आंठवी सीढ़ी
::: बीतता हुआ आज, बीता हुआ कल और आने वाले कल
की गूँज ::::
मैं, पहली मंजिल
पर स्थित अपने घर की बालकनी में बैठी नीचे देख रही थी । आज मेरे सर में हल्का हल्का सा दर्द था । मैंने अपने लिये अदरक वाली चाय बनाई और धीरे
धीरे उसकी चुस्कियां लेते हुये सड़क को निहार रही थी । सड़क पार एक कृष्ण मंदिर था जहां
से प्रभु की आरती की गूँज सुनाई दे रही थी । अभी अभी कुछ देर पहले ही अशोक ऑफिस के लिये निकले थे । मौसम थोडा सा खुला हुआ था । मन कुछ उदास सा था। घर के काम पड़े थे, मैं सोच
रही थी कि कहाँ से काम शुरू करूँ ।
इतने में एक छोटा ट्रक आया और बिल्डिंग के सामने आकर रुका । उसमे घर का छोटा मोटा सामान रखा हुआ था । ट्रक के सामने के केबिन से ड्राईवर के साथ एक युवक उतरा । उसके कंधे पर एक गिटार था । वो दोनों पीछे की ओर गये और गाडी से दो और काम करने वाले लड़के उतरे , वो सब समान नीचे उतारने लगे । फिर वो जो युवक था, उसने ड्राईवर और लडको को बिल्डिंग की ओर देखते हुये, मेरे घर के ऊपर, दूसरी मंजिल की तरफ इशारा किया। वो फ्लैट अभी अभी कुछ दिन पहले ही तो खाली हुआ था, शायद उसी में रहने ये आया था । तभी मेरी नज़र उस युवक से मिली और मेरे जेहन में कुछ कौंध गया ।
इतने में एक छोटा ट्रक आया और बिल्डिंग के सामने आकर रुका । उसमे घर का छोटा मोटा सामान रखा हुआ था । ट्रक के सामने के केबिन से ड्राईवर के साथ एक युवक उतरा । उसके कंधे पर एक गिटार था । वो दोनों पीछे की ओर गये और गाडी से दो और काम करने वाले लड़के उतरे , वो सब समान नीचे उतारने लगे । फिर वो जो युवक था, उसने ड्राईवर और लडको को बिल्डिंग की ओर देखते हुये, मेरे घर के ऊपर, दूसरी मंजिल की तरफ इशारा किया। वो फ्लैट अभी अभी कुछ दिन पहले ही तो खाली हुआ था, शायद उसी में रहने ये आया था । तभी मेरी नज़र उस युवक से मिली और मेरे जेहन में कुछ कौंध गया ।
मैंने गौर से उसे देखा । उसकी हलकी सी दाढ़ी थी , कंधे पर गिटार था। वह टी शर्ट और नीली जींस पहने हुये था । उसकी
आँखों पर चश्मा था । युवक की नज़रे मुझसे मिली और वो मुझे देखकर हलके से मुस्कराया
और फिर ड्राईवर से बात करने लगा। फिर उसने मोबाइल से किसी को फ़ोन किया । थोड़ी देर
बाद , ऊपर के फ्लैट का मालिक स्कूटर पर आया और उसे घर की
चाबी दे गया । फिर सब मिलकर ट्रक का सामान
ऊपर लाने लगे।
मैं उस युवक को देखकर कुछ विचलित हो उठी थी । उस
युवक का चेहरा किसी से बहुत ही खास से मिलता था .... किसी अपने से ...............कोई
बहुत अपना !!!
कुछ यादें बादलो की तरह मेरी आँखों मे तैर गयी। किसी
की यादे मन मस्तिष्क पर छा गयी ।
मैं घर के भीतर चली आई और बिस्तर पर लेट गयी । यादों
ने मेरे मन –मष्तिस्क को घेर लिया
था। मैं करवट बदलने लगी और फिर अपना सर पकड़ कर बैठ गयी ..........नहीं........... नहीं.........ये
क्या हो रहा है । वो एक बीती हुई ज़िन्दगी है ..........और आज , आज एक नया जीवन है । पर जो कुछ दबा रखा था राख के नीचे शायद उनमे कुछ आग
बची हुई थी । कुछ दिल में सुलग सा रहा था । सच है यादे, कब अपने वश में होती है ।
मैं धीरे से उठी , अपनी
अलमारी के करीब पहुंची । कपड़ो की तह के बहुत नीचे एक छोटी सी संदूकची थी । उसमे एक
छोटा सा ताला लगा था । अब मैं उसकी चाबी कहाँ
ढूँढू ? कुछ याद नहीं आ रहा था कि कहाँ उसकी चाबी रख दी थी । अब मेरा सर का दर्द
और बढ़ गया था। मैं अपने बेडरूम में मौजूद फ्रिज के पास पहुंची और उस पर रखी हुई
दवाईयो में से एक एनासिन खायी और फिर चुचाप बिस्तर पर बैठ गयी , सामने एक बड़ा सा आदमकद आईना था , मैं उसमे अपने आपको
देखने लगी चुपचाप ।
मुझे मेरी अपनी परछाई के साथ साथ कुछ और
परछाईयाँ भी दिखने लगी । वो साये , जिन पर
मैंने धूल डाल दी थी । वक़्त की धूल , किस्मत की धूल, अपनी शादी की धूल , अशोक के साथ बिता रही ज़िन्दगी
की धूल । मेरी अपनी ज़िन्दगी की धूल ।
मुझे लगा था कि सब कुछ ख़त्म हो गया था पर नहीं .............
यादो की गहराईयों से एक अतीत झाँक रहा था ।
मेरा अतीत ! मेरे विवेक का अतीत !
हाँ ! विवेक ! जो मेरा होकर भी मेरा हो नहीं सका
था !
मुझे एक रुलाई सी आ गयी और मैं रोने लगी थी । घर का
सूनापन मेरी हिचकियों से गूँज रहा था ! मैं दौड़कर अलमारी के पास गयी और उस संदुकची
को निकाल कर ले आई, उसके छोटे ताले को किचन में रखे
हुये एक छोटे से हथोड़े से मारकर तोड़ लिया । मेरी आँखे भरी हुई थी , आंसू बह रहे थे , घर के बिखरे हुये सामान में मेरा
अपना वजूद भी अब बिखरा हुआ था !
मैंने जल्दी से उस छोटी सी संदुकची को खोला , उसमे मेरी एक तस्वीर थी अम्मा और बाबूजी के साथ। बहुत पुरानी थी
, उसके नीचे एक डायरी थी , दो या तीन रुमाल
थे , कुछ रुपये थे और
एक अंगूठी थी , बहुत से म्यूजिक सीडी और
फिर उसकी तस्वीर !
विवेक की तस्वीर , मेरे विवेक की तस्वीर !
मैं फूट फूट कर रो पड़ी । अचानक ही मेरा मोबाइल
बजा । मैंने मोबाइल नहीं उठाया , मैं रोती रही । पूरे घर की सूनेपन
में मेरी रुलाई गूँज रही थी । विवेक की तस्वीर पर मेरे आंसू गिरते रहे और वो तस्वीर
भीगती रही । मोबाइल की घंटी फिर बजी , मैंने उसे फिर नहीं
उठाया। अब आंसू नहीं बह रहे थे; बस मैं खामोश थी । खोयी हुई सी। किसी और
टाइम-फ्रेम में, किसी और के साथ ,किसी
और जगह में ........खवाबो में , ख्यालो में , अहसासों में .......ज़िन्दगी में ............मैं और विवेक और ज़िन्दगी .........नहीं
नहीं ......... विवेक और मैं और ज़िन्दगी .....पर अब !
अचानक फिर मोबाइल की घंटी बजी , इस बार मैंने फ़ोन उठाया , अशोक का फ़ोन
था, मैंने कहा, “हाँ कहिये ,” अशोक ने
कहा , “अरे बाबा , कहाँ चली गयी थी ,
इतनी देर से कॉल कर रहा हूँ”? मैंने कहा, “कहीं नहीं, बस
दुसरे कमरे में थी , सुनाई नहीं दिया,”
मैं विवेक की तस्वीर को बहुत प्यार से देख रही
थी ।
अशोक ने कहा, “अच्छा मैं
ऑफिस पहुँच गया हूँ, यही कहने के लिये फ़ोन किया था। शाम को पकोड़े बनाना” मैंने कहा, “ठीक है” अशोक ने पूछा , “कुछ और बात ?” मैंने कहा,
“नहीं ,कोई नहीं ; हाँ ऊपर के घर में कोई रहने आया है। ” अशोक ने
कहा, “अच्छा , देखो , उन्हें कुछ जरुरत हो तो दे देना। नया नया संसार होगा,” मैंने कहा, “कोई फॅमिली नहीं है एक युवक है।” अशोक ने कहा , “ठीक
है । कोई नहीं , कुछ जरुरत पड़े तो मदद कर देना। मैं रखता हूँ
, आज बहुत लेट हो गया हूँ।”
मैंने कहा “ जी ,ठीक है ।” और मोबाइल रख दिया ।
मेरे हाथ में अब भी विवेक की तस्वीर थी। क्या
लड़का था। ज़िन्दगी से भरा हुआ। मैंने अपनी डायरी निकाली , उसमे वो कविताएं थी , जो मैंने उसके लिये
लिखी थी । आह....., मुझे रुलाई फिर आने लगी , इतने में घर की कालबेल बजी , मैंने सोचा इस वक़्त
कौन आ गया । मैंने चेहरे पर पानी डाला और चेहरा पोंछकर अपना हुलिया ठीक किया । कालबेल
एक बार और बजी; मैंने कहा, ”आती हूँ । रुको। ”
और फिर जाकर दरवाजा खोला, मुझे एक शॉक लगा ,सामने विवेक खड़ा था ,मेरा मुंह खुला का खुला ही रह गया , उसने मुस्कराकर
कहा, “नमस्ते जी , मैं ऊपर के फ्लैट में रहने आया हूँ। मुझे
थोडा पीने का पानी चाहिये था । ”
मेरी तन्द्रा लौटी । मैंने हकला कर पुछा, “ क्या ?
उसने कहा, “आप ठीक तो
है। ये पसीना ? आर यू ओके ?”
मैंने रुक रुक कर कहा , “हाँ, हाँ , तुम ?”
उसने कहा, “जी मैं
शुभांकर , उपर रहने आया हूँ । थोडा पीने का पानी चाहिये । ”
मैं होश में आते हुये बोली, “हां , हां आईये ,
मैं अभी देती हूँ । ”
मैंने फ्रिज से पानी की दो बोटल निकालकर उसकी ओर देखते हुये उसे पकडा दी।
उसने कहा, “थैंक्स ।”
और वापस जाने लगा।
मैंने रुक रुक कर पुछा , “तुम विवेक
?”
उसने कहा , “नहीं जी,
मैं किसी विवेक को नहीं जानता हूँ । मैं तो एक आर्टिस्ट हूँ और यहाँ एक होटल के बैंड में लीड गिटारिस्ट
हूँ और गाना गाता हूँ । ”
मैंने पुछा , “तुम कहाँ
से हो ?”
उसने मुस्करा कर कहा, “जी , मैं गोरखपुर से हूँ। ”
मैंने फिर पुछा “तुम्हारा नाम ?”
वो हंस पडा , “अभी तो
आपको बताया ; मैं शुभांकर हूँ । अच्छा अभी
चलता हूँ । ” कह कर वो चला गया ।
मैंने दरवाजा बंद कर दिया । मेरा सर चकरा रहा था
। इसकी सूरत विवेक से इतनी मिलती है ? क्या ये विवेक है ? नहीं नहीं ये नहीं हो सकता
है । ये विवेक कैसे हो सकता है । विवेक को तो मरे हुये ५ साल हो चुके थे ।
मेरे सर का दर्द और बढ़ गया था । मुझे कुछ समझ
नहीं आ रहा था । मैं बिस्तर पर जाकर लेट गयी , मुझे फिर
रोना आ गया , कुछ देर तक तकिये में अपना मुंह गड़ा कर रोती रही
, मन का गुबार निकलता रहा ।
कुछ देर बाद मोबाइल की घंटी बजी , देखी तो अशोक थे , मैंने उठाया ।
अशोक ने पुछा, “यार अब
तबियत कैसी है ,। मैंने कहा, “जी ,
कुछ ठीक है , बस सर में दर्द है” , अशोक ने हँसते हुये कहा , “तो मैं आ जाऊ सर को दबाने
, बोलो सरकार । ”
मैंने कहा “नहीं जी, शाम तक ठीक हो जायेगा , मैंने दवा ले ली
है । आप चिंता न करे। ”
अशोक ने कहा, “लो भाई ,
चिंता कैसे ना करे, एक ही तो बीबी है। ”
मैं चुप रही । कुछ नहीं कहा ।
अशोक ने कहा, “कुछ खा लो,
लंच का समय हो गया है ; और तबियत ठीक न हो तो पकोड़े मत बनाना । अपना
ख्याल रखना । ” कहकर अशोक ने फ़ोन काट दिया ।
मैं मुस्करा उठी, अशोक में
कुछ बाते बहुत अच्छी थी , कुछ सिर्फ ठीक थी और कुछ तो बिलकुल
भी नहीं !
और एक था विवेक ......... मेरा विवेक ...... मेरी यादो
में कुछ मीठा मीठा सा कुछ तैर गया .......। विवेक एक कलाकार था, गायक, कवि, गिटारिस्ट , चित्रकार ........
आह ..... क्या लड़का था, ज़िन्दगी को ओक में भरकर जीता था,
फकीरों जैसे रहता था , और बादशाहों जैसे जीता
था ........ उसकी वजह से मैं भी कविता लिखना सीख गयी थी ........ क्या बन्दा था ,
सिर्फ मेरे लिये ही बना था ...... सच्ची ।
मेरे सर में दर्द और बढ़ गया था । मैं सर पकड़कर बैठ गयी , मेरी निगाह पूरे घर में घूम गयी । पूरा घर बिखरा हुआ था .......। मुझे कुछ भी करने का मन नहीं
था । लग रहा था , किसी पक्षी से पंख उधार ले लूं और उड़ कर
फिर उस वक़्त के फ्रेम में जा पहुंचू जहाँ सिर्फ मैं थी ,विवेक
था और था हमारा प्रेम.......!!!
घर की घंटी बजी , मैंने दरवाजा
खोला, काम करने वाली बाई शोभा आई थी. मैंने कहा, “ देख शोभा ; जल्दी से घर ठीक कर दे। आज मेरी तबियत ठीक नहीं है , कहकर मैं पलटी , इतने में मैंने देखा ; ऊपर की मंजिल
से फिर उसी शुभांकर को नीचे उतरते हुये । ।
। मैं उसे देख कर हैरान थी , वो उसी तरह से सीढियां उतर रहा था , जैसे विवेक
उतरता था , उछलते हुये । मेरे सर में चक्कर आने लगे थे ,
क्या ये विवेक है , तो वो कौन था जो मर गया था
.......। और अगर ये विवेक है तो मुझे
पहचान क्यों नहीं रहा था... क्या हो रहा है ......? मेरे सर में चक्कर बढने लगे थे
। क्या करूँ ?
इतने में शुभांकर ठीक मेरे सामने आया और कहा, “पानी के लिये शुक्रिया ; एक बार फिर से दो बोटल और मिल जाये
तो और भी शुक्रिया । ”
मैंने शोभा से दो बोतल पानी की लेकर आने को कहा, शुभांकर ने जब पानी ले लिया तो फिर से शुक्रिया कहा ।
मैं रुक रुक कर बोली , “तुम हो कौन सच्ची बताओ .... विवेक तो नहीं ?”
शुभांकर ने , “नहीं नहीं
, मैं शुभांकर हूँ । क्या ये विवेक , मेरी
तरह दिखता था ?”
मेरी आँख में आंसू भर आये ....... “नहीं नहीं
विवेक जैसा कोई नहीं हो सकता है। ”
कह कर मैं भीतर चली आई और अपने कमरे में चली आई ।
और फिर से रोने लगी.......!
शोभा सफाई करने कमरे में आई तो मैं निढाल सी
पड़ी हुई थी ।
शोभा ने कहा, “दीदी , तबियत ठीक नहीं
है क्या?”
मैंने कहा “नहीं रे .... बस सर में बहुत दर्द है
। ”
शोभा ने कहा , “दीदी मैं
सर दबा देती हूँ । ” ये कहकर वह तेल की एक शीशी ले आई और मेरे सर में तेल डालकर सर को
हल्का हल्का मसाज करने लगी । मुझे अच्छा लगने लगा , मैंने आँखे
मूँद ली .......।
समय बहुत बरस पहले चला गया , जब कॉलेज में मेरा सर विवेक इसी तरह से दबा रहा था और मैं
बैठे बैठे ही सो गयी थी ........ अब फिर से नींद आ रही थी । मैंने शोभा से कहा, “तू अब
जा , घर का काम करके दरवाजा बंद करती जाना, मैं थोडा सो लेती
हूँ। ”
मेरा सरदर्द अब कम हो गया था ,.......और एक अजीब सी
तरावट मेरे मन पर छा गयी थी ।
मैंने कुछ सोचा । और अपनी एक सहेली प्रिया को फ़ोन लगाया , वो मेरी सबसे अच्छी सहेली थी । हम दोनों करीब करीब हर दुसरे
-तीसरे दिन बाते कर ही लेती थी । उससे कुछ
इधर उधर की बाते करने के बाद मैंने धीरे से पूछा, “प्रिया ,
आज मुझे विवेक जैसा एक बन्दा यहाँ नज़र आया है ।” प्रिया चौंकी ,
“अरे क्या कह रही है । विवेक को गये हुए पांच बरस हो गये है । ”
मैंने हलके से सुबकी भरते हुये कहा , “प्रिया , इसमें और विवेक में इतनी समानता है कि क्या कहूँ । इसलिये तुझे फ़ोन किया। ” प्रिया ने समझाने वाले स्वर में कहा, “सपना ,
कैसी बात कर रही है । मेरी शादी के रिसेप्शन वाले दिन ही तो उसका एक्सीडेंट
हुआ था और वो तेरे सामने ही तो गुजरा था । तू पागल हो रही है क्या ? तू अब ये सब छोड़ । अशोक कैसा है ?”
मैंने ठन्डे स्वर में कहा, “ठीक है ।” प्रिया ने पुछा, “सब ठीक तो
है। ” मैंने कहा , “हां !”
प्रिया ने समझाया , “देख सपना , मरीचिका के पीछे मत भाग ! एक
ज़िन्दगी जी चुकी है, बड़ी मुश्किल से उसमे से निकलकर दूसरी
ज़िन्दगी में आई है और जी रही है । अब गड़े मुर्दे मत उखाड़ और शांत रह। समझी ?”
मैंने कहा , “प्रिया ,
सच कहूँ तो विवेक जैसा कोई नहीं , अशोक भी
नहीं । मैं तो बस जी रही हूँ। ”
प्रिया ने कहा, “कैसे बाते
कर रही हो , एक जैसा कोई और कैसे हो सकता है । अपने दिमाग को
शांत रख । और कुछ म्यूजिक सुन। कोई कविता लिख ! ”
मैंने कहा, “प्रिया तू
मेरी हमसाया है , तू सब जानती है । इसलिये मैंने तुझे फ़ोन
किया है। ”
प्रिया ने कहा , “हां हां ;
मैं जानती हूँ न । इसलिये कह रही हूँ। जो छूट गया वो छूट गया । अब जो है , यही ज़िन्दगी
है ,”
मैंने सुबकते हुये कहा , “अगर ये ही ज़िन्दगी है तो ऐसी क्यों है “.......कहते हुये मैं
रो पड़ी !
प्रिया ने कुछ कहने की कोशिश की , लेकिन मैंने फ़ोन काट दिया । और बिस्तर पर लेटी हुई रोती रही ।
पता नहीं कब मेरी आँख लग गयी !
घर की बजती हुई घंटी ने मुझे उठा दिया । मैंने उठकर अपना हुलिया ठीक किया और दरवाजा खोला।
सामने एक कूरियर वाला था। एक पत्रिका देने
आया था। मैं उसे लेकर अपनी बेख्याली में दरवाजा बंद करने ही लगी थी कि अचानक गिटार
पर आती हुई एक धुन ने मेरे हाथो को रोक दिया .......।
मैंने तुरंत धुन को पहचाना। कर्ज की धुन .......।
आह.......। आज ज़िन्दगी मेरी जान लेगी क्या? विवेक ये धुन कितना बढिया बजाता था । मैंने ऊपर
देखा । ऊपर के फ्लैट से आवाज आ रही थी । एक बेहोशी सी मुझ पर छा रही थी । मैं धीरे धीरे
सीढ़ी चढ़ने लगी !
पहली सीढ़ी -विवेक , दूसरी सीढ़ी –विवेक ........गिटार पर क़र्ज़ की धुन अब पॉवर कार्ड्स
में बज रही थी .........तीसरी सीढ़ी -विवेक , चौथी सीढ़ी
-विवेक ........गिटार पर धुन तेज हो रही थी ........पांचवी सीढ़ी- विवेक , छंटवी
सीढ़ी - विवेक.......गिटार पर कर्ज की धुन अब सी माइनर पर बज रही थी ........ आह.....
मुझे क्या हो गया था .......। सांतवी सीढ़ी –अशोक ! मुझे होश आया । मैं ये क्या कर
रही हूँ , गिटार की आवाज तेज हो गयी थी , मैंने देखा ,एक और सीढ़ी थी – आंठवी सीढी ; आंठवी सीढ़ी पर उसका फ्लैट था।
मैंने अपने आप को संभाला और दौड़ते हुये नीचे आकर
दरवाजा बंद कर दिया और उससे टिक कर जोर जोर से सांस लेने लगी । दूर कहीं से गिटार
की आवाज आ रही थी । कर्ज की धुन , विवेक का मुस्कराता चेहरा ,
प्यार और सिर्फ प्यार , मैंने उसे स्वेटर
खरीदकर दिया था ; और मैंने उस पर गुलाबी ऊन से “वी” और “यस” लिखा था ....... दूर
कहीं ..... बहुत दूर , गिटार की धुन बज रही थी ।
और अब वो धुन मोबाइल की घंटी जैसे लग रही थी .....
मैं होश में आयी , मेरा फ़ोन बज रहा था ......मैं
दौड़ कर गयी ..... अशोक का फ़ोन था , मैंने नहीं उठाया ,
मुझे कुछ हो गया था । मैं पागल हो रही थी !!!
मैं दौड़कर बाथरूम में पहुंची और शावर शुरू कर
दिया । पानी तेजी से नीचे आने लगा और मुझे भिगोने लगा । धीरे धीरे मेरा खुमार शांत
होता गया । मैं बहुत देर तक भीगती रही , शावर से
गिरते हुए पानी में । सच पानी में अद्भुत
क्षमता होती है , मैं धीरे धीरे शांत होती चली गयी । मैं शांत हो रही थी । मेरी
आँखे बंद थी । एक आवाज़ बादलों के पार से आई, “सपना , तुम कितनी
खूबसूरत हो ” मेरी आँखे खुली ...... मैं कहीं और चली गयी ..... पटना में
स्थित गंगा नदी के किनारे , गुरुद्वारा गोबिंद घाट , डूबता हुआ सूरज ..... सावन का माह ..... नदी पर तैरते हुये छोटे छोटे जलते
हुए दिये ......... मैं थी , नहीं नहीं मैं नहीं; सिर्फ सपना थी , विवेक था ।
वो कह रहा था , मुझे देखते हुये , मुझे
अपनी बांहों में लिये हुये, “सपना, मेरी सपना , तुम कितनी खूबसूरत हो।” और सच में
ही मैं खूबसूरत थी.... हो गयी थी उस पल के
लिये । वो एक फ्रोजन मोमेंट था। हम दोनों की ज़िन्दगी के लिये । सच ।
मैंने बाथरूम के आईने पर जमी हुई गर्म भाप पर उसका
और मेरा नाम लिख दिया । भाप से पुते हुये आईने पर । ज़िन्दगी से भरे आईने पर । मैंने
शावर बंद कर दिया । मैंने मुड़ कर देखा । विवेक भाप में खो गया था , मैं होश में आई ,मैं अपने घर में थी और अपने
घर के बाथरूम में । मैं जल्दी से बाहर
निकली , एक पल के लिये रुकी , मुड़कर
देखा तो आईने पर विवेक और सपना लिखा हुआ था । जो अब धीरे धीरे fadeout हो रहा था। मैं वहीं रुक गयी । भाप हवा में घुल रही थी । आज की हवा
में ......मैं देखती रही और धीरे धीरे वो
दोनों नाम हवा में घुलकर पुछ गये ।
मेरे गीले बालो से पानी बह रहा था जो बाथरूम और बेडरूम की देहरी को भिगो रहा था , मैंने नीचे
देखा । मैं अपने घर की चौखट पर खड़ी थी । उस तरफ की ज़िन्दगी में मेरे साथ विवेक था और चौखट के इस तरफ की ज़िन्दगी में
मेरे साथ अशोक थे ।
मैं स्तब्ध सी खड़ी थी । थोड़ी देर में आईने पर
लिखा हुआ नाम मिट गया , मेरे घर की चौखट भीग गयी , मेरा दिल जल गया और मैं पागल सी
होती रही ।
मैंने अपने आपको संभाला, मैंने सोचा कुछ खाना बना लूं, पर क्या बनाऊ
, विवेक ने धीरे से मेरे कानो में कहा ,”खिचड़ी” मैंने कहा,
“हाँ बाबा बनाती हूँ,” मैंने देखा, कहीं कोई नहीं था , कोई विवेक नहीं
, कोई साया नहीं , ये
क्या हो रहा था, मैं क्यों पागल हो रही हूँ? जिसे मैंने पिछले चार सालो से दफ़न कर दिया था,
वही अब ,इस पांचवे साल में मेरी ज़िन्दगी की कब्र से उठकर बाहर आ गया
था!
मैं किचन में गयी। अपने आप ही मेरे हाथ चावल और
दाल के डब्बो में गये और मैंने कुकर में खिचड़ी चढ़ा दी । और फिर मुड़कर कहा, “अब जगजीत को लगा दो विवेक !” मैं चौंकी ये क्या हो रहा है .......कहीं
कोई नहीं था।
अचानक मुझे याद आया , अशोक के लिये पकोड़े बनाना था । मैंने मूंग दाल को भिगोया । अनमने भाव से , ये नया सा
जो कुछ भी था , मुझे लग रहा था कि वो मेरे प्रेम की दुनिया
में एनक्रोचमेंट कर रहा था । मेरे भीतर से एक आवाज़ आई , सपना
, क्या कह रही है , जो ये नया है ,
यही तेरा जीवन है , तू इस नये में पुराना
डालकर एनक्रोचमेंट कर रही है । अपने आपको संभाल ।
मैं अपने आप में नहीं थी ; मैं अपने कमरे में आई
। ढूंढकर जगजीत की सीडी निकाली और उसे प्लेयर पर लगा दिया । जगजीत और चित्रा की धनक भरी आवाज कमरे में
गूंजने लगी .......“दिन गुजर गया इन्तजार में , रात कट गयी
ऐतबार में .........!”
मैं फिर बहकने लगी । इस ग़ज़ल को मैंने और विवेक
ने कॉलेज फेस्टिवल में गाया था और हम जीत गये थे । हाँ न , हम जीत गये थे , सब कह रहे थे क्या जोड़ी
है और सच में क्या जोड़ी थी ।
मुझे लगने लगा , कुछ देर और
अगर मैं इस माहौल में रही तो पागल हो जाओंगी । मैं सामने के कमरे में आ गयी और जो
पत्रिका आई थी , उसे खोलकर देखने लगी , अचानक एक कविता पर मेरी नज़र पडी , ये मेरी कविता थी , याद आया , मैंने कई महीने पहले इस पत्रिका को छपने
के लिये भेजा था । ये मेरी मनपसंद कविता थी , ये कैसा
इत्तेफाक था । आज ही इस पत्रिका को आना था? मेरी आँखे फिर भीगने लगी , मैंने ये कविता विवेक के गुजरने के बाद लिखी थी । मैंने उसे पढना शुरू
किया , मेरी आँखों से बहता पानी उस कविता के अक्षरों को भिगोने लगा .......।
“सिलवटों की सिहरन”
अक्सर तेरा साया
एक अनजानी धुंध से चुपचाप चला आता है;
और मेरी मन की चादर में सिलवटे बना जाता है …।
मेरे हाथ , मेरे दिल की तरह
कांपते है , जब मैं
उन सिलवटों को अपने भीतर समेटती हूँ …।
तेरा साया मुस्कराता है और मुझे उस जगह छू जाता है
जहाँ तुमने कई बरस पहले मुझे छुआ था ,
मैं सिहर सिहर जाती हूँ ,कोई अजनबी बनकर तुम आते हो
और मेरी खामोशी को आग लगा जाते हो …!
तेरे जिस्म का एहसास मेरी चादरों में धीमे धीमे उतरता है;
मैं चादरें तो धो लेती हूँ पर मन को कैसे धो लूँ ;
कई जनम जी लेती हूँ तुझे भुलाने में ,
पर तेरी मुस्कराहट ,
जाने कैसे बहती चली आती है ,
न जाने, मुझ पर कैसी बेहोशी सी बिछा जाती है …।
कोई पीर पैगम्बर मुझे तेरा पता बता दे ,
कोई माझी ,तेरे किनारे मुझे ले जाये ,
कोई देवता तुझे फिर मेरी मोहब्बत बना दे.......।
या तो तू यहाँ आजा ,
या मुझे वहां बुला ले.......।
मैं चुपचाप थी । अचानक कुकर की सीटी की आवाज ने
मुझे चौंका दिया । मैं गयी और कुकर को बंद कर दिया । और सोचने लगी ..............पता
नहीं किस दुनिया में भटक रही थी .......अब मैं शांत हो गयी थी । बस मन में एक झंझावात सा चल रहा था .......। कुछ समझ में नहीं आ रहा
था । मैं उठी और थोड़ी सी खिचड़ी लेकर खाने लगी । मैंने ध्यान दिया , जगजीत की ग़ज़ल की आवाज आ रही थी ....... “कभी यूँ भी तो हो ..........
”
विवक को कितना पसंद थी ये गज़ल , वो मेरे लिये कितना दिल से इसे गाता था । मेरे गले में फिर
कुछ अटकने सा लगा , मैं फिर रोने लगी .......। जिस दिन आखरी
बार उससे मिली थी , उस दिन भी इसके अलफ़ाज़ उसके होंठो पर थे .......!
घर की कालबेल बजी । मैंने आंसू पोंछे । दरवाजा
खोला , सामने विवेक; नहीं.... नहीं...
शुभांकर खड़ा था , खाली बोटल को अपने हाथो में लिये ......। मेरी
आँखे फिर भीगी । मैंने कहा, “सुनो तुम यहाँ से चले जाओ.”
उसने कहा, “जी ?
मैं समझा नहीं ?”
मैं थोड़ी सी संभली और कहा, “कुछ नहीं कुछ नहीं !”
उसने मुझे बहुत गहरी नज़र से देखा । और मुझे वो
चार बोटल दे दी , और मुड़ा। मैंने कहा , रुको । मैं भीतर गयी और एक कटोरी
में थोड़ी सी खिचड़ी लाकर दे दी । उसने देखते ही कहा, “ अहा,
मुझे तो खिचड़ी कितनी पसंद है । थैंक्स !”
मैंने धीरे से, उसके चेहरे पर दरवाजा बंद कर
दिया । ।
मुझ से अब मेरा पागलपन सहा नहीं जा रहा था , मुझे किसी का सहारा
चाहिये था , मैंने फ़ोन उठाया और अशोक को फ़ोन किया , “सुनो तुम जल्दी से आ जाओ , मुझे अच्छा नहीं लगा रहा
है। ” अशोक ने कहा, “ अरे जानेमन ,
तुमने पुकारा और हम चले आये , अभी पहुँचते है
जी ! दो घंटे में आ जाऊँगा !”
दो घंटे ......... दो बरस -अशोक के साथ ........
दो बरस -विवेक के साथ ........ दो -बरस विवेक के बिना ....... मैं पागल होने लगी ।
मैं यादो में खो गयी ........ पटना.......बिहार
नेशनल कॉलेज.......आर्ट्स डिपार्टमेंट.......थर्ड इयर ।
::: बीता हुआ कल ::::
उस वक्त मैं पटना यूनिवर्सिटी के बिहार नेशनल कॉलेज में आर्ट्स ग्रेजुयेशन के थर्ड इयर
में थी , जब मेरी मुलाकात विवेक से हुई ।
उसके पिता रांची से तबादला लेकर पटना आये
थे । वो पटना के ही एक स्कूल में शिक्षक बन कर आये थे । माँ एक गृहणी थी । बस छोटा
सा परिवार और विवक ने बी.एससी. के थर्ड इयर में एडमिशन लिया था । और कॉलेज के एक फंक्शन
में पहली बार उसे गिटार बजाते हुये और गाने गाते हुये देखा था । अब तक मेरे जीवन
में कोई ऐसा नहीं आया था जिसका मेरे हृदय पर कोई गहरा असर हो । लेकिन विवेक छा गया
, हलकी सी दाढ़ी , हमेशा टी शर्ट और
जींस और एक प्यारी सी मुस्कराहट । कुछ बात थी उसमे , जो उसे
औरो से अलग करती थी । मैंने प्रिया को कहा, “यार लड़का भा गया
है ।” प्रिया ने कहा , “अच्छा जी , चलो
, मुक्ति मिली । हम तो सोचते थे कि तुम्हे कोई पसंद ही नहीं आयेंगा
।” मैंने कहा , “अरे नहीं रे। इसकी बात ही कुछ अलग है ।” प्रिया ने कहा, “हां जी
होता है , ऐसा ही होता है । जब प्यार हो जाये तो ऐसा ही
पागलपन चढ़ता है । ” उसी फंक्शन में मेरा भी एक गाना था जिसे मैंने भी बड़ी तरन्नुम से गाया, “अजीब दास्ताँ है ये , कहाँ शुरू कहाँ ख़तम....” । बीच में अचानक जो लड़का मेरे गाने
के लिये गिटार बजा रहा था , उसकी ऊँगली में लग गया तो विवेक ने आकर मंच पर गिटार बजाना शुरू किया
और गाने में मेरा साथ दिया । वो था मेरा पहला परिचय । बस फिर क्या था । फिर हम रोज मिलने लगे , मुलाकाते
हुये , बाते हुई , एक दुसरे को जानने लगे, पहचानने
लगे । एक दुसरे की खूबियों को जानने लगे और धीरे धीरे प्यार भी हुआ
!
वो मुझे बहुत अच्छा लगने लगा था । उसमे जैसे कोई
कमियाँ ही नहीं थी , कभी गुस्सा नहीं आता था । हमेशा
खुश रहता था , खूब गाता था , खूब गिटार
बजाता था , सारे कॉलेज का चहेता था । अक्सर मैं ,वो और प्रिया घूमने निकल पड़ते । गंगा के किनारे बैठते । खूब बातें करते । वो ज़िन्दगी को जैसे
ओक में लेकर पीता था । ज़िन्दगी से कितना भरा हुआ था ।
एक दिन
वो हम दोनों को अपने घर ले गया , अपने माँ और बाबूजी से मिलाने ।
बहुत आत्मीयता के साथ हमने वो समय गुजारा , मैंने देखा कि वो
लोग बहुत सीधी-साधी ज़िन्दगी गुजार रहे थे , ज्यादा कुछ नहीं
था , फिर भी विवेक खुश रहता था , मैंने
प्रिया से कहा, “जीना तो कोई विवेक से सीखे । ”
हम दोनों करीब आते गये । वो मुझे पसंद करने लगा , मैं उसे ! एक दिन मैं उसे अपने घर लेकर आयी । घर में मेरे पिताजी
को विवेक कोई ज्यादा पसंद नहीं आया । माँ सब समझती थी , उसने
मुझसे कहा , बेटी , विवेक कुछ नौकरी कर
ले तो मैं तेरे पिताजी से बात करती हूँ। मैंने यही बात बाद में विवेक से कह दी थी ।
फिर एक दिन कॉलेज के फेस्टिवल में हम दोनों नें जगजीत की गजले गई , खासतौर से “दिन गुजर गया ऐतबार में ,
रात गुजर गयी इन्तजार में ...........। ”
उस दिन फेस्टिवल के बाद हम दोनों बैठकर कुछ खा
रहे थे , तब मैंने धीरे से कहा, “विवेक तुमसे कुछ कहना था।“ विवेक ने कहा, “कहो ।“ मैंने
कहा, “यहाँ नहीं , कल कही चलंगे तब । ”
विवेक ने कहा, “ठीक है । कल बोधगया चलते है । मैं वहाँ जाना
चाहता हूँ।” मैंने कहा , “मैं और प्रिया कल मिलते है तुमसे
बस स्टैंड पर । ”
मैंने घर से इजाजत ले ली । और दुसरे दिन हम तीनो
मिलकर बोधगया गये , वहां मैंने देखा कि जब हम
महाबोधि मंदिर में गये तो विवेक के चेहरे पर बड़ी
शान्ति छा गयी । मैंने बाहर आने के बाद पुछा ,”क्या बात है तुम अचानक इतने शांत हो
गये? ” विवेक ने हंसकर कहा, मुझे लगता है कि मैं ही बुद्ध
हूँ..... किसी पिछले जन्म में था । सच ! शायद इसलिये तो बुद्ध मेरे आराध्य है !”
प्रिया हँसने लगी, ” होता है जी ऐसा ही होता है !”
कुछ देर इधर उधर की बातो के बाद मैंने कहा, “विवेक
मुझे तुमसे कुछ कहना है ,” प्रिया ने कहा, “मैं रेस्टोरेंट जाकर आती हूँ। ” मैंने
कहा ,” नहीं तू रुक यहाँ ।” विवेक ने
कहा, “मुझे पता है कि तुम क्या कहना चाहती हो ,”
मैं उसके चेहरे की ओर देखने लगी । मैंने पूछा “बताओ तो ।” विवेक ने मेरा हाथ अपने हाथ में पकड़ कर कहा, “यही कि तुम मुझसे प्रेम करती हो। ” मैंने मासूमियत से पुछा
,”भला तुम्हे कैसे पता ?” [ हालांकि मुझे पता था कि उसे कैसे पता था , वो भी मुझसे प्रेम जो करता था ] विवेक ने कहा,
“अरे अभी बताया न , मैं बुद्ध हूँ । मैं सब
जान जाता हूँ। ”
मैं ख़ामोशी से उसे देखने लगी । प्रिया ने विवेक
को कुहनी से टोका । विवेक ने कहा, “अच्छा बाबा । कह दो । इससे
अच्छी जगह और क्या होंगी प्रेम को देने में और स्वीकार करने में । ”
मैंने धीरे से कहा, “विवेक मैं तुमसे प्यार करती हूँ। ” विवेक ने कहा, “और सपना मैं तुम्हारे प्रेम में ही हूँ । मैं भी तुमसे प्यार करता हूँ। मैं
बड़े अहोभाव से तुम्हे और तुम्हारे प्रेम को स्वीकार करता हूँ। ”
मैं मुस्करा उठी।
विवेक थोडा सा मुस्कराया और फिर वो थोडा गंभीर
होकर कहने लगा , “प्रेम करना , प्रेम में पड़ जाना , प्रेम में गिर जाना , इत्यादि से बेहतर होता है कि प्रेम में होना और मैं वही हूँ , तुम्हारे प्रेम में हूँ। ”
मैंने कहा, “जानती हूँ
न , तुम मुझसे आगे हो हर बात में तो प्रेम में भी आगे ही होगे
न”
प्रिया ने हंसकर कहा, “तो हे भगवान बुद्ध !!! अब तुम अपनी इस शिष्या को स्वीकार कर
लोगे न । ”
विवेक ने कहा , “स्वीकार
क्या करना है , वो तो है ही मेरे लिये । लेकिन भविष्य को कौन जान सका है । नहीं ?”
मैं थोडा दुखी हुई , मैंने कहा “ऐसी बातें न करो , मैंने अपने घर में बात कर ली है , माँ
ने कहा, जैसे ही तुम्हे कोई नौकरी मिल जायेंगी तो वो हमारी बात डैडी से कहेंगी । और फिर सब ठीक हो जायेंगा । ”
विवेक ने कहा “ओहो , तो अब मुझे
एक नौकरी भी ढूँढनी पड़ेगी, तुम्हे पाने के लिये? ”
मैंने शर्मा कर कहा, “मैं तो वैसे ही तुम्हारी हूँ ; पाना क्या और खोना क्या !” प्रिया
ने कहा, “ओहो देखो तो दोनों के दोनों कवि बने बैठे है । चलो
चलो देरी हो रही है । ”
हम वापस घर आ गये , मेरी राते और मेरे दिन अब बदल से गये थे , हमेशा विवेक ही मन पर छाया रहता था । उसकी बाते , उसका
खुमार एक जादू सा था। वो कभी कभी घर आता था , माँ से मिलकर
खूब बाते करता था । मेरे डैडी उसे ज्यादा पसंद नहीं करते थे , लेकिन चूंकि मैं उनकी अकेली लड़की थी , इसलिये खुलकर
कुछ मुझे कहते भी नहीं थे ।
समय बीतता गया , हमारी पढाई
का आखरी साल भी ख़तम हो गया , कॉलेज ख़त्म हो गया , मैंने और प्रिया ने एम.ए. में एडमिशन ले लिया ।
विवेक ने एक फार्मा कम्पनी ज्वाइन कर ली थी। मैंने
उससे पुछा और कहा भी कि तुम भी अगर एम.एससी. कर लेते तो अच्छा रहता , उसने जो कहा, उससे मुझे बहुत दुःख लगा ,उसने कहा, “मैं तो पढना चाहता हूँ । लेकिन तुम्हे
पाने के लिये नौकरी भी करना जरुरी है , और बहुत ज्यादा पढ़कर
भी क्या करूँगा, नौकरी ही करूँगा न ! न मुझे ज्यादा कुछ चाहिये
ज़िन्दगी से और न ही कोई आशा है , मैं तो फ़कीर आदमी हूँ । बस
हर हाल मे खुश रहता हूँ । ” ये कहकर जब उसने मेरा चेहरा देखा तो उसने पाया कि मैं
उदास हो चुकी थी , वह समझ गया कि उसकी बाते मुझे बुरी
लगी है । उसने कहा, “अरी पगली मैं तो ऐसे ही कह रहा था । फिर मेरे पिताजी भी कुछ
महीनो में रिटायर होने वाले है , उनके लिये तो नौकरी करना ही पड़ेगी न। तुम ये सब बाते छोडो , और बस देखते रहो , क्या होता है बहुत जल्दी सब कुछ
ठीक हो जायेगा सब बेहतर होगा । तुम दो साल में अपनी पढाई पूरी कर लो , मैं भी नौकरी में सेटल हो जाऊँगा और फिर शादी ! ओके ?”
मैंने मुस्कराते हुये शरमा कर कहा , “हां जी ; ओके”
विवेक ने फिर संजीदा होकर कहा, “क्या तुम शादी को
ही प्रेम की परिणिति मानती हो ?”
मैं थोडा उलझ गयी । मैंने कहा, “मैं समझी नहीं !”
विवेक ने कहा, “मैंने
कहीं पढ़ा था कि शादी करते ही प्रेम ख़त्म हो जाता है । ”
मैंने कहा, “मैं ख़त्म
नहीं होने दूँगी । ”
विवेक ने कहा, “अगर ऐसा
है तो बहुत अच्छा है ! क्योंकि प्रेम के ख़त्म होने का मतलब मेरे लिये है कि मेरे सपनो
का मर जाना और जब सपने ही नहीं रहेंगे तो मैं रहकर क्या करू !”
मैंने उसके मुंह पर हाथ रख दिया । “नहीं नहीं
ऐसी बाते मत करो विवेक ।” हम दोनों बहुत देर तक उसी खामोश आलिंगन में बंधकर खड़े रहे
। फिर विवेक ने मेरे होंठो को हलके से छुआ और कहा , “बस प्रेम
को ही रहने दो । नथिंग एल्स रियली मैटर्स !”
ख़ामोशी एक खुबसूरत अंदाज में बहती रही .......। !
प्रिया का रिश्ता तय हो गया था , लड़के वाले दिल्ली के थे । खूब धूम धाम से शादी हुई । खुशियाँ,
बारात , मस्तियाँ । प्रिया का जाना अच्छा नहीं लग रहा था । हम एम.ए. के दुसरे और
आखरी साल में थे । रिसेप्शन के बाद प्रिया कुछ दिन वहां ससुराल रहकर अपनी पढाई पूरी
करने पटना ही आकर रहने वाली थी . मैं प्रिया को खूब छेड़ रही थी और प्रिया मुझे और
विवेक को छेड़ रही थी .
प्रिया को छोड़ने मैं और विवेक भी दिल्ली गये । हम सब एक होटल में रुके थे । विवेक कुछ दोस्तों के साथ था
और मैं अपनी कुछ सहेलियों के साथ । रिसेप्शन वाले दिन खूब गाना बजाना हुआ ।
रात को जब मैं प्रिया को उसके कमरे में
छोड़कर आई तो विवेक ने मुझे गलियारे में खींच लिया और मुझे अपनी बांहों में भर लिया
। मैंने कहा, “ये क्या कर रहे हो । छोडो मुझे । ”
विवेक ने मुझे छेड़ते हुए कहा, “अरे सुनो तो सपना , हम भी आज अपनी
सुहागरात मना ही लेते है न !”
मैंने उसे नकली गुस्से से देखा। मैंने कहा, “तो आओ शादी करके ले जाओ मुझे । ”
विवेक ने कहा, “बस एक साल और यार । ”
हम उसी तरह खड़े रहे ,और एक प्रेम भरे मौन में बहते रहे । मैं उसके साथ बहुत खुश हो
जाती थी , मुझे लगने लगा कि ये समय , ये मोमेंट फ्रीज़ हो जाये
हमेशा के लिये टाइम फ्रेम में !
विवेक ने धीरे धीरे गुनगुनाया ,” कभी यूँ भी तो
हो ..........!” अचानक उसके दोस्तों में से उसके सबसे अच्छे दोस्त आनंद ने उसे
आवाज़ दी, “अबे विवेक ! कहाँ मर गया साले ।
चल बाहर चल घूमकर आते है । ”
वो जाने लगा ; मैंने कहा, “मत जाओ विवेक बस यूँ ही ऐसे ही मेरे साथ खड़े रहो .....प्लीज ।”
विवेक ने कहा, “यार ये
दोस्त मेरी जान ले लेंगे। जाने दो ..... ” मैंने कहा “नहीं” , इतने में उसका दोस्त आनंद वहां आ गया । उसने हम दोनों को देखा और हँसते
हुए कहा, “अच्छा साले ! यहाँ पर है ! लव स्टोरी चल रही है !”
मैं शरमा गयी थी । उसके सारे दोस्त हमारे बारे में जानते
थे। आनंद ने कहा, “भाभी; अभी से इसे छीन लोगी तो
हमारा क्या होगा !”
वो खींच कर विवेक को ले गया । हमेशा के लिये .............
!!!
थोड़ी देर बाद खबर आई कि दोनों का बाईक पर सीरियस
अक्सीडेंट हो गया और दोनों ही AIIMS में अडमिट थे । हम सब भागे ।
मुझे तो जैसे होश नहीं था , प्रिया बड़ी मुश्किल से मुझे
संभाल रही थी । जब हम इमरजेंसी वार्ड में पहुंचे तो पाया कि आनंद गुजर चुका था,
और विवेक ने तो जैसे मेरे लिये ही अपनी साँसों को रोक रखा था। मुझे आया
देख बड़ी मुश्किल से मेरी ओर देखा और अपना टुटा हुआ हाथ मेरी ओर बढाने की कोशिश की
और दर्द से कराह उठा , उसे बहुत सी चोटें आई हुई थी , मैं
दौड़ कर उसके पास पहुंची । मुझे देख कर हलके से मुस्कराया और कहने लगा , “ बस तुम आ गयी .....अब सब कुछ अगले जन्म के लिये .....” और फिर मुझे
देखते हुए चल बसा । मैं बेहोश हो गयी थी , बाद में जब होश
आया तो सब कुछ ख़त्म सा हो गया था । प्रिया मुझे लेकर पटना चली आई , मैं चुप सी हो गयी थी , यहाँ तक कि विवेक के दाह संस्कार
में भी कुछ न बोली , उसकी माँ और बाबूजी का रो रोकर बुरा हाल
था। दोनों दोस्तों की अर्थियां एक साथ निकली और साथ में मेरे सपनो की अर्थी भी ...!
मैं हमेशा के लिये जैसे चुप हो गयी , माँ मेरी वेदना को समझ रही थी । डैडी भी उदास ही हो चुके थे ,
उन्हें विवेक बहुत ज्यादा पसंद नहीं था पर मेरी ख़ुशी के लिये उसे अपनाने
के लिये वो तैयार ही हो चले थे कि ये हादसा हो गया । मेरा घर खामोश हो गया । साथ
में विवेक का घर भी । उसके माता पिता वापस रांची चले गये !
मेरी ज़िन्दगी में एक वीरानी छा गयी । मैं जो हमेशा
हँसते रहने वाली लड़की थी ; अब जैसे काठ की बन चुकी थी । ज़िन्दगी बस गुजर रही थी ।
धीरे धीरे समय बीता । दो साल हो गये । प्रिया के
घरवालो ने मेरे लिये एक रिश्ता सुझाया, अशोक का ! माँ ने कहा
शादी कर लो। कब तक यूँ ही बैठी रहोंगी , जो चला गया
वो तो वापस नहीं आने वाला । मैंने चुपचाप हामी भर दी ।
अशोक वाराणसी के एक बैंक में काम करते थे । उनमें और विवेक में कोई समानता नहीं थी । हो भी नहीं सकती थी । अशोक की
ज़िन्दगी का अपना अलग फलसफा था। वो अच्छे भी थे और कभी कभी बुरे भी । अशोक; पहले एक पति बने , और अब धीरे धीरे एक दोस्त बनने की कभी कभी अधूरी कोशिश करते
है । और फिर से पति बन जाते है । प्रेमी के बनने की कोई संभावना नहीं थी । खैर अब
चूँकि मैंने शादी करनी थी और इनसे हो गयी । इसलिये किसी से कोई शिकायत नहीं थी । सिवाय
भगवान के । अब दो साल हो चुके है । ज़िन्दगी कट रही है ।
मैंने विवेक को अपने मन के किसी अँधेरे कोने में दफ़न कर दिया था , और सोचा था कि कभी उसका ज़िक्र मेरे दिमाग तक न पहुंचे । हाँ
यादो का क्या , हर दिन कभी न कभी , किसी न किसी बहाने तो उसे
याद कर ही लेती थी !
लेकिन आज इस नये युवक ने क्या नाम बताया था इसने
अपना ......हाँ शुभांकर हां, ये तो जैसे विवेक का डुप्लीकेट था। आज इसने मेरे भीतर एक हाहाकार
मचा दिया है । मैंने एक गहरी आह भरी : काश
! विवेक जिंदा होता ! काश !!!
::: बीतता हुआ आज :::
घर की बजती हुई घंटी ने मुझे चौंका दिया , उठकर दरवाजा खोला तो अशोक थे, मैंने मन
ही मन सोचा “अरे कितना समय बीत गया , यादें होती ही कुछ ऐसी हैं ।“ मैंने अशोक का बैग ले
लिया , अशोक भीतर आते ही मुझसे लिपट गये
और कहने लगे ,”आज बहुत अच्छी दिख रही हो,
ये आँखे क्यों लाल है ? ये
गाल क्यों सफ़ेद है ?” मैंने कुछ नहीं कहा , फिर अचानक अशोक को याद आया “अरे तुम्हारा सरदर्द कैसा है ?”
मैंने कहा, “अब ठीक है , आप फ्रेश हो जाईये , मैं चाय ले आती हूँ । ”
जब तक अशोक फ्रेश हो गये , मैंने चाय बना ली।
मुझे बालकनी में बैठकर चाय पीना पसंद था, अशोक सोफे पर बैठकर टीवी देखते हुये चाय पीते थे । मैं जब तक किचन
से बाहर आई ,अशोक सोफे पर बैठकर टीवी शुरू कर चुके थे । मैंने
चुपचाप चाय उनके पास रख दी।
अशोक की बातें नीरस होती थी , सरकार, पॉलिटिक्स , स्पोर्ट्स और भी दुनिया भर की बातें । मैंने कभी उन्हें कविता
या प्रकृति के बारे में बात करते नहीं सुना ।
लेकिन शायद ज़िन्दगी इसी को कहते है , जो आप चाहते हो वो कभी नहीं मिलता और जो मिलता है उसे आप कभी चाहते
नहीं थे ! बहुत पहले कहीं पर पढ़ा था ; निदा फाजली ने लिखा था, “कभी किसी को
मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता , कहीं ज़मीन तो कहीं आसमां नहीं
मिलता ।”
अशोक चाय पी रहे थे और टीवी देखते हुये मुझसे बातें कर रहे थे । अचानक घर की कॉलबेल
बजी । मैंने दरवाजा खोला तो देखा सामने विवेक खड़ा था , नहीं नहीं ये तो शुभांकर था । वही अंदाज ,वही दाढ़ी , वही मुस्कराहट । वो che guevara के फोटो
वाला टी शर्ट पहने हुये था !
विवेक का मनपसंद टी शर्ट और विवेक कितनी बाते
कहता था इस क्रांतिकारी के बारे में ।
मैं अवाक् सी खड़ी थी कि अशोक की आवाज ने मेरा
ध्यान तोडा , “ कौन है सपना ?”
मैंने कहा, “जी ; जो ऊपर वाले फ़्लैट में रहने आये हैं वो हैं ,” अशोक
तुरंत दरवाजे पर आये , उन्होंने बड़ी गर्मजोशी से शुभांकर से
हाथ मिलाया और भीतर बुलाया ।
अशोक ने कहा , “आओ भई ,
कहाँ से हो , क्या करते हो , पेरेंट्स क्या करते है । ”
शुभांकर मुस्करा उठा, “सर इतने सारे सवाल? वेल... मेरा नाम शुभांकर है... मैं गोरखपुर
से हूँ, और यहाँ एक होटल रेडिसन के बैंड में लीड गिटारिस्ट
हूँ। बस और कुछ खास नहीं , वैसे लेखक हूँ, कविताएं लिखता हूँ ,” मेरा दिल फिर विवेक के नाम से धड़का
। “फिलहाल एक किताब लिख रहा हूँ , और पोस्ट ग्रेजुऐशन कर
लिया है । एक अच्छी नौकरी की तलाश में आया हूँ । बस। और हाँ , मेरी माँ है जो गोरखपुर
में ही रहती है। ”
अशोक ने मुस्करा कर कहा, “ अच्छा तो तुम
तो सपना के टाइप के हो भाई , हम तो यार बैंक के नौकर है ”
शुभांकर ने कहा, “ऐसा न
कहिये , आप एक अच्छी
नौकरी में है ; जो कि आज की सबसे बड़ी जरुरत है, मेरे जैसे
लाखो होंगे , आप जैसे सिर्फ हज़ार ही हो सकते है। नौकरी है तो
शान्ति है , वरना मेरी जैसी भटकन है। लिखने पढने और गाने बजाने
में क्या है, सिर्फ मन की शान्ति !”
अशोक ने गौर से उसे देखा और कहा, “यार बातें तो बहुत अच्छी करते हो , तुम लेखको के साथ यही एक सही बात होती है । चलो आओ चाय पीओ । ”
मैंने उसे चाय दी । उसने कहा, “माफ़ किजियेगा, लेकिन क्या आपके पास प्लेट है , मैं उसमे पीना पसंद करता हूँ । ”
एक दम विवेक.......। विवेक जैसी बाते करता है !
मैंने कहा “जी प्लेट तो नहीं है । ” अशोक ने कहा
“यार तुम तो बड़े पुराने टाइप के बन्दे हो। ”
उसने मुस्करा कर चाय पी, और फिर उठकर खड़ा हुआ, हमें नमस्ते की और
कहा, “अब चलता हूँ,
आज पहला दिन है , एक बार होटल में जाकर सबसे
मिल आता हूँ।“
अशोक ने कहा ,” जरुर ! कोई बात नहीं , कोई भी बात हो तो कहना । ”
वो चला गया । विवेक चला गया , नहीं नहीं …… शुभांकर चला गया ।
मुझे क्या हो रहा है , सर फिर चकरा रहा था ।
अशोक ने मुझे देखा और कहा , “अरे तुम्हे क्या हो गया ?”
मैंने कहा , “कुछ नहीं
बस थोड़े आराम की जरुरत है । ”
उसने कहा, “अच्छा चलो
तुम आराम करो , मैं थोडा टीवी देखता हूँ। “
थोड़ी देर बाद मैंने उठकर हल्का सा खाना बनाया , अशोक के लिये पकोड़े बनाया , उनको ले जाकर दिये , उसने बड़े
प्यार से मुझे थैंक्स कहा और फिर अपनी ड्रिंक्स लेकर बैठ गये। थोड़ी देर में ही घर में
शराब और सिगरेट की गंध भर गयी , जो कि मुझे बिलकुल पसंद नही
थी !
और विवेक को भी । वो शराब और सिगरेट से कोसो दूर
था। यादो ने मुझे फिर घेर लिया । इतने में
अशोक की आवाज आयी, “यार खाना लगाओ !”
मैंने सोचा , क्या
ज़िन्दगी है , उठो , घर के काम करो , खाना
बनाओ , बस कुछ भी नया नहीं ; कोई खोज नहीं , कोई बात नहीं। कोई एडवेंचर नहीं !
अशोक की आवाज फिर आयी , उनमे बड़ा उतावलापन था। विवेक में एक ठहराव था एक बुद्ध की तरह
, मैं मुस्करा उठी , मुझे बोधगया की बात याद आ गयी , उसने कहा था ,मैं बुद्ध हूँ। अशोक की आवाज आयी “यार आज खाने में कोई टेस्ट ही नहीं है ।
मैंने कहा, “बस मेरी तबियत ठीक नहीं थी । कल अच्छा सा बना
दूँगी ।” अशोक ने कहा, “हां यार कोई बात नहीं ।”
ड्रिंक्स हो गये । खाना हो गया । घर में एक अजीब
सी गंध बस गयी थी , रोज का यही किस्सा था । मैं एक विद्रूप सी मुस्कान से भर उठी। क्या सोचा था और क्या मिला । सब कुछ ठीक था और
कुछ भी ठीक नहीं था।
मैं बिस्तर पर बैठकर धर्मवीर भारती का “गुनाहों का देवता” पढ़ रही थी, जब अशोक ने मुझे अपनी तरफ खींचा। मैंने धीरे से कहा, “जी, आज तबियत कुछ ठीक नहीं , प्लीज।”
अशोक ने मुझे घूर कर देखा , कुछ देर गुस्से में पता नहीं
क्या क्या बकते रहे , हमेशा पीने के बाद यही होता था ... पीने के बाद अशोक नार्मल
नहीं रह जाते थे. कुछ देर के क्रोध के बाद वो दूसरी तरफ मुंह करके सो गये । मेरी
आँखें भीग गयी , मैंने कहा, “जी ,प्लीज , सच में मेरी
तबियत ठीक नहीं है । ” अशोक ने बड़बड़ाते हुये कहा, “ठीक है ,
सो जाओ । और मुझे भी सोने दो !”
अशोक सो गये। मैं ने चारो तरफ देखा , आज पहली बार मुझे ये घर, ये ज़िन्दगी, सब कुछ अजनबी सी लग रही थी, मैं अपना सर पकड कर बैठी रही ।
फिर मैं बालकनी में जाकर बैठ गयी, बाहर की ठंडी हवा ने मेरे मन को छुआ । धीरे धीरे अच्छा लगने
लगा। मैं यूँ ही शहर की रोशनियों को देखने लगी । कुछ देर में मैंने देखा एक ऑटो
आया और उसमे से शुभांकर उतरा । अपने गिटार के साथ , उसने ऊपर
की ओर देखा । मैं भीतर की ओर सिमट गयी । मैं
भीतर चली आई और दरवाजा बंद कर लिया । अब मुझे इस शुभांकर से डर लगने लगा था। मैं
बिस्तर पर आकर बैठ गयी । और यूँ ही दीवारों को देखने लगी , और
हमेशा की तरह उनसे बाते करने लगी। । अचानक
मेरे मन में आया कि चलो कुछ नया लिखते है , मैंने अपनी कॉपी
निकाली और पुरानी कविताओ को देखने लगी , मेरी आँखे फिर भीगने
लगी । । मैंने आंसू पोछते हुये, विवेक को याद करते हुये, अपनी ज़िन्दगी से समझौता करते
हुये और अपने घर के अकेलेपन से बात करते हुये लिखा :
“तू”
मेरी दुनिया में जब मैं खामोश रहती हूँ ,
तो ,
मैं अक्सर सोचती हूँ,
कि
खुदा ने मेरे ख्वाबों को छोटा क्यों बनाया ……
एक ख्वाब की करवट बदलती हूँ तो;
तेरी मुस्कारती हुई आँखे नज़र आती है,
तेरी होठों की शरारत याद आती है,
तेरे बाजुओ की पनाह पुकारती है,
तेरी नाख़तम बातों की गूँज सुनाई देती है,
तेरी बेपनाह मोहब्बत याद आती है ..............।
तेरी क़समें ,तेरे वादें ,तेरे सपने ,तेरी हकीक़त ॥
तेरे जिस्म की खुशबु ,तेरा आना , तेरा जाना ॥
अल्लाह .......। कितनी यादें है तेरी..............
दूसरे ख्वाब की करवट बदली तो ,तू यहाँ नही था.......।
तू कहाँ चला गया.......
खुदाया !!!!
ये आज कौन पराया मेरे पास लेटा है..............!!!
तो ,
मैं अक्सर सोचती हूँ,
कि
खुदा ने मेरे ख्वाबों को छोटा क्यों बनाया ……
एक ख्वाब की करवट बदलती हूँ तो;
तेरी मुस्कारती हुई आँखे नज़र आती है,
तेरी होठों की शरारत याद आती है,
तेरे बाजुओ की पनाह पुकारती है,
तेरी नाख़तम बातों की गूँज सुनाई देती है,
तेरी बेपनाह मोहब्बत याद आती है ..............।
तेरी क़समें ,तेरे वादें ,तेरे सपने ,तेरी हकीक़त ॥
तेरे जिस्म की खुशबु ,तेरा आना , तेरा जाना ॥
अल्लाह .......। कितनी यादें है तेरी..............
दूसरे ख्वाब की करवट बदली तो ,तू यहाँ नही था.......।
तू कहाँ चला गया.......
खुदाया !!!!
ये आज कौन पराया मेरे पास लेटा है..............!!!
मेरी आँखों से आंसू गिरते रहे !!!
रात गहरी हो चुकी थी , सिर्फ झींगुरो की आवाजें ही आ रही थी। या फिर अशोक के खर्राटे !
मैंने उन्हें देखा , आदमी ठीक था , पर मेरे लायक नहीं था । या
फिर मैं ही इसके लायक नहीं थी । ऐसी ही
कुछ उटपटांग बातें सोचते हुये मैं सोने की कोशिश करने
लगी । अचानक गिटार की धुन मेरे कानो में सुनाई दी। मैंने ध्यान दिया । ऊपर से ही आ
रही थी , शुभांकर बजा रहा होगा । पर क्या धुन थी । ठीक से सुनाई नहीं दे
रहा था। मैं धीरे से उठी और हलके पाँव रखती हुई बालकनी में गयी ; अब धुन सुनाई दे
रही थी.......!
शुभांकर बजा रहा था ....... “अजीब दास्ताँ है ये
...... कहाँ शुरू कहाँ ख़तम !”
मैं सन्नाटे में आ गयी । स्तब्ध ..... ये विवेक
का मनपसंद धुनो में से एक थी ।
मैं बालकनी में खड़ी फ्रीज़ सी हो गयी थी !
मैं; गिटार की धुन की नर्म गूँज में भीगती रही !
भीतर शराब से भरे अशोक के खराटे गूंजते रहे !
बाहर फिज़ा में गिटार के कॉर्ड साउंड्स बदलते रहे
!
सड़क पार कृष्ण मंदिर के दिये जलते बुझते रहे !
तन्हाई से भरी रात बहती रही !
चाँद और सितारे खामोश ही रहे !
हमेशा की तरह ..............!
और .......
और मैं देर तक रोती रही .......!!!
::: बीतता हुआ आज ::
दुसरे दिन अशोक जब ऑफिस जा रहा था तो ऊपर की
बालकनी से शुभांकर ने उसे कहा , “ नमस्ते सर, कैसे हैं। शाम को आईये होटल में मेरा गाना सुनने। मैडम
को भी लेते आयियेंगा ।”
अशोक ने मुस्कराकर कहा , “हाँ भाई आ जाउंगा । लेकिन है किस होटल में ,”
शुभांकर ने कहा “ सर आपको कल बताया था न , रैडिसन
में! “
अशोक ने कहा, “भाई वो तो
बड़ा महंगा होगा। ”
शुभांकर ने कहा , “सर आप
आईये न , आप दोनों मेरे गेस्ट होगे ,तो आप लोगो का कोई खर्चा नहीं होगा ! वहां ओकवुड बार में आ जाईये । मेरा बैंड वहीँ पर गाने
गाता है । ”
अशोक ने कहा “देखूंगा” और ऑफिस चले गये.
मैं खामोश रही ।
घर के काम होते रहे ।
ऊपर की मंजिल से गाने बजते रहे ।
मेरा मन और खराब होता रहा ।
बीच में अशोक का फ़ोन आया , मैंने सिर्फ हाँ या ना में जवाब दिया ।
मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि अब मैं क्या
करू । मेरी ज़िन्दगी का एक अतीत था , जिसे ,
मैंने बहुत मुश्किल से भुला दिया था , एक वर्तमान है , जिसमे अशोक है , और अब ये
शुभांकर .......मैं क्या करू !
मैंने सोचा , क्यों न इन सब से दूर चले जाये । पर
कैसे। ये घर तो अशोक का है । क्या करे। शुभांकर
को ही कुछ बोलना होगा।
घर के काम हो गये। मैंने कुछ खाना खाया और सोने
चली गयी , थोड़ी देर में गिटार की हलकी-
हलकी धुन से मेरी आँखे खुली , मैंने सोचा इतने करीब से कैसे आ रही है आवाज , देखा
तो वो अपनी बालकनी में खड़ा था। और गिटार बजा रहा था । मैंने अपने लिये चाय बना ली और
सोचने लगी , क्या शुभांकर से अपने अतीत के बारे में बोलना
ठीक रहेगा । मैं सोचती ही रही । और फिर मैंने फैसला किया कि अगली मुलाक़ात पर उससे
अपने अतीत के बारे में कह दूँगी । और उसे यहाँ से जाने के लिए कह दूँगी !
शाम हो गयी । अशोक आ गये । चाय पीने के बाद कहा कि
होटल में शुभांकर का गाना सुनने चलते है।
मैंने सरदर्द की बात कही और कहा, “ मैं फिर कभी आ
जाउंगी , वो खुद एक बार देख लें और वैसे भी वहां पीना खाना होगा , जो कि मुझे पसंद नहीं आयेगा और मेरे सर दर्द को और बढ़ायेगा । ”
अशोक ने कुछ नहीं कहा और चले गये !
मैं जानबूझकर नहीं गयी थी , मुझे अपनी यादों में नहीं उलझना था । मेरी तकलीफ कोई भला क्या
जाने । शुभांकर को देखते ही मुझे कुछ हो जाता था ।
मैंने खुद से पुछा – क्या मुझे फिर से प्यार हो
रहा है ? शुभांकर से ? मेरे मन के किसी कोने से एक जादूभरी धीमी सी आवाज़ आई – हां
!
रात अजनबी सी दबे पाँव आई । देर रात घर की घंटी
बजी , अशोक दरवाजे पर झूमते हुये खड़े
थे। उन्हें लेकर शुभांकर खड़ा था। मैं अचानक ही एक हीनभावना से भर गयी । मैं कुछ नहीं
बोली , चुपचाप अशोक को थामकर भीतर आ गयी । उन्हे सोफे में बिठाया ।
शुभांकर ने मुझे देखकर कहा, “अच्छा चलता हूँ। ” उसे भी शायद कुछ कुछ समझ में आ रहा था।
मुझे ऐसा लग रहा था कि जैसे किसी ने मुझे अपमानित
कर दिया हो। मैं चुप थी । वो मुड़ा और धीरे धीरे चला गया , मैं उसे दरवाजे तक छोड़ने आई , धीरे से
थैंक्स कहा। उसने मुझे देखकर एक अबोध
मुस्कराहट दी ।
वो धीरे धीरे अपना गिटार संभाले हुये अपने घर की
ओर बढा। मैंने मुड़ कर देखा , अशोक सोफे पर ही सोने लग गये थे।
मैं शुभांकर को सीढियां चढ़ते हुये देखती रही .......।
पहली सीढ़ी – विवेक , दूसरी सीढ़ी- शुभांकर , तीसरी सीढ़ी –अशोक , चौथी सीढ़ी – विवेक
और शुभांकर , पांचवी सीढ़ी- विवेक और अशोक , छटवी सीढ़ी – शुभांकर और
अशोक , सातवी सीढ़ी – सांतवा फेरा अशोक के साथ !!!
अशोक की आवाज आई । मैं मुड़ी , वो मुझे बुला रहे थे। मैंने आह भरी और दरवाजा बंद किया ,
दरवाजे के बंद होते किवाड़ से मैंने देखा , शुभांकर
आंठ्वी सीढ़ी पर खड़ा था और मुड़कर मुझे देख रहा था ।
मैंने दरवाजा बंद कर दिया और अशोक को उठाया , मैंने कहा, मैं खाना लगा देती हूँ ,
आईये
अशोक ने कहा, नहीं भूख नहीं है , मैंने उन्हें उठाकर खड़ा
किया और भीतर ले गयी , और उन्हें सुला दिया ।
और उनके बगल में सर पकड़ कर बैठ गयी ।
भगवान् भी कभी कभी कितना अन्याय करता है । मुझे
किस तरह का पति मिलना चाहिये था और किस तरह का पति मिला?
मैंने एक दर्द
भरी आह भरी । । ज़िन्दगी इसे ही कहते है । मैंने बालकनी का दरवाजा
खोला । ठंडी हवाओं ने मेरा स्वागत किया । मैं
शांत होने लगी । अशोक के खराटे गूँज रहे थे । पीने के बाद उन्हें दीन दुनिया की
खबर नहीं होती थी ।
मैं बालकनी में एक कुर्सी पर बैठ गयी । थोड़ी देर बाद
मुझे भूख लगी , मैंने खाना लिया और खाने लगी , और
फिर से बालकनी में बैठ गयी , मेरे मन में बहुत से विचार आ
रहे थे और जा रहे थे। रात गहरी थी , मैं विचारों में खोयी हुई
थी कि ऊपर की बालकनी में दरवाजे के खुलने की आवाज आयी और शुभांकर की आवाज आई ,
किसी से वो बात कर रहा था शायद। । उसकी आवाज आई , “हां माँ , मैं ठीक हूँ , आज से जॉब भी ज्वाइन कर लिया है । सब ठीक है । पडोसी भी ठीक है , अच्छी
फॅमिली है । मेरा ख्याल रखते है । हां माँ , मैंने खाना खा
लिया है । हाँ कल फॉर्म भर दूंगा । मिल जायेंगी जॉब माँ , तुम
चिंता मत करो । हाँ चलो रखता हूँ ।“
मैं चुप थी । घर के सामने सड़क के पार कृष्ण
मंदिर की कुछ लाइट्स जल रही थी। हवा धीरे धीरे बह रही थी। कभी कभी कोई गाडी सड़क पर
तेजी से गुजर जाती थी ।
मैंने कृष्ण मंदिर को देखा , मेरी आँखों में पानी भर गया । कितना पूजती थी मैं इस कृष्ण को
!!! विवेक के जाने के बाद मैंने भगवान की पूजा करना छोड़ दिया था। आज बहुत तलब हुई कि
मंदिर जाऊं । लेकिन इतनी रात को ? छोडो ,कल चली जाउंगी ! मेरे घर में भी एक छोटा
सा मंदिर था। अशोक बहुत पूजा पाठ करते थे।
मैं सोचने लगी , अशोक भी
क्या करैक्टर है , कुछ बातो में कितना अच्छा , और कुछ बातो में क्या है । शुरू शुरू में उसकी शराब सिगरेट की आदत की वजह
से बहुत बहस होती थी , कुछ दिन के लिये ये आदते बंद हो जाती
थी , और फिर शुरू। ऊपर से उनका क्रोध ....... !!!
मैं अब चुप ही रहने लग गयी थी , मैंने ये मान लिया था कि मेरा जीवन अब ऐसा ही है। यही ईश्वर
को मंजूर है । न मुझे अशोक की किसी भी आदत या व्यवहार में दिलचस्पी थी और न ही उसे
मेरी किसी बात में या आदत में दिलचस्पी ! बस ज़िन्दगी बोझ सी कट रही थी .
अशोक कई बार मुझसे पूछते , “तुम खुश नहीं हो न मुझसे , तुम ठीक नही
फील करती हो यहाँ।” मैं कुछ नहीं कहती , बस चुप रह जाती या
कहती , “जी ऐसा कुछ नहीं है ।” मैं बस जी रही थी। बिना किसी
उम्मीद में !!!
लेकिन अब बरसो के बाद विवेक शुभांकर के रूप में
मेरी ज़िन्दगी के दरवाजो को दस्तक दे रहा था। और मैं अब अपनी ज़िन्दगी में एक नयी
आहट को पहचान रही थी .
मैं भीतर गयी , फ्रिज में
से ठन्डे पानी की बोतल निकाल कर पानी पीने लगी। फिर बालकनी में आकर पता नहीं किन ख्यालों में डूब गयी ।
मैंने बहुत शिद्दत से विवेक के संग प्यार किया
था और वो था भी एक अलग तरह का बन्दा ! , थोडा सा धार्मिक, थोडा सा कवि , थोडा रोमांटिक, थोडा खामोश , थोडा
सा इंसान.......। एक बच्चा था उसके भीतर ,
जो हमेशा खुश ही रहता था। कितने सपने देखे थे मैंने विवेक के संग ,
सब उसकी मौत के एक भयावह झटके से ख़त्म हो गये थे।
अशोक के साथ मैंने चुपचाप जीना चाहा , लेकिन अक्सर ही मैं अशोक की तुलना विवेक से कर बैठती थी । और
तब ही ज़िन्दगी अस्तव्यस्त हो जाती थी । न मैं विवेक की हो सकी थी और न ही मैं अशोक
की बन पा रही थी , इसी पेशोपेश में मैंने दो साल काट दिये। और
ये तीसरा साल था !
मैंने एक बार अपनी सहेली प्रिया से कहा कि मैं शायद इस घर
में अशोक के संग नहीं जी पाउंगी , क्या मैं उससे अलग हो जाऊं , तब प्रिया ने मुझे बहुत
समझाया था कि बीते हुये वक़्त को दफ़न करके आगे की ज़िन्दगी को जीने का सोचना चाहिये , अशोक एक भला इंसान है , थोडा बहुत पीता भी है तो क्या है । तेरे साथ तो अच्छे से रहता है ,
इत्यादि बातें.......। उसकी बात सच थी , पर मैं अपने आपको उसमे ढाल नहीं पा रही थी।
मेरी ज़िन्दगी भी क्या ज़िन्दगी है !
अशोक की आवाज आई, वो मुझे पुकार
रहे थे । मैं गयी , उन्होंने मुझे पकड़ कर खींच लिया । मैं मना
कर पाती , इसके पहले उन्होंने कह दिया, “मना मत किया करो यार
। मैं तुम्हारा पति हूँ। मेरा हक है ” और
भी पता नहीं क्या क्या बाते !!!
मैंने चुपचाप समर्पण कर दिया । ज़िन्दगी सिसकती
रही ,रात बीतती रही ।
सुबह अशोक ने मुझे जल्दी उठा दिया , कहा कि मुझे आज ऑफिस जल्दी जाना है । मैं लंच वहीँ खा लूँगा ।
मैंने कुछ नहीं कहा । हमेशा की तरह चुपचाप ! एक खाली सी मुस्कराहट ! एक झूठी ज़िन्दगी !
::: आने वाले कल की आहट :::
आज मैंने सोचा था एक बार कृष्ण के मंदिर चली जाऊं।
घर के काम होने के बाद मैं मंदिर चली आई । मुझे
बहुत अच्छा लगा , मंदिर साफ़ सुथरा था । मैंने खुद
को कोसा, घर के सामने इतना अच्छा मंदिर है और मैं आज तक यहां नहीं आई?
मैं आँखे बंद करके एक किनारे बैठ गयी , पुजारी बीच
बीच में कुछ मन्त्र पढ़ रहा था , मुझे अच्छा लगने लगा। मन शांत होने लगा। मैंने फैसला किया कि
अब रोज यहां आया करुँगी । यही ठीक रहेगा , मन की उद्विग्नता शांत होने लगी !
मुझे अच्छा लगने लगा। मेरी आँखों में आंसू भर
आये। मन हुआ कि बहुत जोरो से रो दूं और मन
को हल्का कर दूं।
मेरी आंखो से आंसू बह रहे थे । अचानक एक आवाज आई , “अरे आप रो
क्यों रही हैं ?” मैंने आँखे खोली । सामने शुभांकर खड़ा था। मैंने आंसू पोंछते हुये कहा , “बस ऐसे ही
, कुछ नहीं , मन शांत करने के लिये कभी
कभी आंसू बहाने पड़ते हैं। ”
शुभांकर मेरे पास ही बैठ गया । कितना मिलता था
उसका चेहरा विवेक से !
उसने कहा, “नहीं; रोना नहीं पड़ता है , बस अपने आपको प्रभु के हवाले करना पड़ता है , मैंने तो अपना सब कुछ कृष्ण को दे दिया है । कृष्ण मेरे आराध्य है ।”
मेरे कानो में विवेक की आवाज गूंजी , “बुद्ध मेरे आराध्य है । ”
मैंने शुभांकर से कहा, “प्लीज थोड़ी देर मुझे शांत बैठने दो
। ”
उसने कहा, “ठीक है जी । मैं पूजा कर आता हूँ। ”
वो उठकर खड़ा हुआ .......।
मैं सोचने लगी , ये क्या हो
रहा है दो इंसानों में इतनी समानता कैसे है। ये क्या हो रहा है मेरे जीवन मे ।
मैंने सोचा, आज इस शुभांकर से बात कर ही लूं। मैंने उसे बुलाया , “शुभांकर, तुमसे बात करनी थी । चलो । ”
मैं और शुभांकर हमारे कॉलोनी के ही एक छोटे से
कॉफ़ी हाउस में बैठे। मैं बहुत देर तक उसे देखती रही। उसमे
और विवेक में कितनी समानता थी। बस विवेक
थोडा लम्बा था। बाकी चेहरा भी उससे कितना मिलता था ।
मुझे उस चेहरे की याद आई , जो मुझे देखता ही रहता था। मुझे उस चेहरे की याद आई , जो मेरे साथ कई कई दिन शहर की सडकों पर चला था। मुझे उस चेहरे की याद आई , जो
बोधगया के मंदिर में मुझे बुद्ध की देशना दे रहा था। मुझे वो चेहरा याद आया जो मुझे और मेरे चेहरे को
बहुत हौले से छूता था ! मुझे वो चेहरा याद आया जो प्रिया
की रिसेप्शन वाली रात में मेरी ओर झुका
हुआ था । और फिर मुझे वो चेहरा याद आया.... एक्सीडेंट के बाद वाला... खून से लथपथ , मेरी ओर उम्मीद से ताकता हुआ और मुझे कहता हुआ कि फिर मिलूँगा....…और फिर मुझे वो चेहरा याद आया.... कफ़न से ढका हुआ । पता नहीं किस प्रतीक्षा में शव
बनकर लेटा हुआ? मुझे रोना सा आ गया ,
मेरी आँखों से आंसुओ की बूंदे गिर पड़ी ।
शुभांकर ने कहा , “ये क्या,
आप इतना रोती क्यों हो। ”
मैंने अपने आंसू पोछे
और उससे कहा, " देखो शुभांकर , ज़िन्दगी
कभी कभी बहुत बड़ा सा मज़ाक करती है , और तुम भी मेरे लिये कुछ
ऐसा ही हो। "
उसने मुझे पूछा, " आखिर
क्या बात है , मुझे देखकर आप इतनी असहज क्यों हो जाती हो ?
व्हाट्स रॉंग ?"
मैंने कहा , " तुम मानोगे नहीं ,
लेकिन कभी कभी सच ज़िन्दगी के सामने एक प्रश्न लेकर खड़ा हो जाता है "
इतने में वेटर आया , मैंने दो कॉफ़ी मंगाई और कॉफ़ी पीने तक चुप रही। फिर मैंने शुभांकर से कहा," देखो ,शुभांकर मेरी एक पिछली ज़िन्दगी है।
शुभांकर ने कहा, " हम
सभी की होती है "
मैंने उसकी ओर देखकर कहा, "मेरी पिछली ज़िन्दगी में एक लड़का था, उसका नाम विवेक था"
शुभांकर ने अचानक ही चौंककर कहा , " हाँ आप उस दिन कुछ कह रही थी... विवेक। हाँ तो होता है न , हम सब की कोई न कोई पिछली ज़िन्दगी होती है , कोई न कोई लड़का या लड़की होती है , प्यार होता है , अलग होना होता है , और फिर ज़िन्दगी भर उस याद के सहारे ज़िन्दगी कटती है। बस और क्या? ये तो कमीबेशी सभी की ज़िन्दगी में होता है। इसमें थोडा बहुत अन्तर होता है , पर सबकी कहानी लगभग कुछ ऐसी ही तो होती है। “
शुभांकर ने अचानक ही चौंककर कहा , " हाँ आप उस दिन कुछ कह रही थी... विवेक। हाँ तो होता है न , हम सब की कोई न कोई पिछली ज़िन्दगी होती है , कोई न कोई लड़का या लड़की होती है , प्यार होता है , अलग होना होता है , और फिर ज़िन्दगी भर उस याद के सहारे ज़िन्दगी कटती है। बस और क्या? ये तो कमीबेशी सभी की ज़िन्दगी में होता है। इसमें थोडा बहुत अन्तर होता है , पर सबकी कहानी लगभग कुछ ऐसी ही तो होती है। “
मैं शुभांकर की बातो से सहमत थी और साथ ही विस्मित भी थी कि शुभांकर ने कितनी जटिल सी बात को कितने सीधे तरीके से कह दिया था।
शुभांकर ने कॉफ़ी का घूँट लेते हुये मुझसे पुछा , " तो विवेक का क्या हुआ। ”
मैंने धीरे से कहा , " वो मर गया "
एक तकलीफदेह और अशांत सी खामोशी छा गयी। काफी देर तक हम दोनों में से कोई कुछ नही बोला ! समय अपनी चुभन से मुझे तकलीफ पहुंचाता रहा !
फिर शुभांकर ने धीरे से कहा, " आय ऍम रियली सॉरी। मैं जानता नहीं था।“
मैंने नम आँखों से कहा , " कोई बात नहीं "
फिर मैंने आगे कहा ," वो कथा और विवेक को मैंने अपने किसी पिछले जन्म की तरह
यादो में ही दफ़न कर दिया था और अशोक के साथ अपना जीवन जैसे तैसे गुजार रही थी। बस
गुजार रही थी , न कोई ख़ुशी और न ही कोई दुःख, जीवन में जो कुछ भी मेरे लिये प्रभु ने रखा था उसे चुपचाप स्वीकार कर रही
थी और बस ज़िन्दगी कट ही रही थी। न कोई शिकायत और न ही
कोई बहुत ख़ुशी। मैंने अशोक को ही अपना
प्रारब्ध मान स्वीकार कर लिया था ,शादी को लगभग तीन साल हो गये। बस जीवन कट ही रहा था , विवेक
को गये लगभग ५ साल हो गये है। मैंने अपने
आपको कविता में और संगीत में ढाल दिया था और अशोक की ज़िन्दगी को संवारने में अपनी
ज़िन्दगी गुजार रही थी। कभी कभी विवेक की
याद आती भी थी। पर कुछ देर के बाद , उसके
बाद , मेरा आज का यथार्थ मुझे इस धरातल पर ले आता था। “
मैं एक पल के लिये रुकी !
मैंने शुभांकर को देखा, वो दोनों हाथो से अपने चेहरे को थामे मुझे देख रहा था ,
मुझे फिर एक झटका सा लगा,
विवेक.......। वो भी ऐसे ही
बैठकर मुझे देखता था।"
मैंने एक आह सी भरी !
मैंने कहा, " शुभांकर
, सब कुछ ठीक ठाक ही था कि तुम आये "
शुभांकर ने चौंक कर कहा, " मेरे आने से क्या हुआ ,
हम तो पहली बार ही मिले है। और फिर मुझे लगता है कि
मैं एक अच्छा और शरीफ बंदा हूँ, मैं आपकी बड़ी इज्जत करता हूँ. आपके लिए मेरे मन
में सम्मान ही है "
मैंने कहा ," तुम्हारी
सूरत , तुम्हारी आदते , तुम्हारा पूरा
व्यक्तित्व ही विवेक से मिलता है।"
शुभांकर ये सुनकर चौंका , उसने कहा, “ये कैसे हो सकता है।“
मैंने कहा, “तुम मानोगे नहीं, उसका चेहरा और उसका
मैनेरिस्म सबकुछ तुम से इतना मिलता है कि क्या कहूँ? और तो और तुम्हारा
व्यवहार, तुम्हारी आदते , तुम्हारे शौक सब कुछ इतना मिलता है कि मेरी ठहरी हुई
ज़िन्दगी में एक भूचाल सा आ गया है। “
शुभांकर ने कहा " ऐसा तो सिर्फ फिल्मो में
ही होता है , हकीक़त में नहीं ; आपको जरुर कोई
ग़लतफ़हमी हो रही होगी "
मैंने कहा , “तुम रुको।“
मैंने कॉफ़ी का बिल चुकाया और शुभांकर से कहा, “आओ
मेरे साथ !”
हम अपनी बिल्डिंग में आये , मैं उसे अपने घर लेकर आई और उसे बिठाकर अपनी अलमारी से विवेक की फोटो , उसकी चिट्ठियाँ, और म्यूजिक एलबम्स , रुमाल और सारी चीजे
लेकर आई और उसके सामने रख दी और खुद दरवाजे के एक किनारे लगकर विवेक की याद में खुद को संजोने लगी।
शुभांकर ने जैसे ही फोटो देखा , वो बुरी तरह चौंका, उसने कुछ पत्र पढ़े,
म्यूजिक अल्बम्स देखे और अपना सर पकड़ कर रह गया , उसके मुंह से निकला , “हाउ कैन इट बी ? इट इज जस्ट इम्पॉसिबल । ये नामुमकिन है "
कहता हुआ वो खड़ा हो गया और मेरी ओर देखते हुये बाहर
की ओर चला गया , वो भी डिस्टर्ब हो चुका था। वो अपने घर के ओर बढ़ा । मैं उसका सीढ़ी चढ़ना चुपचाप देखती रही।
पहली सीढी , दूसरी सीढ़ी
,तीसरी सीढ़ी , चौथी सीढ़ी ,
सीढ़ी पांचवी , छटवी सीढ़ी , सातवी सीढ़ी और आठवी सीढ़ी। उसने मुझे पलटकर
देखा और चुपचाप अपने घर के भीतर चला गया।
मैं चुपचाप वही दरवाजे पर खडी रही।
कई दिन गुजर गये , न मुझे
उसका गीत संगीत सुनाई पडा और न ही मुझे वो दिखाई पड़ा !
मुझे अब लग रहा था कि मैं उसे देखना चाहती हूँ , मिलना चाहती हूँ , विवेक ने जो जगह अधूरी छोड़ी हुई है उसमे
शुभांकर को भरना चाहती थी ।
मुझे कभी कभी कुछ भी समझ में नहीं आता था। मुझे लगता था कि जो प्यार अधुरा छूटा हुआ है; उसे
शुभांकर के संग पूरा करूँ और कभी लगता था कि मेरा ऐसा करना पूरी तरह से गलत है।
ये सब बाते , शुभांकर का
न दिखना , विवेक की यादे और अशोक के संग बेमज़ा ज़िन्दगी
गुजारना , ये सब बाते मुझे पूरी तरह से
आंदोलित कर रही थी।
मेरा जीवन पूरी तरह से अस्तव्यस्त हो चला था !
::: बीतता हुआ आज ::::
बहुत से दिन गुजर गये । मैं बहुत कोशिश करती कि शुभांकर
से मुलाक़ात हो जाये पर , उसका कोई पता ही नहीं था। आज चाय पीते हुये अशोक ने पुछा,
“अरे वो शुभांकर नहीं दिख रहा है । कोई खोज - खबर ही नहीं है । ” मैंने कहा , “मुझे भी नहीं पता । मैंने भी कई दिन से उसे नहीं देखा है । ”
अशोक ने कहा, “मैं ज़रा देखकर आता हूँ,” वो ऊपर गये
और थोड़ी देर में नीचे आये , मैं बहुत उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रही थी। अशोक ने
कहा , “वो शायद नहीं है , मैं आते समय उसके होटल में पूछकर आता हूँ। ”
मैं चुप रही !
संध्या को अशोक ने कहा, “उसके होटल में पता चला कि
वो नहीं आ रहा है , किसी को पता नहीं कि वो कहाँ है । वो शायद किसी और होटल में काम पर लग गया है । ”
मैं चुपचाप थी , सोच रही थी कि शायद मेरी ही वजह
से वो चला गया है , मुझे अच्छा नहीं लग रहा था पर एक तरह से ये ठीक ही हुआ था । वो
सामने रहता था तो मुझे विवेक की याद आती थी इससे मेरा जीना और भी मुश्किल हो जाता था ।
पता नहीं क्यों मैं बहुत चुप सी हो गयी थी । अशोक
कई बार मुझसे पूछते , मैं कुछ न कहती।
मेरा मन कहीं भी नही लगता था। कई बार मैं खुद को ही परायी समझती ।
रात को अचानक प्रिया का फ़ोन आया, उसने मेरा हाल
पुछा तो मैं रो दी । मैंने उसे एक बार घर
आने को कहा , वो मुझे बहुत अच्छे से समझती थी , उसने कहा , अगले हफ्ते वो आ जायेगी
। उसने बहुत पूछा , लेकिन मैंने उसे कुछ नही बताया । मैं उससे बातें करते करते रो पड़ी थी । शादी
के बाद ये पहली बार था , उसने मुझे बहुत उदास और गंभीर पाया । उसने कहा कि वो अगले
हफ्ते जरुर पहुचेगी ।
मैंने अशोक को रात में बताया कि प्रिया आ रही है अगले
हफ्ते, , क्या मैं उसके साथ उसके घर जा
सकती हूँ, अशोक ने गहरी नज़र से मुझे देखते हुये हामी भर दी । उन्होंने फिर पूछा , “क्या बात है , अगर तुम मुझे बता सको तो मैं तुम्हारी मदद कर दूं। ” मैंने कुछ नहीं कहा । बस खामोश ही रही । मुझे ख़ामोशी अच्छी लगने लगी थी ।
::: आने वाले कल की गूँज :::
दुसरे दिन सुबह सुबह कॉल बेल बजी , मैंने दरवाजा खोला तो सामने शुभांकर खड़ा था । उदास
, थका हुआ और दाढ़ी बेतरतीब बढी हुई । मुझे देखकर उसके आंसू आ गये , मैंने उसका हाथ पकड़कर भीतर बुला लिया और
पूछने लगी , “क्या हुआ बोलो तो, कहाँ चले गये थे? ” बहुत से सवाल मैंने पूछे , उसे बिठाया और पानी
लाने के लिये मुड़ी , देखा तो अशोक बेडरूम के दरवाजे पर खड़े थे और मुझे देख रहे थे,
उन्होंने वहीं से पुछा, “क्या हुआ । मैंने सकपका कर कहा
, “जी , शुभांकर आये हुये है , कुछ हालत ठीक नहीं है । ”
अशोक आये और शुभांकर को पूछा, “अरे भाई , क्या हो गया था , कहाँ चले गये थे और ये क्या हाल बना हुआ है ?”
शुभांकर ने कहा, “ बताता हूँ जी ; क्या आपके पास
छुट्टे है , ऑटो वाले को देना है , मैं उसी के लिये आया हूं। ”
अशोक ने कहा , “ हाँ भाई , बोलो कितना देना है । ”
शुभांकर ने कहा, “जी ७५ रुपये । ”
अशोक ने पैसे निकाले और शुभांकर को दिये और कहा
, “उसे पैसे देकर आओ और बताओ क्या हुआ। ”
मुझसे उन्होंने कहा, “सपना; सबके लिये चाय
बनाओ । ”
थोड़ी देर में शुभांकर अपने सामान के साथ घर में आया ।
मैंने चाय लाकर दी , उसने हम दोनों को बताया कि
उसकी माँ गुजर गयी थी , इसलिये वो चला गया था । और अब वो यहीं आ गया है , उसका और कोई
नहीं है । कुछ दूर के रिश्तेदार है , जिनसे अब कोई नाता
नहीं रहा ।
अशोक ने कहा, “ठीक है भाई , लेकिन जाते हुये ,
हमें बताना तो था। तुम अपना काम फिर से
शुरू कर दो। धीरे धीरे सारे दुःख खत्म हो
जाते है । ”
मैंने भी कहा, “हां सब ठीक हो जायेगा । ”
शुभांकर ने मेरी ओर गहरी नज़र से देखा और उठकर
अपने घर की ओर चल दिया ।
जब नाश्ता बना तो मैंने अशोक से कहा कि वो थोडा
सा नाश्ता शुभांकर को दे आये। अशोक ने कहा
कि उन्हें बैंक के लिये देर हो रही है , मैं ही दे आऊं ।
जब अशोक चले गये और शोभा घर का काम करके चली गयी
तो मैंने सोचा कि शुभांकर को देख मुझे जाने कैसा कैसा हो रहा था और उसी वक़्त गिटार
की धुन बजी तो मुझे एक दम से ख्याल आया कि शुभांकर को नाश्ता देना था। मैं धीरे धीरे उसके घर की ओर बढ़ी और जब दरवाजा
खटखटाया तो उसने धीरे से खोला और मुझे देख कर पूरा दरवाजा खोलकर भीतर की ओर चल
दिया , मैं थोडा हिचकी और आंठ्वी सीढ़ी को पार करके उसके घर में चली गयी ।
वो मुझे देख रहा था और मैं उसे। मैंने धीरे से उसे नाश्ता दिया और कहा, “खा लो। “
उसने कहा, “थोड़ी देर बैठिये न ”
मैंने ना में सर हिलाया और मुड गयी । दरवाजे के पास आकर रुकी और फिर मुड़कर उसे देखा तो वो मेरी ओर ही देख रहा था... उदास जैसा।
मुझे पता नहीं क्या हुआ, मैं मुड़ी और उसके पास
जाकर कहा , “अच्छा तुम खा लो, मैं बैठती हूँ। ”
उसने खाना शुरू किया और मैं चारो तरफ उसके घर को
देखती रही । गायकों और संगीतकारों के फोटो
से उसका कमरा भरा हुआ था। इतने दिन से घर
खुला नहीं था तो धुल से भरा हुआ था, मैंने बालकनी के दरवाजे खोल दिये और एक हवा का झोंका तेजी से भातर आया। और साथ में सड़क पार के कृष्ण मंदिर की धूप और अगरबत्तियों की खुशबु भी ले आया।
मैंने कहा, “ शुभांकर ,सुनो ,चलो मंदिर चलते है । ”
शुभांकर ने कहा, “हां चलो । ”
हम मंदिर में बहुत देर बैठे रहे। थोड़ी थोड़ी देर में उसकी आँखे आंसुओ से भर जाती
थी । मैंने उसका हाथ थामा , बड़े हौले से,
मैंने कहा, “माँ की याद आ रही है। ” उसने
धीरे से सहमती दी । मैंने कहा, “अब शांत हो जाओ और माँ जो चाहती थी उस सपने को पूरा करो। ”
वो धीरे धीरे शांत होता गया। शायद मंदिर का प्रभाव था। शायद मैंने जो उसका हाथ पकड़ कर रखा था उसका प्रभाव था। पर वो शांत हो गया । थोड़ी देर बाद जैसे मुझे अचानक ख्याल आया कि मैं तो
किसी की ब्याहता हूँ; मैंने उससे हाथ छुडाना चाहा । उसने और कस कर पकड़ लिया । मैंने धीरे से कहा, शुभांकर प्लीज । उसने धीरे से हाथ छोड़ा ।
मैं उठकर घर चली आई । वो भी मेरे पीछे ही था , जब मैं घर के भीतर
पहुंची तो वो भी साथ ही अन्दर आना चाहा , मुझे कुछ होने लगा । मैं दरवाजे पर रुक गयी , मैंने उससे कहा, “शुभांकर
तुम जाओ । मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा है, मैं थोडा आराम करुँगी । ”
उसने मुझे देखा और कहा, “हाँ , जैसा तुम कहो ,
अगर किसी बात की जरुरत हो तो मुझसे कह देना । मुझे अपना ही समझना । ”
मैंने सुना और जाना कि वो मुझे अब आप से तुम
कहने लगा था । वो आत्मीयता के सोपान की सीढी चढ़ रहा था !
विवेक भी मुझसे ऐसा ही कहता था। मैंने शुभांकर को देखा और उसका हाथ अपने हाथ में
लेते हुये कहा , “तुम आराम करो और शाम को अपने काम पर जाओ । ”
मैंने उसे सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ते हुये देखा और अपने
दरवाजे को बंद कर दिया । बहुत से विचार
मेरे मन में चल रहे थे। मुझे लग रहा था कि
विवेक के बदले में मैं शुभांकर से प्रेम करूँ। पर कभी अशोक का चेहरा सामने आ जाता था और कभी
खुद का ही और कभी विवेक का। इन्ही बातो के
झंझावत में मेरी आँख लग गयी ।
जब कालबेल बजी तो शाम हो चुकी थी , दरवाजा दौड़कर
खोला कि शायद शुभांकर होंगा, लेकिन सामने अशोक थे। उन्होंने मुझे देखा और पूछा , “क्या बात है आजकल बहुत सोती रहती हो? “
मैंने कहा, “शायद थकावट है । बस और कुछ नहीं । ” अशोक ने कहा ,“अगले हफ्ते तुम डॉक्टर को दिखा
आना । ”
रात को फिर वही सिगरेट और शराब की गंध , वही अशोक, वही गिटार , वही विवेक , वही
शुभांकर और टूटती हुई मैं ..............!
मैं और शुभांकर हर दिन मिलने लगे, मैं मन से
उसके करीब होती गयी , वो भी मुझे शायद पसंद करने लगा ; लेकिन कुछ कहता नहीं था, बस
हमेशा मेरा हाथ थामे रखता था, एक बार मैंने उसके काँधे पर सर को रख दिया था तो
उसने अपनी बांह से मुझे थाम लिया था और फिर तुरन्त ही हटा लिया था । वो और मैं
हमेशा एक लक्ष्मण रेखा के इर्द गिर्द भटकते रहते । कभी मैं अपने कदम पीछे ले लेती,
कभी वो अपने हाथ पीछे खींच लेता था ।
मुझे वो अच्छा लगने लगा था। मेरे लिये वही विवेक था, वही शुभांकर और वही
कृष्ण ।
अक्सर बनारस के घाट पर हम दोनों दोपहर में चले
जाते और नाव में बैठकर बहुत दूर की सैर कर आते । मुझे उस वक़्त लगता कि बस ये छोटी
सी नाव , हम दोनों को कहीं दूर लेकर चली जाये और वापस ही नहीं आये
! लेकिन वापस तो आना ही पड़ता था । ज़िन्दगी
की अजीब सी रीत थी ! ज़िन्दगी पता नहीं किस राह जा रही थी !!!
::: बीता हुआ कल , बीतता हुआ आज और आने वाले कल
की आहट ::
प्रिया आई , उसका छोटा बच्चा बहुत प्यारा था ,
मैं उसे गोद मे लेकर बैठी थी । प्रिया मेरे साथ बैठी थी और अशोक; प्रिया
के पति सुरेश के साथ बाहर गये थे कुछ सामान लाने के लिये।
प्रिया ने मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर पूछा, “अरी पगली , क्या बात है , क्यों गुमसुम है , तु भी एक बच्चा पैदा कर ले ,
मन लग जायेगा ,” कह कर हंसने लगी । उसके हाथ में पानी का गिलास था, वो बहुत जोरों से हंसती थी । मैंने उससे कहा “अरे , खांसी लग जायेगी रे। थोडा कम हंस। ” इतने में दरवाजे पर दस्तक हुई ,
मैंने कहा, “शोभा आई होंगी । “ मैंने जोर से कहा ,”दरवाजा खुला है , आ जाओ !“
दरवाजा खुला और सामने शुभांकर था , उसने मुझे
देखा और प्रिया को देखा और सॉरी कहा , कहने लगा थोडा ढूध चाहिये था । मैंने उसे फ़्रीज की ओर इशारा किया। उसे देखकर प्रिया के हाथ से पानी का गिलास गिर गिया था और
उसका मुहं खुला का खुला रह गया था । शुभांकर चला गया और अपने पीछे एक लम्बी ख़ामोशी
छोड़ गया ।
बहुत देर के बाद प्रिया ने कहा, “ विवेक .......।
ऐसे कैसे हो सकता है । ”
मैं चुप रही । प्रिया ने बहुत देर की ख़ामोशी के
बाद कहा , “तो ये है तुम्हारी परेशानी और ख़ामोशी का कारण “
मैंने सर हिला दिया । प्रिया बहुत देर तक चुप रही , हम दोनों के पति
वापस आ गये थे।
रात को ये दोनों खाने पीने में लग गये थे और हम
दोनों बालकनी में बैठकर कृष्ण मंदिर को देख रहे थे और ऊपर से आती हुई गिटार की
धुनों को सुन रहे थे।
प्रिया ने कहा, “क्या कहूँ ; कुछ समझ नहीं आ रहा
है । ”
मैं कहा, “बस यही सब में उलझी हुई हूँ इसलिये
तुझे बुला लिया था। ”
प्रिया ने कहा , “मैं समझ सकती हूँ , तेरी जगह
कोई भी होता तो उसकी भी यही हालत होती । बाय
गॉड , ये कितना मैच करता है विवेक से !”
रात अब चारो तरफ एक ख़ामोशी को लिये हुई थी।
प्रिया ने धीरे से पुछा , “ अरी पगली , कहीं
तुझे इससे प्यार तो नहीं हो गया , कहीं , विवेक के अधूरे प्रेम को इसमें तो नहीं ढूंढ रही? ,”
मैंने धीरे से सर हिलाया , प्रिया ने एक लम्बी
और गहरी सांस ली और कहा, “तू आग से खेल रही है । तू जानती है, अशोक का स्वभाव !”
फिर उसने पुछा, “और वो ; शुभांकर? क्या वो भी ?”
मैंने कहा, “मुझे पता नहीं , लेकिन वो शायद मुझे
पसंद करता है । मैं अक्सर उसके पास बैठती
हूँ और वो मेरे हाथ को अपने हाथ में थामकर बैठे रहता है , चुप रहता है , घंटो .......।
“
प्रिया ने सर हिलाया , “ सपना ! तू आग से खेल
रही है , तू चाहती क्या है “
मैंने कहा, “ मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है , मैं
क्या करूँ , मुझे अशोक से प्रेम नहीं है , बस जी रही हूँ , क्योंकि घर वालों ने शादी कर दी है , मुझमें और अशोक
में कोई समानता नहीं है । फिर भी मैंने
अपने आपको विवेक की यादो के साथ दफ़न कर दिया था
और एक बेमज़ा ज़िन्दगी को जी ही रही थी या यूँ कहो कि ढो रही थी कि ये शुभांकर
ज़िन्दगी में आ गया । अब मैं क्या करूँ ? ”
मैं रोने लगी ।
प्रिया ने मेरा हाथ अपने हाथ में थामते हुये
कहा, “देख सपना , तू मेरी सबसे अच्छी सहेली है । और मैं सच ही तेरा भला चाहती हूँ। क्योंकि मैंने तुझे विवेक से जुड़कर खुशियों को
जीते हुये, फिर उसके गुजरने के बाद टूट
टूट कर मरते हुये और फिर अशोक के साथ एक बेमज़ा ज़िन्दगी को जीते हुये देखा है , फिर
भी मैं यही कहूँगी कि तू शुभांकर से मत जुड़ , आगे तेरी मर्ज़ी । ”
मैंने बिफर कर कहा , “तो क्या करूँ पूरी ज़िन्दगी
एक लाश की तरह गुजार दूं? क्या मेरी अपनी ज़िन्दगी का कोई अस्तित्व नहीं
होना चाहिये? मैंने आखिर भगवान से माँगा
ही क्या है? एक विवेक था , वो भी भगवान ने छीन लिया , कम से कम
उस loss को भगवान ने COMPENSATE तो करना चाहिये था । तो क्या हुआ, अशोक जैसे शराबी और नीरस पति को मेरी झोली में दे दिया ,जिसे सिर्फ एक औरत चाहिये जो कि
उसके घर को संवार कर रखे, उसके लिये खाना बनाये और उसे खुश रखे । मैं तंग आ गयी हूँ प्रिया दुसरे के लिये जीते हुये।
मैं अपने लिये जीना चाहती हूँ । ”
कहते कहते मेरी आँखों में आंसू आ गये और मैं फिर
रोने लगी ।
प्रिया ने मुझे अपने गले से लगा लिया और वो भी
रोने लगी । कुछ देर के बाद हम दोनों चुप
हो गये । देर रात हो चुकी थी , झींगुरो की
आवाजें आ रही थी ।
मैं चुप
थी । प्रिया ने कहा । अब सोते है , कल बात करेंगे ।
दुसरे दिन अशोक और सुरेश शहर में चले गये किसी
पुराने दोस्त से मिलने के लिये , मैं और प्रिया मेरे कमरे में बैठे थे।
प्रिया अपना सर पकड़ कर बैठी थी । उसने मुझसे
पुछा , “तो तूने सोचा क्या है सपना ?”
मैंने कहा , “सोचना क्या है प्रिया । बस बहुत हो
गया । मैं अशोक को छोड़ कर चली जाती हूँ। अशोक ने एक दिन कहा था, “जिस दिन तुम्हे ऐसा लगे कि तुम मेरे संग जी नहीं सकती हो , मुझसे कह देना , मैं आज़ाद कर दूंगा । तुम कहीं भी जा सकती हो ।“ हालांकि उसने ये बात पीकर ही कही थी । लेकिन मैं
अब उसके साथ नहीं रहना चाहती , मुझे एक ही ज़िन्दगी मिली है और मैं क्यों ना उसे अपनी
मर्ज़ी से जियूं ?”
प्रिया ने कहा , “पागल घर छोड़ने की बात मत कर,
अगर तू शुभांकर के साथ कुछ पल को जीना चाहती है तो जी ले। घर क्यों छोडती है !”
मैंने अवाक होकर कहा , “ प्रिया क्या कह रही है
तू, ये तो धोखा होगा, सरासर । ”
प्रिया ने कहा, “और जो तू करने जा रही है , अशोक
को छोड़कर क्या वो धोखा नहीं है ?”
मैंने कहा , “नहीं वो धोखा नहीं है , मैं उससे
अलग हो रही हूँ। ”
प्रिया ने अपना सर पकड़कर कहा, “देख सपना , मुझे
तो लगता है की तू इन सब में मत पड़ , अशोक के साथ जीना सीख ले , बस ! एक मोह के चक्कर में कहीं पूरी ज़िन्दगी न खराब हो
जाये । ”
मेरी तबियत इन सब बातो से और खराब हो रही थी । इतने में कॉलबेल बजी और प्रिया ने दरवाजा खोला।
सामने शुभांकर था।
प्रिया ने उसे भीतर बुलाया और कहा, “ देखो
शुभांकर , मैं तो तुम्हे ज्यादा जानती नहीं , लेकिन सपना की ज़िन्दगी में तुमने एक भूचाल ला दिया है, और वो मेरी सबसे अच्छी सहेली
है । ”
प्रिया उसे पता नहीं क्या क्या बोलती रही , मेरा
सर चकरा रहा था। शुभांकर चुपचाप खड़ा सुन
रहा था।
प्रिया ने कहा , “देख लो , वो तम्हारे साथ इस घर
को और अशोक को छोड़कर चले जाने की बात कर रही है । क्या तुम उसे एक बेहतर ज़िन्दगी देने का वादा करते हो ? बोलो ? नहीं
तो उसकी ज़िन्दगी से चले जाओ !”
मुझे एक जोर की उलटी आई ।
प्रिया ने मुझे संभाला। शुभांकर ने मुझे देखा और धीरे धीरे घर से चला
गया।
मैंने प्रिया को कहा, “तू क्यों ये सब बाते उससे
कह रही हो । ”
प्रिया ने कहा, “तू ठहर , इस बात को एक मुकाम पर पहुंचाना ही होगा । निर्णय तुमको और शुभांकर को ही लेना है !”
हम इसी बहस में थे कि अशोक और
सुरेश घर आ गये. सुरेश ने कहा , “प्रिया
हमें जल्दी से चलना होगा , घर से फ़ोन आया है ; माँ की तबियत ठीक नहीं है ,”
प्रिया और सुरेश चले गये , मैं नहीं गयी , मैं
जाना चाहती थी , पर मेरा मन अब शुभांकर में लगा हुआ था। अशोक ने कहा भी, पर मैंने तबियत के खराब होने का
बहाना कर दिया !
प्रिया ने जाते जाते मुझसे कहा , “जो भी कदम उठावो वह बहुत ही सोच समझकर उठाना और आज की नहीं , आज से दस साल बाद के वक़्त के बारे में सोचकर उठाना । बस इतना ही कहना था तुझसे। और मुझे बताना जरुर। अपनी तबियत का ख्याल रखना । ”
प्रिया चली गयी और मेरे दिल दिमाग में एक उथल
पुथल छोड़ गयी ।
अशोक ने उन्हें रेलवे स्टेशन छोड़ा और घर आकर
अपना पीना खाना कर के सो गये ।
मैं जागती रही ।
रात गुजरती रही , झींगुर अपनी कर्कश आवाजों को बिखेरते रहे । ऊपर
की मंजिल से गिटार की कोई आवाज नहीं आई । कृष्ण मंदिर की घंटियाँ और जलते बुझते दिये
आज कुछ ज्यादा ही हलचल मेरे मन में मचाये हुये थे !
मैंने एक सूने इन्तजार में सारी रात जागकर काटी ।
::: बीतते हुए वक़्त के साए और आने वाले कल की गूँज :::
दुसरे दिन अशोक ऑफिस जाते जाते मुझे कह गये , “तुम्हारा
चेहरा पीला सा लग रहा है । शाम को डॉक्टर
के पास चलते है । अपना ख्याल रखना । ”
मैंने सर हामी में हिला दिया , मुझे कुछ समझ
नहीं आ रहा था , मैंने मंदिर जाने का फैसला किया ।
मंदिर में गयी तो वहां हमेशा की तरह शान्ति मिलने
लगी । अशोक, विवेक , शुभंकर, प्रिया,
दुनिया सब कुछ पीछे छुटने लगे। मैं बहुत
देर तक बैठी रही ।
फिर तबियत कुछ खराब सी लगने लगी तो उठकर घर चली
आई , जब मैं अपने घर का दरवाजा खोल रही थी तो ऊपर के घर का दरवाजा खुला ,शुभांकर
ने बाहर कदम रखा, मुझे देखा और कहा, “रुकना , मैं आ रहा हूँ तुमसे कुछ बात करना थी
। ”
मैं रुक गयी । मेरे हाथ में दरवाजे का ताला रह गया , जैसे पूछ रहा हो कि
क्या करे,
शुभांकर आंठ्वी सीढ़ी पर खड़ा होकर मुझे देखता रहा
, उसके हाथ में उसका गिटार था।
वो एक-एक करके सीढ़ी उतरकर मेरे करीब आया ।
मैंने उसे अपने गले से लगा लिया और जोरो से जकड़
लिया । उसने धीरे से अपने हाथो से मुझे अपनी बांहों में समेट लिया और धीरे से कहा, “ भीतर चलें , हम दरवाजे पर खड़े है ।”
मैंने कहा, “ शुभांकर ; मुझे उस दरवाजे के भीतर
नहीं जाना है , चलो , मुझे कही और ले चलो। ” उसने
धीरे से कहा, “एक बार बात तो कर लेते हैं फिर जैसा तुम कहो । ”
मैंने बड़े ही अनमने मन से अपने घर का दरवाजा
खोला , वो भीतर आया , और सोफे पर बैठ गया । मैं उसके बगल में बैठने लगी तो उसने कहा , “मेरे
सामने बैठो , मैं तुम्हे अपने गिटार से अपनी मनपसंद धुनें सुनाना चाहता हूँ । “
मैंने कुछ नहीं कहा , मैं उसके सामने बैठ गयी ।
उसने गिटार बजाना शुरु किया ।
पहले उसने “होटल कैलिफ़ोर्निया” बजाया ।
फिर “come september ” बजाया ।
फिर “नीले नीले अम्बर पर चाँद जब आ जाये ”
सब मेरे मनपसंद गीत थे, विवेक खूब बजाता था मेरे
लिये , मैं शुभांकर से टिक कर बैठ गयी और सुनने लगी ।
फिर उसने “चाँद मेरा दिल” बजाया !
फिर उसने “careless whisper “ बजाया !
फिर उसने “ wish you were here “ बजाया !
फिर उसने मुझे देखते हुए “शोले का लव थीम” बजाया
!
फिर उसने “love theme from godfather” बजाया .
उसे सुनकर मेरी आँखों में आंसू आ गए, हमेशा ही
इस धुन को सुनकर मेरी आँखे भीग जाती थी . क्या धुन थी ........!
फिर उसने “तुमसे मिलकर ऐसा लगा” बजाया .
मुझे रोना आ गया ! फिर वो मेरे पास आकर बैठ गया
!
मेरा सर उठा कर उसने कहा, “रोना नहीं है सपना
बल्कि जीना है । एक बेहतर ज़िन्दगी । “
मैंने कहा ,” शुभांकर मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है
, मन कहता है , तुम्हारे साथ कहीं चली जाऊं।“
शुभांकर ने कहा, “उससे क्या होगा सपना”
मैंने कहा, “ पता नहीं , लेकिन मैं अपनी ज़िन्दगी
जीना चाहती हूँ। तुम्हारे साथ ।“
शुभांकर ने कहा “ सपना ..........!!!”
मैंने कहा, “ मैं तुमसे प्रेम करने लगी हूँ शुभांकर
!”
शुभांकर ने कहा, “ मैं उस प्रेम का स्वागत करता
हूँ सपना ! लेकिन क्या तुम मुझसे प्रेम करती हो या फिर विवेक की छवि से !”
मुझे एक झटका सा लगा। मैंने धीरे से कहा , “ये तुम क्या कह रहे हो शुभांकर
?”
उसने धीरे से कहा, “ वही तो , तुम मुझमे विवेक
को देखती हो, और उसी की छाया को प्रेम करती हो, और तुम उसके द्वारा जिये गये अधूरे
प्रेम को मेरे द्वारा पूर्ण करना चाहती हो।
चलो माना ये भी ठीक है , प्रेम को एक ट्रिगर
चाहिये होता है , लेकिन तुम्हारे इस प्रेम में सिर्फ मेरे लिये ही तुम्हारा प्रेम
नहीं है बल्कि विवेक के लिये बचा हुआ प्रेम
भी मुझसे किया जा रहा है । एक्चुअली तुम
विवेक के लिये इतनी ओब्सेस्सेड हो कि मुझमें उसकी कुछ समानाताओ को देखते ही तुमने
सायकोलाजिकाली मुझमें विवेक को स्थापित कर दिया और इस
इल्यूजन को एक हकीक़त का रूप दे दिया है । तुम्हारे लिए ये गलत भी नहीं है । तुमने
मुझमे विवेक की कुछ बातों को देखा
और दूसरी सारी बातें अपने आप जुडती गयी । और अब सच ये है कि हम दोनों ही एक दुसरे से प्रेम करते है। चाहे तुम्हारे लिये कारण कोई भी हो !”
शुभंकर थोड़ी देर के लिये रुका , उसने मेरी ओर
देखा , मैं उसे ही देख रही थी ।
उसने आगे कहा , “मेरे लिये तुमसे प्रेम करने के
अनेक कारण हो सकते है , जिनमे से एक है कि हम दोनों की खूब बाते मिलती है , एक ही
वेवलेंथ पर हमारे विचार है , हमारे विचार, व्यवहार इत्यादि मिलते हैं । और फिर मैं तुम्हे पसंद
भी करता हूँ। मेरे लिये तुम सिर्फ एक स्त्री हो , जिससे मैं प्रेम करता हूँ, तुम
शादीशुदा हो या नहीं , इस बात से मेरे प्रेम को कोई फर्क नहीं पड़ता है । ”
मैं खामोश रही ।
शुभांकर ने फिर मेरे चेहरे को अपने हाथों में लेकर कहा, “मैं पता
नहीं तुमसे इतना प्रेम क्यों करने लगा हूँ. जिस तरह से तुम मुझमे विवेक को देखती
हो, मैं भी तुममे किसी भी स्त्री के सारे रूपों को देखता हूँ. तुम्हारी ख़ामोशी
मुझे बहुत पसंद है . पता नही कोई तुम्हारी खामोशी को सुन समझ पाता भी होगा या नहीं
, पर मैं तो उस ख़ामोशी में मौजूद शब्दों को और शब्दों की गूँज को खूब सुनता हूँ और
यही मेरा अपूर्व प्रेम है तुम्हारे लिए !”
मैंने धीरे से उसके हाथो को अपने होंठो से छू लिया !
शुभांकर ने आगे कहा, “देखो , ये भी हो सकता था कि
मेरी जगह कोई और होता तो वो सिर्फ तुम्हारे शरीर से ही प्रेम करता और फिर तुम्हे भोगकर
चला जाता । ”
मैं काँप गयी , मैंने धीरे से उसका हाथ पकड़कर
कहा , “लेकिन तुम तो ऐसे नहीं हो , मैं जानती हूँ। हाँ मेरे इस प्रेम में तुम्हे मेरा शरीर चाहिये
तो वो भी तुम्हे समर्पित है ।”
शुभांकर ने मुझे अपने गले से लगाकर कहा, “ बस तुम्हारी
यही सीधी -साधी बाते मन को भाती हैं , लेकिन एक सवाल का जवाब दो , सोचकर जवाब देना
!”
मैंने पुछा , “हाँ कहो !”
शुभांकर ने कहा, “ ये तो सोचो कि क्या हमारा ये
प्रेम इसी तरह से आने वाले दस- बीस साल
बाद भी रह जायेगा। जिस तरह से तुमने मुझमें विवेक को ढूँढा । हो सकता है कि दस –बीस साल बाद मैं किसी और में अपनी
सपना, तुम्हे; को ढूँढू !”
मैं खामोश रही। वो शायद सच ही कह रहा था।
मेरी आँखों से आंसू ढलक कर गिर पड़े।
उसने मेरी आँखे पोंछी और कहा, “देखो सपना ये सब बाते; मैं तुम्हे रुलाने के लिये नहीं कह रहा हूँ। बल्कि इसीलिये कह रहा हूँ कि अगर तुम मेरे साथ
कहीं जाने की बात करती हो तो क्या तुम भविष्य की इस संभावना से इनकार कर सकती हो?
भविष्य हम दोनों में से किसी ने नहीं देखा है । लेकिन जैसे आज हम दोनों एक दूजे के सामने बैठे
है , क्या इसी तरह से कल भी बैठे रहेंगे ? ज़िन्दगी सिर्फ एक प्रेम के सहारे ही
नहीं कटती है , दूसरी कई दुनियादारी की बाते है ,जिनसे ज़िन्दगी चलती है । भले ही फिर उस ज़िन्दगी में कोई स्वाद नहीं हो!”
मैं खामोश रही । मेरे सर में फिर दर्द शुरू हो
गया ।
शुभांकर ने मुझे देखा और फिर मुझे अपने गले से
लगा लिया , हम बुहत देर तक इसी तरह से बैठे रहे। उसने मेरे माथे पर धीरे से छुआ और कहा, “ सपना ,
तुम बहुत अच्छी हो , मैं तुम्हे बहुत प्रेम करने लगा हूँ पर मैं भविष्य से डरता हूँ और फिर मैं तुम्हे एक बात बताना चाहता था । मैं तुमसे भी डरने लगा हूँ।
तुम इतनी अच्छी हो कि कभी कभी मुझे लगता है कि मैं तुम्हारे
साथ कोई न्याय नहीं कर पाऊंगा !”
मैंने धीरे से कहा , “ मैं यहाँ नहीं रहना चाहती
। तुम ले चलो मुझे । मैं हर हाल में रह लूंगी “
शुभांकर ने कहा , “ ये ज़िन्दगी से भागना होगा
सपना और ज़िन्दगी से भागकर कोई भी कहीं भी नहीं पहुँच सकता है ”
हम दोनों बहुत देर तक खामोश बैठे रहे !
शुभांकर ने थोडा रुक कर कहा , “ मैं तुमसे कुछ
और भी कहना चाहूँगा ! देखो , मैंने जितना अशोक को देखा है और समझा है , वो आदमी
बुरा नहीं है । तुम बस उसे अपने यथार्थ में नहीं ढाल पा रही हो । ”
मैंने तड़पकर कर कहा, “ अशोक को मैंने कितना कहा कि
वो शराब छोड़ दे , सिगरेट छोड़ दे , लेकिन वो सुनते ही नहीं हैं । उन्हें मेरी कोई फ़िक्र ही नहीं है । मुझमे और उनमे कोई समानता नहीं है , उनकी अपनी
मर्ज़ी की ज़िन्दगी है । मेरे बारे में
उन्होंने कभी भी नहीं सोचा है ,बस हमेशा खुद की ख़ुशी ! मेरी ज़िन्दगी नरक बनी हुई
है । उनके लिए मेरा वजूद सिर्फ एक औरत का
ही है , उससे आगे कुछ भी नहीं ! मेरा मन कब का मर गया है !”
शुभांकर ने कहा, “ नहीं ऐसी बात नहीं है, सपना ।
हर बात का एक वक़्त होता है । समय को आने
दो , सब ठीक हो जायेगा , अभी उस पर बहुत सी जिम्मेदारियां नहीं है , इसलिये वो एक मुक्तता का जीवन जी रहा है । शराब और सिगरेट से या किसी और तरह के खाने पीने
से या फिर किसी और तरह के व्यवहार से एक इंसान के चरित्र को नहीं सिद्ध नहीं किया जा सकता है । आज तुम्हे
अशोक अच्छा नहीं लग रहा है , हो सकता है कल किसी और कारण से मैं अच्छा नहीं लगूंगा
, जीवन में कभी भी किसी को भी परफेक्ट
इंसान नहीं मिलता है ।
मैंने कहा, “तो क्या पूरी ज़िन्दगी ; मैं सिर्फ एडजस्टमेंट
और सैक्रिफाइस ही करती रहूँ ?”
शुभांकर ने कहा, “नहीं । ज़िन्दगी जीने का एक मकसद ढूंढो । मैं तुम्हे अपनी कहानी बतलाता हूँ। जैसे हर किसी का एक अतीत होता है , वैसे ही मेरा
भी एक अतीत है । मैं जिस लड़की से प्रेम करता था , वो मुझे छोड़कर
किसी और के साथ शादी कर के कहीं चली गयी , लेकिन मैंने उसके लिये अपने आपको
ख़त्म नहीं किया है , मैंने उसके प्रेम को मेरे संगीत में बदल दिया और आज संगीत ही
मेरे लिये सबकुछ है ।“
शुभांकर ने एक लम्बी सांस ली और कहा, “अशोक के
आगे ज़िन्दगी ख़त्म नहीं है । ज़िन्दगी से
जीना सीखो , तुम फिर से कविता लिखो , अपने आपको कविताओ में ढाल दो । देखो , ज़िन्दगी से तुम्हे प्यार हो जायेगा। मैं जानता हूँ ,मेरी बाते आज तुम्हे अच्छी नहीं लग रही होंगी । पर ये ही एक बेहतर रास्ता है । इसी से और इन्ही
बातो में ही तुम्हे निर्वाण मिलेंगा !”
मैं चुप रही । उसकी बाते बहुत अच्छी थी , मेरे मन
के आन्दोलन को सकून दे रही थी ।
शुभांकर ने आगे कहा, “ प्रेम का कैनवास बहुत बड़ा होता है । उसे जीना आना चाहिये । न कि ज़िन्दगी में उसकी कमी से भागना । यही सच्चा प्रेम है और इसी को ईश्वरीय प्रेम
कहते है सपना ; और मैं चाहता हूँ कि तुम जीना सीखो ! अगर तुम मुझसे प्रेम करती हो
तो उस प्रेम के लिए जीना सीखो !”
मैं खामोश रही ।
उसने फिर मुझसे कहा , “ तुम्हारे लिये मेरा
निस्वार्थ प्रेम हमेशा रहेंगा सपना , चाहे मैं दुनिया के किसी भी कोने में रहूँ या
नहीं रहू। “
मैं चौंकी, मैंने पुछा, “ये क्या बात हुई शुभांकर , ऐसा न कहो , मेरी उम्र तुम्हे लग जाये
!”
शुभंकर ने मेरा हाथ थामकर कहा, “ मैं आज यहाँ से
जा रहा हूँ सपना , हमेशा के लिये !”
मुझे जैसे एक शॉक लगा ,” कहाँ जा रहे हो तुम ,
प्लीज मत जाओ ; ज़िन्दगी ने बहुत देर के बाद
तो मुझे कुछ दिया है । ”
मैं रोने लगी ।
शुभांकर ने कहा , “ देखो सपना कई बाते है , जिसके
कारण मुझे यहाँ से जाना होगा ! एक तो तुम ही हो , अगर मैं यहाँ रहूँ तो हो सकता है
कि हम दोनों कभी बहक जाये और फिर वो हम दोनों के लिये पॉइंट ऑफ़ नो रिटर्न हो जाये ।
इसके पहले कि ऐसी कोई बात हो , मैं यहाँ से चला जाना चाहता हूँ। तुम्हे कुछ दिनों का दुःख होगा , लेकिन फिर
ज़िन्दगी अपने आप संभल जायेंगी। दूसरी बात
ये है कि मुझे एक म्यूजिक अल्बम बनाने का
ऑफर आया है । ये मेरा एक सपना था । और मैं इसे जरुर बनाऊंगा । और हाँ , मैंने इस
अल्बम का नाम भी ‘सपना’ ही रखा है ये मेरा पहला अल्बम होगा और तुम्हारे नाम के
सहारे मैं इसे हमेशा ही जीते रहूँगा ! इसके लिये मुझे मुंबई जाना पड़ेगा । वैसे भी मैं एक बंजारा हूँ, आज यहाँ तो कल कहाँ ।
और एक तीसरी बात जो मैंने माँ को भी नहीं बतायी थी । तुम्हे बता रहा हूँ। मुझे बहुत ज्यादा स्मोकिंग के कारण chronic
Bronchitis बिमारी हो चुकी है । शुरुवाती स्टेज है , लेकिन
मौत तय है । खैर मरना तो सभी को है पर मैं नहीं चाहता कि जो मुझसे जुड़े वो मुझे मर-मर
कर मरते हुए देखे. और ये भी एक कारण है कि मैं किसी को अपनी राह का साथी नहीं बना
सकता हूँ या यूँ कहो कि नहीं बनाना चाहता हूँ ! ”
मैं फफक फफक कर रो पड़ी , हे भगवान और कितना दुःख
देगा मुझे?
उसने मेरे सर पर हाथ रखा और कहा , “मैं रहूँ या
न रहूँ मेरा प्यार हमेशा तुम्हारे साथ रहेगा। इसलिये
कम से कम मेरे लिये , अपने विवेक के लिये जीना सीखो ! यही हम सबके लिये , हमारे
प्रेम के लिये सच्ची साधना होगी !”
मेरे सर में दर्द बहुत बढ़ गया था। मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था, ऐसा लग रहा
था कि सारी दुनिया का दुःख सिर्फ मेरे हिस्से में ही आये है ।
अचानक ही मेरी तबियत बहुत खराब हो गयी , मुझे
जोरों से उलटी आई । मैं निढाल होकर शुभांकर की बांहों में झूल गयी । पता नहीं कैसा कैसा
लग रहा था। शुभांकर की बातो ने मेरे मन
में आमूल परिवर्तन ला दिया था। मैंने मन
ही मन उसे प्रणाम किया , क्या इंसान था। और
कौन कहता है कि दुनिया से अच्छे लोग ख़त्म हो चले है । वो चाहे तो मेरा फायदा ले सकता था। पर नहीं ,
उसने मुझे एक दिशा दी।
शुभांकर कह रहा था, “सपना तुम्हारी तबियत ठीक
नहीं है । मैं तुम्हे डॉक्टर के पास ले जाता हूँ। अशोक का नंबर देना जरा।“ मैंने उसे बताया , उसने अशोक को फ़ोन किया और
जल्दी से बुलाया । कॉलोनी में ही एक छोटा सा हॉस्पिटल था , अशोक ने वही ले जाने की
सलाह दी।
शुभांकर नीचे ग्राउंड फ्लोर पर रहने वाली आंटी को बुला लाया था. उसने सामने सड़क से एक ऑटो को भी बुला लिया था , हम सब हॉस्पिटल पहुंचे , जब तक मेरी चेकअप की बारी आती , अशोक भी दौड़ता
भागता हुआ वहां चला आया ।
डॉक्टर ने मेरी जांच की और मेरी तरफ़ मुस्कराते हुये मेरी ज़िन्दगी की सबसे
बड़ी खुशखबरी सुनाई ।
मैं माँ बनने वाली थी ।
अशोक तो ये सुनते ही नाचने लगे । जोर जोर से चिल्लाकर कहने लगे “अरे मैं बाप बन गया.....
मैं बाप बन गया” उनकी ख़ुशी और उत्साह देखते ही बनता था । डॉक्टर ने कहा , अरे अशोक अभी बाप बनने में करीब
७-८ महीने और लगेंगे... । थोडा सबर रख। ये सुनकर सब हंस पड़े और
अशोक शर्मा से गये , मेरे पास आकर उन्होंने कहा, सपना , “तुमने मुझे मेरी ज़िन्दगी
की सबसे बड़ी ख़ुशी दी है । मैं तुम्हारा शुक्रिया करता हूँ, आज से शराब सिगरेट सब
बंद !”
मैं आज ये एक नये ही अशोक को देख रही थी।
मैंने मन ही मन ईश्वर को धन्यवाद दिया कि उसने
मुझे जीने के लिये एक मकसद दिया और मैं एक नये जीवन के सपने में अपने आपको पिरोने
लगी।
मैंने देखा, शुभांकर दूर से ही मुझे हाथ हिलाकर
विदा ले रहा था। हमेशा के लिये । मेरी आँखे भीग गयी !!! लेकिन ,उसने मुझे जो ज़िन्दगी भर के लिये आधार और
सार दिया था, वो हमेशा ही मेरे साथ रहने वाला था।
अशोक मुझसे पूछ रहा था , “ सपना लड़की हुई तो
क्या नाम रखेंगे ?”
मैंने धीरे से सोचकर कहा “ शुभांगी ” मैं
शुभांकर को खुद से दूर जाते हुये देख रही थी ।
“और लड़का हुआ तो ?” अशोक ने पुछा।
मैंने एक गहरी सांस ली और कहा , “विवेक !”
और आने वाले दिनों की खुशियों की आहट और गूँज मेरे
मन पर दस्तक देने लगी !!!
© चित्र और कहानी : विजयकुमार
आदरणीय गुरुजनों और मित्रो ;
ReplyDeleteनमस्कार ;
मेरी नयी प्रेम कहानी " आंठ्वी सीढी " आप सभी को सौंप रहा हूँ ।
दोस्तों , ये हम जैसे सामान्य इंसानों की एक असाधारण प्रेम कथा है . कहानी का ताना बाना , जैसे हम लोगो के हर दिन का एक हिस्सा सा है . मुझे यकीन है कि हम में से बहुत से पाठको को ये कथा अपनी सी लगेंगी . मैंने पूरी कहानी को एक वृहद कैनवास पर cinematic visualisation के साथ लिखा है . कहानी frame by frame चलती है. ये दूसरी कथा है , जिसे मैंने इसी visual ट्रीटमेंट के साथ लिखा है , इसके पहले “आबार एशो” लिखी थी . मुझे विश्वास है कि आपको ये कथा भी जरुर अच्छी लगेंगी .
कहानी में गिटार से संबधित सारे गाने मेरे प्रिय गाने है , और मैं इन्हें खूब सुनता हूँ. आपको बताना चाहूँगा कि संगीत मेरा जीवन का एक अहम् हिस्सा है ! गिटार के कार्ड्स , वायलिन की धुन, बांसुरी की तान , पियानो की सरगम और ड्रम के साउंडस , और भी ढेर सारे म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट्स , मुझे हमेशा ही किसी दूसरी दुनिया में ले जाते है !
शुभांकर और विवेक दोनों ही मेरे काउंटर ज़ेरॉक्स चरित्र है . मैं कुछ कुछ विवेक जैसा हूँ और कुछ कुछ शुभांकर जैसा . सपना की ख़ामोशी भी मेरी आइडेंटिटी का एक हिस्सा है .
मेरे पास कहानी के तीन versions थे, पहला ये कि विवेक और सपना सामाजिक कारणों से अलग हो जाते है और फिर शुभांकर जीवन में आता है . दूसरा ये कि विवेक कहीं खो जाता है और वही फिर से शुभांकर के रूप में वापस आता है ये देखने के लिए कि सपना किन हालातो में है, और तीसरा वर्शन तो आपके सामने ही है . पहले मैंने सोचा था कि विवेक को ही दुबारा जीवित कर दूं, लेकिन तब वो सपना से अपने प्रेम के कारण ; शुभांकर के चरित्र की उन ऊँचाईयों को नही छु पाता , जिनके कारण ही शुभांकर सही अर्थो में इस कथा का असली नायक बन गया है . पर जो भी हो , आप सभी अपने अपने जीवन को इससे जोड़ सकते है. प्रेम तो हम सभी के जीवन में एक अहम् हिस्सा होता है. और कोई न कोई सपना या विवेक या शुभांकर हमारी जीवन गाथा का एक हिस्सा तो बनता ही है .
कहानी का plot / thought हमेशा की तरह 5 मिनट में ही बन गया । कहानी लिखने में करीब ३०-५० दिन लगे | इस बार कहानी के thought से लेकर execution तक का समय करीब ३ महीने का था. हमेशा की तरह अगर कोई कमी रह गयी तो मुझे क्षमा करे और मुझे सूचित करे. मैं सुधार कर लूँगा.
दोस्तों ; कहानी कैसी लगी, बताईयेगा ! आपको जरुर पसंद आई होंगी । कृपया अपने भावपूर्ण कमेंट से इस कथा के बारे में लिखिए और मेरा हौसला बढाए । कोई गलती हो तो , मुझे जरुर बताये. कृपया अपनी बहुमूल्य राय दिजियेंगा . आपकी राय मुझे हमेशा कुछ नया लिखने की प्रेरणा देती है . और आपकी राय निश्चिंत ही मेरे लिए अमूल्य निधि है.
आपका बहुत धन्यवाद.
आपका अपना
विजय
+91 9849746500
vksappatti@gmail.com
आदरणीय विजय जी, पहेली ही रीडिंग में कहानी मन को छू गयी. बिलकुल फ्रेम दर फ्रेम .... आँखों के सामने ही गिटार बजता रहा ... बेशक मैंने कभी गिटार नहीं सुना... रुआब भी नहीं ... पर सुनने की कोशिश रहती है.
Deleteउसके बाद आप की टीप.... यानी लेखक का स्वीकरण .
आपने तीन विकल्पं के बारे में कहा. पता नहीं, लेकिन मुझे लग रहा है कहानी को मज़बूरी से पूर्णता की और पहुँचाया गया - और पूर्णत: भी देवत्व वाली - जबकि समाज उस देवत्व को छोड़ कर आगे जा चूका है.. असली जिन्दगी में ऐसा नहीं होता. शुभंकर जैसे देवत्व प्राप्त नायक समाज में कम होते हैं. क्यों नहीं सपना के गर्भ में शुभंकर का बीज पल्वित होता ...और जीवन का बाकी समय वो उस 'देव्तत्व' बीज से प्राप्त विवेक को सवारने में लगती. (बेसिकली ऐसा ही होता है... भावना प्रधान नायिका हो या नायक देह समपर्ण में देर नहीं लगाते - समाज में सैकड़ों उदहारण हैं. पर कहानी हट कर होनी चाहिए - कथाकार की ये जिद्द रहती है ) या फिर ... क्यों नहीं वो बाकी का जीवन शुभांकर के साथ बिता देती.... हो सकता है सभ्य समाज को ये नागवार गुजरे ... पर इसी समाज में से ऐसी ही कहानियाँ मिलती हैं.
एक कलासिक लव स्टोरी को सलाम... विजय जी, आपकी लिखी पर ऐसी टीप देने की गुस्ताखी कर बैठा. माफ़ी मांगता हूँ - एक अनुभवी और बेहतरीन कहानीकार से.
जय राम जी की.
आदरणीय दीपक जी ,
Deleteआप माफ़ी मांगकर मुझे शर्मिंदा न करे.
दरअसल अगर हम आज अपने आसपास देखे तो ऐसी ही घटनाएं और कहानियो से समाज भरा पड़ा हुआ है , जिस तरह का आपने उल्लेख किया हुआ है .
पर मैं समाज को ये बतलाना चाहता था कि " प्रेम में देना महत्वपूर्ण है , न कि पाना " और शुभांकर उस बात पर खरा उतरता है .
और मित्र शुभांकर जैसे लोग होते है न .... !!! :) मैं हूँ न !
आपकी बहुमूल्य टिपण्णी का दिल से शुक्रिया !
आपका आभार
विजय
दिल को छू गयी कहानी का अंत भी काफ़ी विवेक से किया गया ……………एक उम्दा कहानी के लिये बधाई
ReplyDeleteवंदना आपकी बहुमूल्य टिपण्णी का दिल से शुक्रिया !
Deleteआपका आभार
विजय
i read the story....it is very nice...more or less i felt, m Sapna somewhre..
ReplyDeleteIndu , this is important that people get connected to the story . आपकी बहुमूल्य टिपण्णी का दिल से शुक्रिया !
Deleteआपका आभार
विजय
बहुत अच्छी कहानी.....
ReplyDeleteबधाई!!!
अनु
अनु , आपकी बहुमूल्य टिपण्णी का दिल से शुक्रिया !
Deleteआपका आभार
विजय
bahut badiya kahani ...
ReplyDeleteकविता , आपकी बहुमूल्य टिपण्णी का दिल से शुक्रिया !
Deleteआपका आभार
विजय
रोचक लग रही है, आराम से बैठकर पढ़ेंगे।
ReplyDeleteआपकी बहुमूल्य टिपण्णी का दिल से शुक्रिया ! प्रवीण जी बची हुई टिपण्णी का इन्तजार है .
Deleteआपका आभार
विजय
कहानी बहुत ही लाजवाब है, सारे रंग इसमें दिखाई दे रहे हैं. पुरूष और नारी की अंतर्वेदनाएं और मजबूरियां बखूबी अभिव्यक्त हुई हैं, कहानी दो तीन पेज पढ लेने के बाद अंत तक पढने पर मजबूर करती है और यही लेखक की ताकत है. बहुत शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
ताऊ जी , प्रणाम , आपका सहयोग , आशीर्वाद ही मेरे लिए सबसे बड़ी संपत्ति है .आप हमेशा इसी तरह से प्रेम और आशीर्वाद देते रहे .आपकी बहुमूल्य टिपण्णी का दिल से शुक्रिया !
Deleteआपका आभार
विजय
वाहवाह
ReplyDeleteआपकी इस उम्दा रचना को "हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच}" चर्चा अंक -२२ निविया के मन से में शामिल किया गया है कृपया अवलोकनार्थ पधारे
नीलिमा . आपकी बहुमूल्य टिपण्णी का दिल से शुक्रिया !
Deleteआपका आभार
विजय
बांध लिया है इस कहानी ने, अभी 10-12 पेज तक पहुंचा हूं। पूरा पढे बिना दूसरा कार्य नहीं होगा। फिर भी रुक कर टिप्पणी करना जरुरी समझा।
ReplyDeleteधन्यवाद देना चाहूंगा यह कहानी हमें पढवाने के लिये
बाकी बातें 30 पेज पूरे करने के बाद
प्रणाम
शुक्रिया सोहिल जी
Deleteकहानी का विवेकपूर्ण अंत अच्छा लगा. आखिर तक एक कौतुहल बना रहा कि विवेक और शुभांकर में इतनी समानता कैसे? विवेक से कुछ तो अलग होना चाहिए था शुभांकर में, या फिर विवेक की मृत्यु ही न हुई हो. शुभांकर विवेक ही हो जाने क्यों बार बार मन चाह रहा था. कहानी बहुत अच्छी लगी, बधाई.
ReplyDeleteशबनम जी , आपको कथा अच्छी लगी ,. ये मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है . आपकी बहुमूल्य टिपण्णी का दिल से शुक्रिया !
Deleteआपका आभार
विजय
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteराजेश जी ,आपकी बहुमूल्य टिपण्णी का दिल से शुक्रिया !
Deleteआपका आभार
विजय
एक अच्छी, सुंदर और मार्मिक कहानी. हार्दिक बधाई.
ReplyDeleteबस कहानी के ताने-बाने के थोड़ा और कसा जा सकता है- संकोच के साथ एक विनम्र सुझाव
उषा जी , आपने अपना बहुमूल्य समय दिया , मेरे लिए यही सच्ची कमाई है . और आपके सुझाव सर आँखों पर.
Deleteआपकी बहुमूल्य टिपण्णी का दिल से शुक्रिया !
आपका आभार
विजय
Bahut Lambi hai...thodi padh li...age weekend par padhte hain...flow bana hua hai.
ReplyDeleteसमीर जी , आपकी बची हुई टिपण्णी का इन्तजार है .आपकी बहुमूल्य टिपण्णी का दिल से शुक्रिया !
Deleteआपका आभार
विजय
bahut hee umda kahani padvaii hai aapne,badhai.
ReplyDeleteअशोक जी,. आपकी बहुमूल्य टिपण्णी का दिल से शुक्रिया !
Deleteआपका आभार
विजय
शुभांकर पर आखिर तक सस्पेंस बना रहा। आखिर में शुभाकंर को "वास्तविक हीरो" बल्कि ये कहूंगा कि "देवत्व" दर्शाना इस कहानी का सबसे जानदार हिस्सा लगा, मुझे तो
ReplyDeleteवाकई बहुत अच्छी लगी कहानी
"आबार एशो" तो मैनें पढी नहीं थी, लेकिन अब से आपकी लिखी सभी कहानियां और लेख पढने जरुरी हो जायेंगे, मेरे लिये :-)
आपकी लेखनी और भाषाशैली की तारीफ में इतना ही कह सकता हूं।
प्रणाम स्वीकार करें
अंतर सोहिल जी , आपने पढ़ा , मेरे लिए यही सच्चा मूल्य है . आपकी बहुमूल्य टिपण्णी का दिल से शुक्रिया !
Deleteआपका आभार
विजय
vijay ji
ReplyDeletekahani vakaee bahut umda hai . badhaee . nar - nari man ke manobhavon , antardwand ki manohari prastuti .. ek hi siting me poora padhne ko badhy karti rachna . shilp bhav uttam bhashaee star par thoda aur kas sakte the ...badhaee
शोभा जी , शुक्रिया , आपने इतने मन से पढ़ा है . यही मेरा मूल्य है . आपकी बहुमूल्य टिपण्णी का दिल से शुक्रिया !
Deleteआपका आभार
विजय
khani achchhi hai,bhut pasand aai prem ka sahi trah chtran kiya gya hai,lekhak ke lie shubh kmnaen..
ReplyDeleteaatmiyta ke sath sahyg karen ....http://gyaankaadaan.blospost.com
rajendra teotia.
राजेंद्र जी, आपको कथा पसंद आई . आपकी बहुमूल्य टिपण्णी का दिल से शुक्रिया !
Deleteआपका आभार
विजय
कहानी लम्बी अवश्य है पर कौतूहल बना रहता ।रोचक कहानी के लिए बधाई
ReplyDeleteसुदर्शन जी , आपकी बहुमूल्य टिपण्णी का दिल से शुक्रिया !
Deleteआपका आभार
विजय
हमेशा की तरह एक बेहतरीन कहानी .......थोड़ी वर्तनी की गलतियाँ है (पर चलता है )
ReplyDeleteबाकि सब कुछ बहुत अच्छे से सोच कर लिखा गया है
अंजू , गलतिया सुधार रहा हूँ धीरे धीरे ... कहानी पसंद आई . आपकी बहुमूल्य टिपण्णी का दिल से शुक्रिया !
Deleteआपका आभार
विजय
Comment by Email :
ReplyDeleteDear Sri Sappatti Ji
I read your realistic sentimental story. The story is great ( all three parts) that keeps the reader spell bound with the fluency of the story . A great story
Naredra agrawal
naredra ji , thanks for the soulful appreciation . GOD bless you . आपकी बहुमूल्य टिपण्णी का दिल से शुक्रिया !
Deleteआपका आभार
विजय
comment by email :
ReplyDeleteBadhai.......achchi kahani...................nirantar lekhan jari rakhe.
Anil dashottar
आशीष जी आपकी बहुमूल्य टिपण्णी का दिल से शुक्रिया !
Deleteआपका आभार
विजय
comment by email :
ReplyDeletegood story a wounderful tiwist in last when she become is pragnent
ginniarts
Dear Ginni arts, thanks for liking the story . आपकी बहुमूल्य टिपण्णी का दिल से शुक्रिया !
Deleteआपका आभार
विजय
comment by email :
ReplyDeleteप्रिय विजय जी,
अभी अभी आपकी आठवीं कहानी पढ़ी . कहानी ने शुरू से अंत तक बाँधा रखा. सबसे पहले आपको बधाई एक अच्छी कहानी लिखने के लिये.
Keep writing!
अर्चना पैन्यूली
अर्चना जी , आपको कथा पसंद आई . आपकी बहुमूल्य टिपण्णी का दिल से शुक्रिया !
Deleteआपका आभार
विजय
ek behad mermik aur ahsas bhari kahani..man ko chhu gayi ..bahut hi sundar
ReplyDeleteसखी , आपको कथा अच्छे लगी ,. यही मेरी सच्ची कमाई है जी .,. आपकी बहुमूल्य टिपण्णी का दिल से शुक्रिया !
Deleteआपका आभार
विजय
comment by email :
ReplyDeleteश्री विजय जी
एक उम्दा कहानी के लिए बहुत बहुत बधाई। एक बार पढ़ने बैठा तो अंत तक बिना
पढ़े रहा न गया। कहानी का अंत बहुत विवेकपूर्ण और हमारी संस्कृति एवं
सामाजिक मूल्यों के अनुरूप रहा। साधुवाद!
-अजय कुमार पाण्डेय
अजय जी , आपको कथा अच्छी लगी , अंत आपको पसंद आया . बस यही मेरी सच्ची कमाई है जी .,. आपकी बहुमूल्य टिपण्णी का दिल से शुक्रिया !
Deleteआपका आभार
विजय
बहुत भावनात्मक कथा जो मन को छू जा रही है -----!
ReplyDeleteसूबेदार जी . आपका दिल से शुक्रिया .
Deleteविजय
जब तक पूरी कहानी पढ़ न लो तब तक छोड़ने का मन नहीं करता !
ReplyDeleteएक बेहतरीन कहानी !
धन्यवाद विजय जी !
धीरेन्द्र जी ., दिल से आभार . शुक्रिया जी
Deleteविजय
उपन्यास के कैनवास पर एक रोचक लम्बी कहानी...एक सिटिंग में पूरी कहानी पढी और अभी तक इसके माहौल से बाहर नहीं आ पाया हूँ, ऐसे में समझ नहीं आता क्या लिखूं कहानी के बारे में..सभी चरित्रों का बहुत सुन्दर मनोवैज्ञानिक चित्रण..अशोक और सपना जैसे चरित्र अपने चारों और दिखाई दे जायेंगे...आज की पीढ़ी को शुभांकर का चरित्र शायद वास्तविकता से दूर एक आदर्श काल्पनिक चरित्र लगे, लेकिन आज भी हमारे बीच शुभांकर मौजूद हैं, चाहे उनकी गिनती बहुत कम हो. प्यार केवल पाना नहीं, बल्कि त्याग भी है.
ReplyDeleteबहुत प्रभावी कहानी जिसमें हरेक चरित्र बखूबी उभर कर आया है..बधाई एक बहुत सुन्दर और प्रभावी कहानी के लिए.
शुक्रिया कैलाश जी .
Deleteबस आप सभी के प्रेम और आशीर्वाद के कारण ही मैं कुछ लिख पाता हूँ .
आपका
विजय
बहुत प्रभावशाली प्रस्तुति .. आपकी इस उत्कृष्ट रचना की चर्चा कल 20/10/2013, रविवार ‘ब्लॉग प्रसारण’ http://blogprasaran.blogspot.in/ पर भी ... कृपया पधारें ..
ReplyDeleteशुक्रिया शालिनी जी .
Deleteबस आप सभी के प्रेम और आशीर्वाद के कारण ही मैं कुछ लिख पाता हूँ .
आपका
विजय
विजयकुमार जी काफी समय लगा कहानी को पड़ने में क्योकि कहानी की बारीकियों को समझना चाहता था - कहाँनी में कसाव है -पाठक को बांधे रखने की क्षमता है- एक के बाद एक घटना उत्सुकता पैदा करता है.और चलचित्र की भांति आँखों के सामने से गुजरता है | कहानी के अन्तिम पड़ाव में शुभंकर के माध्यम से जो साझदारी और समझौता की बाते सपना को समझाया है वह मेरे विचार धारा के एक सशक्त पहलु है | इसे कहानी ना कहकर लघु उपन्यास कह सकते है |हार्दिक बधाई |
ReplyDeleteनई पोस्ट महिषासुर बध (भाग तीन)
शुक्रिया कालीप्रसाद जी .
Deleteबस आप सभी के प्रेम और आशीर्वाद के कारण ही मैं कुछ लिख पाता हूँ .
आपका
विजय
Email comment :
ReplyDeleteभाई विजय जी,
इस कहानी का अंत आप ने मेरी तरह सोचने वाले पाठकों के मनोनुकुल रखा है.
आप की शैली पाठक को बांधे रखने वाली है.
लिखते रहें, यही कामना है.
सादर
कीर्ति राणा
शुक्रिया कीर्ति जी .
Deleteआपको कथा की गहराई अच्छी लगी .आभार आप सभी के प्रेम और आशीर्वाद के कारण ही मैं कुछ लिख पाता हूँ .
आपका
विजय
बहुत सुंदर ,और उम्दा अभिव्यक्ति...बधाई...
ReplyDeleteशुक्रिया प्रसन्न जी .
Deleteआपको कथा की गहराई अच्छी लगी .आभार आप सभी के प्रेम और आशीर्वाद के कारण ही मैं कुछ लिख पाता हूँ .
आपका
विजय
Please see my blog for reply www.essentiallyindian,blogspot.com
ReplyDeleteThank you so much usha ji.
Deleteyour comment is more than any reward to me .
Please keep reading my stories and correct me accordingly.
Thanks & Regards
Vijay
GOD bless you.
thanks
vijay
Comment by Usha priymvada ji :
ReplyDeleteVijayaji. I liked reading your story. Your main character is a little too bhavuk for my taste, but her sorrow and loss is legitimate. Looking forward to seeing more of your writing.
उषा जी , कई बरस पहले जब आपकी कहानी " पचपन खम्बे -लाल दीवारे " पढ़ी थी , मुझ पर एक पागलपन सा छा गया था और मैं सोचता था कि कभी अगर लिखू कुछ इस तरह से ही लिखू .
Deleteआपका प्रोत्साहन मेरे लिए अमूल्य है जी .,
दिल से आभारी हूँ .
विजय
usha priyamvada November 1, 2013 at 8:01 AM
DeleteAgar dil meN chaah hai to aisa hi hoga. Likhate rahiye. Aapka apna syle hai.
LIBRARY MEIN BAITHA HUN.SAMAY KAM THAA ISLIYE AAPKEE KAHANI KO
ReplyDeleteTEZ RAFTAAR SE PADH GYAA HUN . KAHANI VOH JO DIL KO BAANDHE RAKHE , AAPKEE KAHANI MEIN YAHEE VIVESHTA HAI . EK ACHCHHEE
KISSAA GOEE KE LIYE MAIN AAPKO BHARPOOR BADHAAEE DETAA HUN .
शुक्रिया प्राण साहेब, आप मेरे गुरुदेव है . आपका आशीर्वाद सदैव मेरे साथ है .
Deleteप्रणाम
बहुत ही सुंदर कहानी लिखी है, दिल को छू गई, आँखें नम हैं.
ReplyDeleteशुभकामनायें
शुक्रिया प्रीती जी . आपको कथा अच्छी लगी . शुक्रिया
DeleteComment by Email :
ReplyDeleteसादर नमस्कार आदरणीय,
i have some problem i blogging so plz accept my comment here.
सबसे पहले तो विलम्ब के लिए क्षमा चाहती हूं, कहानी पढने से पहले सोंच रही थी फुरसत में आनन्द लूंगी पर अब पश्चाताप हो रहा है कि इतनी देर क्यों की।
आपके 'उत्कृष्ट चरित्र' के चित्रण की तो मैं कायल हो गयी हूं। इस कहानी में अंत तक यही लगता रहा की शुभांकर विवेक ही होगा पर...
एक बात कहूँ आपने पुरूष व्यक्तित्व के विभिन्न आयामों को जितनी गहनता से प्रस्तुत किया है उतना महिला के नहीं, ऐसा मुझे सही लगा या...!
बड़ी ही टचिंग अभिव्यक्ति की है आपने,बहुत बधाई।
कल्पना की अपेक्षा यथार्थ की प्रधानता है।
कथा के title की प्रासंगिकता जानना चाहती हूं, मनन के लिए प्रेरित करता है।
चित्र तो देखते ही जान गई थी कि आपने ही draw किया है।
सादर बधाई फिर एक बार
शुभ शुभ
वन्दना
शुक्रिया वंदना जी .
Deleteआपको कथा की गहराई अच्छी लगी .आभार आप सभी के प्रेम और आशीर्वाद के कारण ही मैं कुछ लिख पाता हूँ .
आपका
विजय
आज, आाँठवी सीढ़ी पढ़ना ज्याें शुरू किया, फिर बिना रूके, इसे पूरा पढ़ने के बाद इतना ही कहूँगी ... कि मैं नि:शब्द हूँ आपके इस सशक्त लेखन पर, शुरू से अंत तक रोचकता के साथ सभी पात्रों के साथ आपने न्याय किया है, अच्छा लगा पढ़कर ... विलम्ब अवश्य हुआ जिसके लिये क्षमा चाहूँगी, इस उत्कृष्ट लेखन के लिये बधाई सहित अनंत शुभकामनाएँ
ReplyDeleteसादर
शुक्रिया सदा जी .
Deleteआपको कथा की गहराई अच्छी लगी .आभार आप सभी के प्रेम और आशीर्वाद के कारण ही मैं कुछ लिख पाता हूँ .
आपका
विजय
बहुत ही प्यारी कहानी
ReplyDeleteदिल से शुक्रिया प्रदीपिका जी
Deletebhut hi acchi khani h mari aakh bhar gei
ReplyDeleteदिल से शुक्रिया हनीफ जी
Deleteबढ़िया !
ReplyDeleteदिल से शुक्रिया सुशील जी
DeleteAti sundar aur bandhne wali bhavukta se bhari katha
ReplyDeleteदिल से शुक्रिया शोभा जी
Delete