकी इस कहानी को पढ़ कर मन कहीं खो गया.बहुत ही मार्मिक रचना है.इस बेहतरीन रचना के लिए आपको बधाई देता हूँ.
ReplyDeleteअशोक आंद्रे
प्रिय बंधु विजय जी,
ReplyDeleteआपकी कहानी अमृत वृद्धाश्रम पढ़ी, बहुत ही संवेदनशील, ज्वलंत विषय और सुखान्त, साकारात्मक लगी। साहित्य कुंज के द्वितीय अंक में मैं इसे प्रकाशित कर रहा हूँ।
साहित्य कुंज
आपका दिल से शुक्रिया जी
Deleteधन्यवाद
विजय
सर नमस्कार ,
ReplyDeleteसर मैंने आपकी कहानी पढ़ी, बहुत अच्छी लगीं और दिल को छू गयी. सर हमारा अखबार एक ऐसा अखबार है जो बिना किसी विज्ञापन के चलता है और पिछले 9 वर्षो से लगातार निकल रहा है। चूँकि हमारा उद्देश्य इस अखबार से धन कमाना नहीं बल्कि पाठकों का प्यार कमाना है. बड़े बड़े साहित्यकार हमारे इस अखबार में अपनी अपनी रचनाय भेजते है। अगर आप भी हमे अपनी कहानी समय समय पर भेजे तो हमे बहुत अच्छा लगेगा। हमारे अखबार से आपको बेशक कोई आर्थिक लाभ न हो लेकिन आपको सच्चे पाठक जरूर मिलेंगे।
धन्यवाद
प्रीती पाण्डेय
सहायक संपादक
आपका दिल से शुक्रिया जी
Deleteधन्यवाद
विजय
KAHAANI CHOO GAYEE AAJ HAR KOI AISAA HEE MUSAFIR HAI PAR AAISAA LIKHNE WALA KOI NAHEE //dard ki lakeeren aansuo ko shabd de dein bahut kathin hotaa hai //mai to umra bhar inhe hansikaaoyon ki parton mei abhivayakt kartee rahi sarojinipritam
ReplyDeleteआपका दिल से शुक्रिया जी
Deleteधन्यवाद
विजय
आपकी इस आशा से परिपूर्ण लघुकथा की चर्चा कल सोमवार (30-03-2015) की चर्चा "चित्तचोर बने, चित्रचोर नहीं" (चर्चा - 1933) पर भी होगी.
ReplyDeleteसूचनार्थ
आपका दिल से शुक्रिया जी
Deleteधन्यवाद
विजय
उम्र तो चाहिये---बुढापा नहीं.
ReplyDeleteक्या यह संभव है???
यह कहानी हर एक का इम्तजार कर रही है.
आपका दिल से शुक्रिया जी
Deleteधन्यवाद
विजय
ईमेल कमेंट :
ReplyDeleteDear Vijay Ji
I just read your storey अमृत वृद्धाश्रम.
Its an amazing storey which left no more words to describe.
You are Amazing , Excellent , Awesome all I can say
Thanks a lot for writing such beautiful storey
Best Regards
DSharma
आपका दिल से शुक्रिया जी
Deleteधन्यवाद
विजय