आसक्ति से विरक्ति की ओर .....!
::: भाग एक ::::
श्रावस्ति नगर के निकट स्थित प्रकृति की सुन्दरता
से सजी जेतवन में सुबह की नर्म धूप की सजावट मौजूद थी । और ये धूप, वन में मौजूद पेड़ो से छन कर ; राह पर पड़े पत्तो पर गिरी हुई ओस की बूंदों पर बार बार अपने देवता सूर्य
के अद्भुत प्रकाश की झलक दिखा जाती थी ! और इसी सुन्दर प्रदेश
में स्थित बुद्ध विहार से महात्मा बुद्ध की धीर गंभीर स्वर में उनकी देशना गूँज रही थी ।
श्रीघन तथागत कह रहे थे , “ मनुष्य
अपने जीवन में अनेक प्रकार के दुखो से पीड़ित है ,
और इनमे से अधिकांश दुःख वो होते है , जिन्हें स्वंय मनुष्य ने ही अंगीकृत किया हुआ होता है और ये सब मनुष्य ने
सिर्फ और सिर्फ अपने अज्ञान के कारण ही अपनाया होता है और उन दुखो का निराकरण
सिर्फ और सिर्फ ज्ञान के द्वारा ही सम्भव है और इसके निवारण के लिए दूसरी कोई राह
नहीं है । किसी के
आशीर्वाद या वरदान से उन्हें दूर नहीं किया जा सकता ।”
जेतवन के बौद्ध विहार में भगवान बुद्ध की कुटिया
के सामने बड़ी संख्या में बौध भिक्षु बैठे हुए थे और भगवान अपनी मृदल वाणी में
उन्हें एक नयी देशना दे रहे थे ।
तथागत के इस कुटिया को ‘गंधकुटी' के नाम से जाना जाता था और प्रभु वर्षाकाल में यहीं उपस्थित रहते थे। आज काफी संख्या
में बौद्ध भिक्षु आये हुए थे और भगवान के सभी प्रमुख शिष्य भी उपस्थित थे। सबके आतुर नयन ज्ञान की
अभिलाषा में , महात्मा बुद्ध
के सुन्दर और शांत मुख पर टिके
हुए थे ।
शास्तृ बुद्ध के वचन भिक्षुओ के मन के भीतर में अमृतकण की
तरह उतर रहे थे।
तथागत आज एक नए भिक्षु विचित्रसेन का परिचय देने वाले थे.
ये नया सन्यासी विचित्रसेन ; एक अद्भुत आलोक को अपने मुख पर लिए हुए था.
दुसरे प्रमुख शिष्य सारिपुत्र , आनंद, राहुल , उपाली , अनिरुद्ध , कात्यायन , सुभूति , पुन्ना मंतानिपुत्त , महाकश्यप , मौदग्लायन भी वहां उपस्थित
थे और शांत ध्यान की मुद्रा में बैठकर तथागत को सुन रहे थे ।
विचित्रसेन एक अनोखे मौन में था। अद्ववयवादिन बुद्ध के स्वर जैसे उसकी आत्मा का अंग बनते जा रहे थे। उसका ध्यान दुसरे सन्यासियों से अलग ही था। उसके मुख पर एक सौम्य मुस्कान थी , जो कि उसके मन की स्थिरता की सूचक थी।
तथागत कह रहे थे , " सत्य या यथार्थ का ज्ञान ही सम्यक
ज्ञान है । अत: सत्य की खोज दुःख के मोक्ष के लिए अत्यंत
आवश्यक है । खोज अज्ञात सत्य की ही की जा सकती है और यदि सत्य किसी शास्त्र, आगम या उपदेशक द्वारा ज्ञात हो गया है
तो वो एक खोज नहीं है , अत: अपनी खोज सत्य की सही दिशा के लिए ही रखनी चाहिए तथा स्वंय ही
अपने लिए सत्य की खोज करनी चाहिए ।”
भगवान बुद्ध की वाणी स्निग्ध , मृदु , मानोज्ञवाक् तथा मनोरम थी । भगवान की वाणी के 64 अंग थे ; जिन्हें 'ब्रह्मस्वर' भी कहा जाता था और आज तो मारजित बुद्ध की करुणा और शान्ति से भरी हुई वाणी , उनके शिष्यों को जैसे
परमज्ञान दे रही थी ।
भगवान जिन ने आगे कहा :
“ को नु हासो किमानन्दो निच्चं पज्जलिते सति |
अंधकारेन ओनद्धा पदीपं न गवेसथ ||”
अंधकारेन ओनद्धा पदीपं न गवेसथ ||”
षडभिज्ञ बुद्ध ने शांत स्वर में कहा , “इस श्लोक का अर्थ है
कि यह हँसना कैसा ? यह आनंद कैसा ? जब नित्य ही चारों ओर आग लगी है। संसार उस
आग में जला जा रहा है। तब अंधकार में घिरे हुए तुम लोग प्रकाश को क्यों नहीं खोजते? इसलिए मैं तुमसे कहता हूँ कि प्रकाश को खोजो, सुखो को नहीं |”
ये कहकर भगवान मुस्कराए और फिर उन्होंने विचित्रसेन
को इशारे से अपने करीब बुलाया । और वहां स्थित सारे भिक्षुओ को उसका परिचय दिया। बुद्ध ने कहा, “ये
युवा भिक्षु अपने आप में एक पूर्ण सन्यासी है , इसके मुख की
आभा ही बताती है कि ये बुद्धत्व को
प्राप्त है , और एक दिन ये
सन्यासी एक नयी देशना इस संसार को देंगा ”
विचित्रसेन ने झुककर कर संघ को प्रणाम किया और कहा , “आपके
तथा अन्य भंतो के सानिध्य में अगर मैं कुछ भी सीख पाऊं तो वही मेरे जीवन की अमूल्य निधि कहलाएंगी ।”
सभी भिक्षुओ ने प्रसन्नता जाहिर की।
बुद्ध ने अपना चीवर ओढ़ा और अपना भिक्षापात्र उठाकर सभा
समाप्ति की घोषणा की।
इसके साथ ही अन्य भिक्षु भी अपने भिक्षापात्रो को उठाकर नगर और गाँवों की ओर भिक्षाटन के लिए चल दिए ।
श्रावस्ति कोशल देश की राजधानी थी। कोशल देश का ये नगर हमेशा ही सुन्दर, रमणीक, दर्शनीय, मनोरम और धनधान्य से संपन्न था। वहाँ के नागरिक गौतम बुद्ध के बहुत बड़े
भक्त थे। उस वक़्त वहां के भिक्षुओं की संख्या करीब 5 करोड़ थी। इसके अलावा वहाँ के तीन लाख से ज्यादा गृहस्थ बौद्ध धर्म को
मानते थे।
इसी नगर में 'जेतवन' नाम का एक उद्यान था जिसे वहाँ के राजकुमार जेत ने आरोपित किया था। इस नगर
का एक प्रसिद्द व्यापारी अनाथपिण्डिक बुद्ध का प्रिय शिष्य था और वह इस उद्यान के शान्तिमय वातावरण से बड़ा प्रभावित था। उसने इसे ख़रीद कर
बौद्ध संघ को दान कर दिया था। इस पूँजीपति ने जेतवन को उतनी मुद्राओं में ख़रीदा
था जितनी कि बिछाने पर इसके पूरे फ़र्श को भली प्रकार ढक देती थीं। उसने इसके भीतर
एक मठ भी बनवा दिया जो कि श्रावस्ती आने पर बुद्ध का विश्रामगृह हुआ करता था। इसे
लोग 'कोसल मन्दिर' भी कहते
थे। अनाथपिंडिक ने जेतवन के भीतर कुछ और भी मठ बनवा दिये जिनमें भिक्षु लोग रहते
थे। इसके अतिरिक्त उसने कुएँ, तालाब और चबूतरे आदि का
भी वहाँ निर्माण करा दिया था।
भिक्षु , भिक्षाटन भी
करते और बुद्ध के उपदेशो को हर जगह पहुंचाने का कार्य भी करते थे ।
वह काल बुद्ध और उनके अनुयायियों और बुद्ध धर्म के विकास का काल था ।
::::: भाग दो ::::
आज बुद्ध पूर्णिमा थी और करीब १५००० शिष्य और भिक्षु और
अन्य ,इस अवसर पर एकत्रित हुए थे । चारो ओर चंद्रमा की शीतल चांदनी छिटक रही थी और उसकी दुग्ध रौशनी
में भगवान बुद्ध का चेहरा दीप्तिमान हो रहा था ।
हर कोई सिर्फ तथागत के मुखमंडल को देख रहा था और एक अलोकिक
ध्यान में डूबा हुआ था।
गौतम बुद्ध की मन को मोहने वाली वाणी गूँज रही थी :
"मेरे प्रिय अनुनायियो , मैं तुम्हे मोक्ष या निर्वाण देने का कोई वादा नहीं कर सकता हूँ , हाँ ये जरुर कह सकता हूँ की जो मेरे बताये हुए मार्ग पर पूर्ण समर्पण से चलेगा, उसे निर्वाण की प्राप्ति अवश्य होगी।'
मुनिवर समन्तभद्र ने आगे कहा “मेरा मार्ग तुम
सबके लिए मध्यम मार्ग है” और फिर उन्होंने अपने भिक्षुओं को ये कालजयी उपदेश दिया, ‘‘ भिक्षुओ , कभी भी इन दो अतियो का सेवन न करे, इन्हें न पाले , इन्हें अपने विनाश का कारण न बनने दे।
१.
काम सुख में लिप्त होना
२.
शरीर को पीड़ा देना
इन दो अतियों को छोड़ कर जो मध्यम मार्ग है, जो अंतर्दृष्टि देने वाला, ज्ञान कराने वाला और
शांति देने वाला है, वही मध्यम मार्ग श्रेष्ठ है और यह
आठ अंगों वाला अष्टांगि है-सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वचन, सम्यक कर्म, सम्यक जीविका, सम्यक व्यायाम अभ्यास, सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि। यहां सम्यक का अर्थ है सही , संतुलित , उचित और ठीक !”
अंत में लोकजित बुद्ध ने मुस्कराकर कहा , “सभी गलत कार्य मन
से ही उपजते हैं | अगर मन परिवर्तित हो जाए तो
क्या गलत कार्य रह सकता है , कुछ भी तो नहीं । इसलिए अपने मन
को संयमित रखो। इसी एक सत्य से तुम्हारा जीवन सुखमय बनेंगा ।“
आज के शब्द , विचित्रसेन के मन पर अंकित हो गए थे !
विनायक बुद्ध के यही शब्द उसकी देशना के सूचक थे।
::: भाग तीन :::
आज सुबह ही सभी भिक्षु भिक्षाटन के लिए आस पास के नगर में
निकल पड़े थे। विचित्रसेन ने
भी अपना चीवर ओढ़ा और अपने भिक्षापात्र को लेकर पास के नगर में निकल पड़ा । जाने के पहले वो बुद्ध की कुटिया के पास रुका और वहां बैठे भगवान
को प्रणाम किया ।
बुद्ध उसे देखकर मुस्करा दिए । आज उनकी
मुस्कराहट में एक रहस्य छुपा हुआ था ; जिसे विचित्रसेन नहीं समझ पाया ।
विचित्रसेन धीमे धीमे उस नए नगर की गलियों से गुजर रहा था
और जहाँ जहाँ उसे लोग दिख पड़ते , उनसे वो भिक्षा माँग लेता था। लोग उसके मांगने के
पहले ही उसके भिक्षापात्र में कुछ दान डाल देते थे। उस सन्यासी की आभा ही कुछ ऐसी थी ।
धीमी चाल से चलते हुए उस सन्यासी ने एक ऐसी राह पर अपने पग
डाल दिए , जो कि उसके लिए सर्वदा अनजान थी । वो राह उस नगर की नगरवधू के घर की ओर
जाती थी । नगरवधू के निवास की ओर जाने वाली राह में बहुत सजावट थी । लोग उस राह पर
जगह जगह एकत्रित थे। वासना और प्रमोद के कोलाहल से वो राह गूँज रही थी ।
विचित्रसेन के लिए ये सब कुछ नया ही था , पर वो निर्लिप्त भाव से आगे चला जा रहा
था। उसकी चाल में एक महात्मा का अनुभव था । एक देवता का वास था । वो अपनी स्निग्ध
मुस्कराहट को ओढ़ कर आगे चला जा रहा था। उसके चेहरे पर एक अद्भुत शीलता और शान्ति
थी !
लोगो में अचानक ही एक कोलाहल निर्मित हुआ । नगरवधू ने अपने निवास
से बाहर कदम रखे थे । नगरवधू ने चारो ओर देखा , हर दिन की भाँति , वासना से भरे
हुए लोग । कहीं कुछ भी नया नहीं था। कुछ भी नहीं । उसका मन वितृष्णा से भर
उठा। वहां उपस्थित मानवो की भीड़ उसे पुकार
रही थी । उसकी ओर उपहार फेंक रही थी । राजकुमार , धनवान, व्यापारी , योद्धा ,
इत्यादि ने उसके चहुँ ओर एक घेरा सा बना दिया था। नगरवधू ने सबको धन्यवाद दिया और
फिर अपने गृह में वापस जाने के लिए मुड़ी , अचानक उसकी नज़र उस सन्यासी विचित्रसेन
पर पड़ी और वो एकटक उसे देखती रह गयी ।
उसने अपने जीवन में अनेक पुरुषो को देखा था , लेकिन ये
सन्यासी , उस सब से अलग था । इस सन्यासी का पुराना , फटा हुआ चीवर भी उसमे स्थित
आभा को नहीं छुपा पा रहा था । उसका मुख ,उसकी शान्ति , उसकी सौम्य मुस्कराहट ,
उसकी मस्त चाल, कुछ बात थी उसमे ।
नगरवधू के कदम वापस उस गली की ओर चल पड़े , जिस पर से वो
सन्यासी गुजर रहा था । वो विचित्रसेन का रास्ता रोककर खड़ी हो गयी । विचित्रसेन के
जीवन में ये एक नयी घटना थी । उसके कदम भी रुक गए । नगरवधू उसे अपलक निहार रही थी
। वो सन्यासी भी उसे अपलक निहार रहा था।
नगरवधू ने अब तक और आज तक सौम्यता से भरा हुआ ऐसा सौंदर्य नहीं देखा था। विचित्रसेन ने भी ऐसा रूप जिसे अनावश्यक रूप से
अति श्रुंगार करके कुरूप सा बना दिया गया था , अब तक नहीं देखा था। क्योंकि उसकी
दृष्टी में सच्चा सौन्दर्य तो बस मन के चेहरे का था .
नगरवधू ने विचित्रसेन को प्रणाम किया और कहा , “मेरा नाम
देवयानी है , मैं इस नगर की नगरवधू हूँ ।“
सन्यासी ने कहा , “और मैं तुम्हारे नगर का भिक्षु हूँ ,
मेरा नाम विचित्रसेन है ।“
देवयानी ने कहा , “ऐसा न कहिये प्रभु , आप के सामने तो मैं
स्वंय एक भिक्षुणी हूँ । आपका अभूतपूर्व सौंदर्य मुझे आपके वश में करके अभिभूत कर
रहा है । आप अतुलनीय है । मैं आप पर मोहित हो गयी हूँ , मुग्ध हो गयी हूँ । हे
देवता , मेरा एक निवेदन है आपसे , इस वर्षाकाल में आप मेरे निवास पर रुक जाईये ।
मैं हर तरह से आपकी सेवा करुँगी । आप जो कहेंगे मैं करुँगी , जो भी आप चाहे ।”
विचित्रसेन ने देवयानी को ओर गहरी नज़र से देखा । उस नगरवधू
की आँखों में एक अनबुझी प्यास थी , एक अनंत खोज थी , जो कि उसे उसके भोग विलास में
नहीं मिल पा रहा था । राजा महाराजाओ के सानिध्य में नहीं प्राप्त हो रहा था । कुछ
ऐसा था ,जो कि वासना से परे था। विचित्रसेन मुस्कराया और विनम्रता से उसे प्रणाम
करके शांत और सौम्य स्वर में कहा , “ हे देवी , मैं आज तो आपको कुछ नहीं कह सकता ,
मुझे अपने गुरु तथागत से इसकी आज्ञा लेनी होंगी । आप कल तक मेरी प्रतीक्षा करे ,
मैं उनसे पूछकर आपको जवाब देता हूँ । अगर वो आज्ञा दे देंगे तो मैं जरुर आपका
आतिथ्य स्वीकार कर लूँगा ।”
ये कहकर विचित्रसेन ने देवयानी को प्रणाम किया और अपने
विहार की ओर चल दिया ।
देवायानी ने विचित्रसेन को प्रणाम किया और उसे अपनी आँखों
में सारे संसार का प्रेम लिये ; जाते हुए देखती रही । उसका मन कह रहा था कि वो
साधू ,
जरुर ही उसके
आमन्त्रण को स्वीकार कर लेंगा । उसने उसके चरणों की धूल को अपने आँचल में समेटा और अपने विलासिता से भरे हुए गृह में
लगभग नृत्य करते हुए प्रवेश किया । उसका मन उस मयूर की भांति नाच रहा था जिसने अभी
अभी ही वर्षा की प्रथम बूँद चखी हो ।
वो अपने आसन पर आनंद में भरकर लेट गयी , और उस मनमोहक
सन्यासी के बारे में सोचने लगी । कितना सुन्दर चेहरा था , कितनी मोहकता
थी उसके नयनो में । नही नहीं मोहकता नहीं बल्कि शान्ति . हाँ , इसी शान्ति की
तो उसे तलाश थी । उसकी बातो में एक नया ही अलंकार था। जिसे उसने अब तक नहीं जाना था। अब तक जो भी उसके पास आते थे , वो सब वासना से
लिप्त होते थे। सिर्फ उसके शरीर के भूखे , लेकिन इस
सन्यासी की बात ही कुछ और थी ।
देवयानी इस
सन्यासी पर आसक्त हो चली थी । एक प्रेम से भरी आसक्ति , जो आज तक उसके मन में कभी
जागृत नहीं हुआ था. उस सन्यासी की वाणी में एक चिर कालीन शान्ति थी , एक स्थिरता थी
। मानो अमृत रस बरस रहा हो उसकी बातो में । वो परम तृप्ति की अनुभूति में रच गयी ;
और उठकर नृत्य करने लगी ।
ये सब देखकर उसकी एकमात्र और प्रिय दासी विनोदिनी ने आकर
पुछा , “देवी , क्या बात है ,। आज बहुत खुश हो
, क्या किसी
राजकुमार ने तुमसे प्रणय निवेदन किया है ।“
ये सुनकर देवयानी ने कहा , " अरी पगली , कोई राजकुमार
भला उस सन्यासी के सामने क्या होंगा । मेरा तो भाग्य ही है कि मुझे उस भंते का साथ
मिला । किसी सन्यासी का संग मेरे लिए मेरे इस पतित जीवन की सबसे अनमोल निधि है ।
आज तक तो मुझे सिर्फ मांस के भूखे पशुओ से ही पाला पडा है , वासना की भूखी
आँखे लिए गिद्ध की तरह नोचने वाले पशु ही मेरे जीवन में आये है , लेकिन इस
सन्यासी में कुछ बात है , कुछ है जो औरो
से अलग है । बस मुझे सच्चे प्रेम की प्राप्ति हो गयी है । अरी विनोदिनी , तुम नहीं जानती
, आज भगवान कितने
खुश हुए है मुझ पर?
उसने विनोदिनी से कहा ,
“इस शयन कक्ष
को खूब सुन्दर तरह से सजा दे संवार दे,
कल मेरे देवता
आने वाले है , वो मेरे गृह पर
चार माह के लिये निवास करेंगे।“
विनोदिनी ने कहा ,
“देवी मुझे
बहुत ख़ुशी हो रही है कि कोई यहाँ इतने दिन रहेंगा । वरना यहाँ तो रोज ही नित नए
लोग आते है और चले जाते है । कोई यहाँ रहेंगा ,
और आपकी ख़ुशी
में वृद्धि करेंगा , मेरे लिए तो
यही सबसे बड़ा आनंद है । आपकी ख़ुशी ही मेरे लिए सर्वोपरि है.”
देवयानी की प्रसन्नता मानो आसमान छु रही थी ।
उसे प्रेम हो गया था , उस सन्यासी से। वो नृत्य कर रही थी ,
प्रेम के गीत गा रही थी । और उसकी ख़ुशी उसके पूरे निवास स्थल पर
अनोखी छटा बरसा रही थी। उसने दासी से कह
दिया कि आने वाले चार माह , इस निवास के द्वार हर किसी के
लिए बंद रहेंगे । बस इस गृह में , हम तीन मनुष्य ही निवास
करेंगे ।
::: भाग चार
:::
विचित्रसेन भगवान बुद्ध की भरी हुई सभा में पहुंचा । उसने
सुगत बुद्ध को प्रणाम किया और कहा , " प्रभु , मैं
पास के नगर में भिक्षा मांगने गया था। वहां पर उस नगर की नगरवधू ने मेरा मार्ग
रोका और मुझसे निवेदन किया है कि मैं आने वाले वर्षा ऋतु के चार माह उसके साथ उसके
निवास स्थान पर व्यतीत करू। मैंने उससे
कहा है कि मैं प्रभु की आज्ञा लेकर आता हूँ।
अगर प्रभु जी आज्ञा देंगे तो मैं जरुर तुम्हारे संग चार माह तुम्हारे गृह
पर रह जाऊँगा । अब आप कहे कि मैं क्या
करूँ , मेरे लिए क्या आज्ञा है?
भरी सभा में सन्नाटा छा गया , सारे भिक्षुओ के लिए ये
एक नयी घटना थी । कुछ अशांत और विद्रोह के स्वर भी सभा में उठने लगे। मुनीन्द्र
मुस्कराए और उन्होंने पुछा , " विचित्रसेन तुम क्या
चाहते हो.”
विचित्रसेन ने शांत स्वर में कहा , " हे दशबल बुद्ध , मेरे लिए तो वो सिर्फ एक स्त्री ही है । वो कुरूप है या सुन्दर , वो नगरवधू है या एक सामान्य युवती , वो धनवान है या
निर्धन , इन सब बातो से मुझे कोई सरोकार नहीं है, न ही ये बाते मेरे लिए महत्वपूर्ण हैं । मेरे
लिए तो सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उसने मुझे राह पर रोक कर अपने गृह पर
रुकने का निमंत्रण दिया है । उसके नेत्रों में एक अनबुझी प्यास थी , उसके मन में शान्ति की इच्छा थी। उसके पास सब कुछ होते हुए भी कुछ न था।
उसकी मुझ पर जो श्रद्धा है , उसे मैं स्वीकार करना चाहता हूँ
; अन्यथा ये बात मेरे मन ह्रदय पर एक बोझ
बनकर रह जायेगी । अगर आपकी आज्ञा
हो तो मैं इस वर्षा ऋतु के चार माह उसके
निवास पर रुकना चाहता हूँ। आगे आपकी आज्ञा और परम इच्छा ! अब आप जो भी कहें।
"
भगवान बुद्ध ने एक बार बहुत गहराई से अपने सन्यासी
विचित्रसेन की शांत और स्थिर आँखों में झाँका और फिर मुस्कराकर आज्ञा दे दी।
चारो तरफ शोर सा उठा। एक आग सी लग गयी , कई विरोध के स्वर उठने लगे । कुछ भिक्षुओ ने उठकर बुद्ध से कहा , “ तथागत ; ये तो गलत बात है , अगर आप स्वंय ही इस
बात के , एक ऐसी बात की, जो कि सरासर गलत है -एक सन्यासी और वो
नगरवधू के घर में रहे ; की आज्ञा देंगे तो
संघ का क्या होगा, हमारी आचार संहिता का क्या होगा? इससे तो हमारे ही आचरण पर सवाल उठने लगेंगे ।“
मुनि बुद्ध ने उठकर शांत स्वर में कहा , " मैं विचित्रसेन को जानता हूँ । अगर वो नगरवधु इस सन्यासी के चरित्र को
डगमगा देंगी तो इसका संन्यास ही झूठा है । मैं जानता हूँ , एक
सन्यासी को इस बात से कोई मतलब नहीं होना चाहिए कि उसका साथी कौन है , कैसा है । देखते है , वर्षा ऋतु के खत्म होने पर
विचित्रसेन जब वापस आयेंगा , तब ही इस पर चर्चा होंगी । इस बात को अब यही ख़तम करते है.”
सभा भंग हो गयी । एक अशांति सी छा गयी थी । बहुत से साधुओ
में असंतोष भी छाया हुआ था। बहुत से साधू वो भी थे , जिनमे इस बात की कामना थी कि
उन्होंने क्यों नहीं मांगी ऐसी आज्ञा जिससे , उनकी सुप्त मनोकामना भी पूरी हो जाती
।
विचित्रसेन अपने चीवर और
भिक्षापात्र के साथ नगर की ओर चल पड़ा.
सभी एक अनजाने से कौतुहल से उसे जाते हुये देखने लगे।
::: भाग पांच
:::
विचित्रसेन जब
नगरवधू के घर पहुंचा तो उसने पाया कि नगरवधू ने अपने गृह को बहुत अच्छे से सजाया
हुआ था । पूरे आलय को दीपकों से सजाया हुआ था और अनेकानेक खुशबुओं से उसका आवास
महक रहा था । गृह के भीतर मधुर संगीत की
लहरियां गूँज रही थी । विचित्रसेन को ये नूतन परिवेश देखकर ख़ुशी हुई। जैसे ही वो
गृहद्वार पर पहुंचा तो उसने देवयानी को अपनी प्रतीक्षा में रत पाया । देवयानी अपनी
दासी विनोदनी के संग वहां खड़ी थी । उसके हाथो में सुन्दर फूलो का हार था जो
उसने उस साधू को अर्पण किया । विचित्रसेन ने झुककर देवयानी को प्रणाम किया ।
दीपकों की रोशनी में विचित्रसेन का चेहरा दमक रहा था। देवयानी भी खूब अलंकारों से
सजी हुई थी । विचित्रसेन ने एक गहरी नज़र से देवयानी को देखा और कहा , " हे देवी , मैंने तथागत की
आज्ञा ले ली है । और अब मैं आपके अनुरोध पर आपके निवास में चार माह बिताऊंगा । इस
आयोजन के लिए मैं अपने ह्रदय से आपका आभारी हूँ "
देवयानी ने विनम्र स्वर में कहा , " हे महापुरुष , ये तो मेरा
सौभाग्य है कि , आपने मेरी
प्रार्थना स्वीकार कर ली और मुझ जैसी दासी को अपनी सेवा का अवसर दिया, आईये , भीतर पधारिये
"
देवयानी ने विचित्रसेन के कदमो में फूलों को डालना शुरू
किया. उसके पग जहाँ जहाँ पड़ते थे ,
वहां वहां
देवयानी, विनोदनी के थाल में से फूल चुन
चुन कर डाल रही थी । फिर देवयानी विचित्रसेन को अपने शयन कक्ष में लेकर आई ।
वहां उसने अपने जीवन के सबसे प्रिय अतिथि को स्थान दिया । फिर उसने विनोदनी से एक
थाली मंगवाई , जिसमे चन्दन का
जल था , उस जल से उसने
विचित्रसेन के चरण पखारे। अपने वस्त्र के किनारे से उन्हें पोंछा। इसके बाद उसने विनोदनी से कुछ फल मंगवाए और उन्हें
विचित्रसेन को अर्पित किया ।
विनोदनी एक किनारे खड़ी होकर नर्म वस्त्रो के बने हुए
पंखो से साधू को पंखा झल रही थी ।
विचित्रसेन के मृदु चेहरे पर एक मुस्कान थी । उसने देवयानी
को कहा ," हे देवी , तुमने तो बहुत
सा आयोजन कर रखा है । मैं तो एक साधू हूँ।
इस तरह की सेवा का आदि नहीं हूँ और न ही होना चाहता हूँ। इसलिए मेरी विनंती है कि
आप कृपया इस अलंकार और आडम्बर से मुझे दूर रखे "
देवयानी ने साधू के चरणों में बैठकर विनम्रता से कहा , " हे महापुरुष , जैसा आप कहे , मैं तो सिर्फ
आपको प्रसन्न करना चाहती हूँ। फिर भी जैसा
आप चाहे"
विचित्रसेन ने मुस्कराकर कहा ," नहीं देवी , इन सांसारिक
बातो से मुझे कोई ख़ुशी नहीं होती ,
मैं तो गौतम
बुद्ध के वचनों से ही खुश हो जाता हूँ , और आपसे विनंती
करूँगा कि आप भी बुद्ध के वचनों में जीवन का अर्थ ढूंढें "
देवयानी ने कहा ,"
जैसा आप कहेंगे
देवता , मैं तो आपकी
दासी हूँ "
अब देवयानी ने
निवेदन किया , “हे देव , आपके स्नान का
प्रबंध कर रखा है । आईये । "
विचित्रसेन ने कहा ,
" मैं अभी स्नान करके पूजा गृह में उपस्थित होता हूँ । मुझे
संध्या पूजन करना है "
देवयानी ने आग्रह करके उसे स्वंय नहलाया , और सुगंधित
तेलों से उसके शरीर को सुगन्धित किया । और
जब विचित्रसेन का संध्या पूजन ख़त्म हुआ तो
उसने स्वयं अपने हाथों से उसे
सुस्वादु व्यंजन खिलाये. फिर उसे आराम करने के लिए स्वंय के शयन कक्ष में सुला
दिया ।
एक तरफ देवयानी और दूसरी तरफ से विनोदनी हवा के लिये पंखे झल रही थी. देवयानी ने विचित्रसेन से कहा ," हे प्रभु , क्या मैं आपको
एक गीत सुनाऊं ? बाहर वर्षा हो रही है और वर्षा ऋतु के आगमन पर विरह
में तडपती नायिका कुछ निवेदन करना चाहती है " विचित्रसेन ने मुस्कराकर आज्ञा
दे दी ।
विनोदनी ने सितार संभाला और उसकी अभ्यस्त उंगलियाँ ने राग
मेघ मल्हार की तीन ताल को सितार के तारो पर गुंजायमान किया. देवयानी ने वीणा पर
अपनी मधुर तान छेड़ी, अपने सुमधुर और
मनमोहक स्वर में एक गीत सुनाना शुरू किया.
घिर आई फिर से
.... कारी कारी बदरिया
लेकिन तुम घर
नहीं आये ....मोरे सजनवा !!!
नैनन को मेरे , तुम्हरी छवि हर
पल नज़र आये
तेरी याद सताये
, मोरा जिया
जलाये !!
लेकिन तुम घर
नहीं आये ...मोरे सजनवा !!!
सा नि ध पा , मा गा रे सा
......!
बावरा मन ये उड़
उड़ जाये जाने कौन देश रे
गीत सावन के ये
गाये तोहे लेकर मन में
रिमझिम गिरती फुहारे
बस आग लगाये
तेरी याद सताये
, मोरा जिया
जलाये !!
लेकिन तुम घर
नहीं आये ...मोरे सजनवा !!!
सा नि ध पा , मा गा रे सा
......!
सांझ ये गहरी , साँसों को मोरी
; रंगाये ,
तेरे दरश को
तरसे है ; ये आँगन मोरा
हर कोई सजन ,अपने घर लौट कर
आये
तेरी याद सताये
, मोरा जिया
जलाये !!
लेकिन तुम घर
नहीं आये ...मोरे सजनवा !!!
सा नि ध पा , मा गा रे सा
......!
बिंदिया, पायल, आँचल, कंगन चूड़ी पहनू
सजना
करके सोलह
श्रृंगार तोरी राह देखे ये सजनी
तोसे लगन लगा
कर , रोग दिल को
लगाये
तेरी याद सताये
, मोरा जिया
जलाये !!
लेकिन तुम घर
नहीं आये ...मोरे सजनवा !!!
सा नि ध पा , मा गा रे सा
......!
बरस रही है
आँखे मोरी ; संग बादलवा।।
पिया तू नहीं
जाने मुझ बावरी का दुःख रे
अब के बरस , ये राते ; नित नया जलाये
तेरी याद सताये
, मोरा जिया
जलाये !!
लेकिन तुम घर
नहीं आये ...मोरे सजनवा !!!
सा नि ध पा , मा गा रे सा
......!
आँगन खड़ी जाने
कब से ; कि तोसे संग
जाऊं
चुनरिया मोरी
भीग जाये ; आँखों के सावन
से
ओह रे पिया , काहे ये जुल्म
मुझ पर तू ढाये
तेरी याद सताये
, मोरा जिया
जलाये !!
लेकिन तुम घर
नहीं आये ...मोरे सजनवा !!!
घिर आई फिर से .......कारी
कारी बदरिया
लेकिन तुम घर
नहीं आये ...मोरे सजनवा !!!
सा नि ध पा , मा गा रे सा
......!
इतना गाकर देवयानी शांत हो गयी , उसकी आँखों से अश्रु बह रहे थे। विनोदनी भी रो ही रही थी और जब देवयानी ने
साधू की ओर देखा तो उसे आश्चर्य हुआ कि विचित्रसेन की आँखों से भी अश्रुधारा ही बह रही थी.
देवयानी ने अपने हाथो को जोड़कर कांपते हुए स्वर में कहा , " हे देव , क्या मुझसे कोई गलती हो गयी , क्या मेरी किसी बात से आपको दुःख पहुंचा जो आपकी आँखों में अश्रु ?
मैं तो आपको ख़ुशी देना चाहती हूँ।"
विचित्रसेन ने शांत स्वर में कहा , " हे देवी , मैं तो आपको प्रणाम करना चाहूँगा । आप पर
माते सरस्वती की असीम कृपा है । आपके स्वर में एक ऐसा आनंद है , एक ऐसा अनहद है कि जो ह्रदय को छूता है , मेरी आँखों
में ये अश्रु इसलिए आये है कि मैं आपके गीत में भगवान बुद्ध के विरह को महसूस कर
पा रहा हूँ । आपने निश्चित ही एक प्रेम से भरे गीत को मुझे गाकर सुनाया , पर मैंने तो इसमें सिर्फ अपने तथागत को ही देखा । उन्ही का विरह मुझे छू
गया है , इसलिए ये अश्रु है । आपकी कला को प्रणाम। "
पहली बार देवयानी विचलित हुई , उसने सोचा था कि वो अपने गीत से इस साधू को रिझा लेगी, उसे अपने प्रेम के वश में कर लेगी , लेकिन
विचित्रसेन तो इन सांसारिक बातो से दूर ही दिख रहा है । क्या करे? वो सोच में पड़ गयी , तभी
विचित्रसेन ने कहा , " हे देवी अगर आज्ञा हो तो मैं भी
कुछ कहूँ.
देवयानी ने कहा, “हां देवता ,जरुर , ये गृह भी आपका और मैं भी आपकी ही हूँ । कहिये न. आपका स्वागत है. ”
विचित्रसेन ने कहा, “हे देवी मैं तुम्हे बुद्ध के प्रवचनों का
सार सुनाना चाहता हूँ.” देवयानी ने कहा ,
“निश्चित ही देव, ये तो मेरा परम सौभाग्य होगा । मुझे अब तक उन्हें सुनने का सौभाग्य नहीं मिला है , कम से कम उनके वचनों का आनन्द तो उठा ही लूं.”
विचित्रसेन ने कहना शुरू किया , " बुद्ध की शिक्षाओं का सार है : शील, समाधि और
प्रज्ञा। सर्व पाप से विरति ही 'शील' है।
शिव में निरंतर निरति 'समाधि' है।
इष्ट-अनिष्ट से परे समभाव में रति 'प्रज्ञा' है।"
विचित्रसेन के चेहरे पर एक ओज था. उसने आगे कहा ," बुद्ध के उपदेशों का सार इस प्रकार है , सम्यक ज्ञान
,जीवन की पवित्रता बनाए रखना, जीवन में
पूर्णता प्राप्त करना , निर्वाण प्राप्त करना , तृष्णा का त्याग करना.”
विचित्रसेन इतना कहकर चुप हो गया । उसने देखा कि एक अदभुत
शान्ति उस कक्ष में छा गई है । देवयानी
उसे अपलक निहार रही थी , विनोदनी के दोनों हाथ प्रणाम की मुद्रा में
जुड़े हुए थे।
बहुत देर की खामोशी के बाद देवयानी ने कहा, " हे देव अब आप विश्राम करे, आप थके हुए है । यदि किसी भी सेवा की आवश्यकता हो तो
मुझे आदेश दिजीयेगा , मैं यही आपके चरणों के पास लेटी हुई
हूँ। "
विनोदिनी ने सारे आलय के दीपकों को मंद कर दिया और स्वंय
देवयानी के पास आकर बैठ गयी ।
रात्रि का तीसरा प्रहर था , जब शनै शनै तीनो निद्रा
के आगोश में चले गए।
:::: भाग छह ::::
वर्षा ऋतु के दिन और रातें
गुजरने लगे । अब तो ये रोज की ही दिनचर्या हो गयी , देवयानी अलग
अलग तरह से विचित्रसेन को रिझाने की कोशिश करती , उसकी खूब सेवा करती ,
नृत्य करती , गीत गाती , ठिठोली करती , आनंद के उत्सव
प्रस्तुत करती . लेकिन
विचित्रसेन ; उसे हमेशा बुद्ध
की देशना के बारे में कहता ,
बुद्ध की
शिक्षा के बारे में उसे बताता , बुद्ध के
उपदेशो को उसे सुनाता। धीरे धीरे देवयानी की सारी तरकीबें विफल हो गयी , वो विचित्रसेन
और उसके संन्यास को डिगा न सकी ,
धीरे धीरे वो
अब स्वंय ही एक बौद्ध भिक्षुणी में परवर्तित होने लगी थी । उसकी वासना , उसका प्रेम , उसका अलंकार ,सब कुछ विचित्रसेन के संन्यास के तप में पिघल कर एक नए
भाव को उसके मन में जगा गया । और ये भाव था त्याग का , प्रेम के अनुग्रह का , जीवन
को उसकी पवित्रता में जीने का ! दोनों के मध्य अब शरीर का कोई महत्व नहीं रह गया
था और न ही शरीर में उपजती वासना का कोई औचित्य ! और तो और विचित्रसेन की बातों को
सुनकर देवयानी के साथ साथ विनोदनी भी बुद्ध के प्रभाव में बहने लगी थी .
देवयानी को इस बात का बहुत अहंकार था कि उसके सौन्दर्य के
आगे विचित्रसेन पिघल जायेगा, उसके प्रेम में बह जायेगा . जो प्रेम उसने अब तक किसी से नहीं किया था वो
प्रेम अब शरीर के धरातल से उठकर मन के अंतस में समाने लगा था. विचित्रसेन ने उसके ह्रदय को पूरी तरह से
परवर्तित कर दिया था .
उधर बुद्ध के दुसरे भिक्षु , विचित्रसेन के खिलाफ बुद्ध के पास शिकायत करते । उनसे कहते
कि देवयानी से विचित्रसेन खूब सेवा करवा रहा है
, देवयानी उसे
नहलाती है , उसे नित नए
इत्रो से सुगंधित करती है , उसे नए नए
पकवान खिलाती है , अपनी गोद में
उसे सुलाती है , उसके लिए नृत्य करती है , जितने भी आमोद
प्रमोद के साधन है , उन सब का उसके आवास में विचित्रसेन के लिए उपयोग होता है ।
विचित्रसेन ने बौद्धधर्म का नाश कर दिया ,
इत्यादि,
इत्यादि । भगवान बुद्ध सिर्फ सुनते और मुस्कराकर रह जाते । फिर
कहते , बस अब वर्षा
ऋतु का समापन होने ही वाला है । कुछ ही
दिन की बात और है । देखते हैं क्या होता है, थोडा रुक जाओ भिक्षुओ !
आज वर्षा ऋतु का अंतिम दिन था। आज विचित्रसेन को वापस संघ
में लौट जाना था।
सुबह ,
जब विचित्रसेन
ने अपने मौन ध्यान से गुजरकर आँखे खोली तो देखा ,देवयानी उसके सामने बैठी हुई थी। ये एक नयी देवयानी थी , उसने भिक्षुणी
का वेश धारण किया हुआ था। देवयानी ने कहा ,
" हे देवता ,
अब तो मैं भी
आपके संग ही बुद्ध के पास चलूंगी ,
मैं हार गयी,
आप जीत गए "
विचित्रसेन को ये सुनकर बड़ी ख़ुशी हुई । उसने कहा, “हे देवी , कहीं कोई
हार या जीत का प्रश्न नहीं है । बुद्ध का
धम्म तो सबके लिए है, सबके लिए ही सम्यक
भाव से है । और ये धम्म वही है जो ,
प्रज्ञा की
वृद्धि करे , जो धम्म सबके
लिए ज्ञान के द्वार खोल दे ,
जो धम्म यह
बताए कि केवल विद्वान होना ही पर्याप्त नहीं है , जो धम्म यह बताए कि आवश्यकता प्रज्ञा प्राप्त करने की है , जो धम्म मैत्री
की वृद्धि करे , जो धम्म यह
बताए कि प्रज्ञा भी पर्याप्त नहीं है,
इसके साथ शील
भी अनिवार्य है , जो धम्म यह
बताए कि प्रज्ञा और शील के साथ-साथ करुणा का होना भी अनिवार्य है , जो धम्म यह बताए
कि करुणा से भी अधिक मैत्री की आवश्यकता है ,
जब वह सभी
प्रकार के सामाजिक भेदभावों को मिटा दे ,
जब वह आदमी और
आदमी के बीच की सभी दीवारों को गिरा दे ,
जब वह बताए कि
आदमी का मूल्यांकन जन्म से नहीं कर्म से किया जाए ,जब वह आदमी-आदमी के बीच समानता
के भाव की वृद्धि करे। आओ देवी तुम्हारा स्वागत है ।“
विचित्रसेन और देवयानी और विनोदिनी ; जेतवन में स्थित बुद्ध
के विहार की ओर चल पड़े ।
::::: भाग सात :::
चार माह बाद आज विचित्रसेन बुद्ध विहार में पहुंचा। सारे
भिक्षुओ को जैसे उसकी ही प्रतीक्षा थी । बुद्ध अपने सारे मुख्य शिष्यों के साथ
शांत मुद्रा में विराजमान थे। उन्होंने देखा कि विचित्रसेन के साथ साथ देवयानी और
उसकी दासी विनोदिनी भी आ रही है । बुद्ध मुस्करा उठे। सारा संघ आश्चर्य से
विचित्रसेन और देवयानी को देख रहा था। विचित्रसेन शांत कदमो से बुद्ध के पास
पहुंचा और झुककर प्रणाम किया और कहा , “हे शाक्य मुनि , आपकी आज्ञा और देवयानी की इच्छा के
अनुसार मैंने वर्षा ऋतु के चार माह इसके आवास में व्यतीत किए हैं । अब देवयानी भी मेरे साथ यहाँ आपके संघ में
शामिल होने के लिए आई है ।"
धर्मराज बुद्ध ने विचित्रसेन को आशीर्वाद दिया और देवयानी
की ओर देखा । देवयानी ने भगवान के चरणों
में अपने आपको झुका दिया । और अपने अश्रुओं से उनके चरणों को भिगोने लगी । उसने
कहा, " हे तथागत सिद्धार्थ,
मैं नहीं जानती
कि आपके पास , इस साधू को
क्या मिल गया? वो क्या है
आपकी देशना में, जिसके सहवास में इसे इतना
आनंद है , मैंने चार माह
तक इसे पाने का खूब प्रयास किया लेकिन मैं इसके संन्यास को डिगा तक नहीं सकी , मैंने हर संभव कोशिश की । लेकिन ये टस से मस नहीं हुआ । ऐसा क्या दे दिया आपने
इसे? ये भिक्षु मेरे हर कार्य से अप्रभावित ही रहा । इसने कभी भी, मेरी किसी भी बात या कार्य का विरोध नहीं किया । जो मैं कर सकती
थी एक पुरूष को रिझाने के लिए, वो सब
उपाय मैंने किये। नाच, गाना, साथ सोना, छूना पर वह सदा
अप्रभावित ही रहा। मैं हार गई भगवान, ऐसा पुरूष मैंने जीवन में नहीं देखा। हजारों
पुरूषों का संग किया है। पुरूष की हर गति विधि से में परिचित हूं। पर आपके भिक्षु
में जरूर कुछ ऐसा रस है , जिसके
कारण वो इन सांसारिक बातो से ऊपर है । जो
इस भोग के रस से कहीं उत्तम है। मुझ अभागी को भी वही मार्ग दिजिये प्रभु, मुझे
भी उसी रस की आकांक्षा है जो क्षण में न छिन जाये और शाश्वत रहे। मैं भी
पूर्ण होना चाहती हूं। सच ही आपका भिक्षु पूर्ण पुरूष है। "
बुद्ध ने देवयानी को दीक्षा दी । विचित्र सेन ने भगवान के
चरणों में अपना सर रखा। भगवान ने उसे उठा कर अपने गले से लगया। और कहा , “देखा तुमने
भिक्षुओ , मैंने कहा था
ये भिक्षु एक नयी देशना इस संसार को देगा ,
और वही हुआ
। जो आज तक इसकी शिकायत करते थे , वो देख लें, मेरा भिक्षु संन्यास में
विफल नहीं हुआ है.”
उस क्षण में सारे संघ के भिक्षुओं की आँखों से झर-झर
अश्रुधारा बह रही थी।
गौतम बुद्ध ने आगे कहा ,
" हम अपने विचारों से ही स्वंय को अच्छी तरह ढालते हैं; हम वही बनते
हैं जो हम सोचते हैं| जब मन पवित्र
होता है तो ख़ुशी परछाई की तरह हमेशा हमारे साथ चलती है | सत्य के रास्ते पर चलने वाला मनुष्य कोई दो ही
गलतियाँ कर सकता है, या तो वह पूरा
सफ़र तय नहीं करता या सफ़र की शुरुआत ही नहीं करता | मनुष्य का दिमाग ही सब कुछ है, जो वह सोचता है
वही वह बनता है | और यही सच्चा
संन्यास है.”
बुद्ध का बोलना
जारी रहा........
“वीतरागी होना उच्च स्तर की सिद्धि है। इसे प्राप्त करने के
बाद मनुष्य कभी अशांत नहीं होता,
अंदर से बाहर
तक वह प्रभु भाव से जीवन जीता है एवं तुरंत ही आध्यात्मिक सिद्धि के उच्च सोपानों
को पा जाता है। यही सच्ची विरक्ति है जो आसक्ति के सोपानो को बंद कर देती है । यही
एक सच्ची यात्रा है जो आसक्ति से विरक्ति की ओर ले जाती है । "
“मेरा प्रथम और अंतिम सन्देश तो यही है कि अप्पो दीपो भव: , स्वंय के दीपक स्वंय ही बनो , खुद की चेतना से खुद को रौशनी से अनुग्रहित करो . जब हम खुद के दीपक बन जायेंगे तो ,सारा सम्यक मार्ग प्रकाशित हो जायेंगा और वही सच्चा संन्यास का मार्ग होंगा और वही सच्ची दीक्षा होंगी.”
ये कहकर बुद्ध ने सभी को प्रणाम किया और
फिर सारा संघ एक स्वर में गा उठा :
बुद्धं शरणं
गच्छामि : मैं बुद्ध की शरण लेता हूँ।
धम्मं शरणं
गच्छामि : मैं धर्म की शरण लेता हूँ।
संघं शरणं
गच्छामि : मैं संघ की शरण लेता हूँ।
कहानी और फोटोग्राफ्स © विजय कुमार
आदरणीय गुरुजनों और मित्रो ;
ReplyDeleteनमस्कार ;
मेरी नयी कहानी " आसक्ति से विरक्ति की ओर ...." आप सभी को सौंप रहा हूँ ।
दोस्तों , ये एक प्राचीन बुद्ध कथा है , जिसे मैंने बड़ी मेहनत से अपने शब्दों से सजाया है . हो सकता है ; ये कथा आपने पहले भी पढ़ी होंगी . मैंने बस अपनी तरफ से इसे फिर से लिखा है . इस कथा में एक देशना हम सभी को मिलती है . आपको ये कथा जरुर अच्छी लगेंगी .
मैंने सबसे पहले ये कथा ओशो के एक प्रवचन में पढ़ा , मुझे ये कथा बहुत प्रेरक लगी . मैंने सोचा कि एक छोटी सी कहानी इस पर लिखा जाए , बाद में इस ‘सोच’ को लिखने बैठा तो करीब १५ साल गुजर चुके थे . मैंने इस विषय पर बहुत से ग्रंथो को पढ़ा . इन्टरनेट पर भी काफी कुछ पढ़ा . . [ वैसे तो मैंने अपनी हर कथा के लिए बहुत रिसर्च करता हूँ ताकि कथा में authenticity बनी रही ] .
महात्मा गौतम बुद्ध मेरे आदर्शो में से एक है .लिखते समय जैसे बुद्ध साक्षात मेरे सामने ही हो , कुछ ऐसे ही अनेको अनुभवों से गुजरते हुए मैंने इसे पूर्ण किया.
इस बार मैंने एक नयी भाषा का प्रयोग / उपयोग किया है , जो कि उस युग की भाषा है , बुद्ध-काल की भाषा है ; थोड़ी मुश्किल तो हुई , लेकिन असंभव तो नहीं था .
मैं उन सभी आदरणीय गुणीजनो का आभारी हूँ जिनका लिखा हुआ मैंने पढ़ा और उनके कुछ शब्दों को मैंने इस कथा में ग्रहण/प्रस्तुत किया [ इसमें ओशो , तिक न्यात ,स्वामी आनंद मनसा इत्यादि है ] कुछ ग्रन्थ जैसे धम्मपद ,प्राचीन बुद्ध कथाये ,विक्किपीडिया इत्यादि का भी मैं ज़िक्र/ शुक्रिया करना चाहूँगा, जिनसे मैंने कुछ जानकारी ली है .
नगरवधू देवयानी नाम मैंने खुद दिया है . मैंने बहुत ढूँढा लेकिन मुझे उस नगरवधू का नाम नहीं मिल पाया . हालांकि , कुछ जगहों पर आम्रपाली को ही वो नगरवधू बताया गया है , लेकिन मुझे लगता है कि ये सत्य नहीं है . फिर भी किसी मित्र या गुरुजन को इस संधर्भ में कुछ कहना हो तो मुझे जरुर मेल करके बताये . देवयानी मेरे एक और आनेवाली कथा की नायिका है , इसलिए नाम में आसानी हो गयी . सन्यासी विचित्रसेन का नाम मैंने ओशो के साहित्य से लिया है .
मैंने इस कथा में गौतम बुद्ध के सारे नामो का उल्लेख किया है , ये करीब २० नाम है .
पौराणिक कहानियाँ या period story लिखने में गलतियों की संभावना रहती है , हो सकता है कि मेरे लेखन में ,कहीं कोई गलती हो गयी हो , तो मुझे अवश्य क्षमा करे. और मुझे उस गलती के बारे में जरुर बताये , मैं सुधार लूँगा .
Spirituality / motivational / inspirational / new age वाले genre में ये मेरी पहली कथा है . आपको निश्चिंत रूप से motivate करेंगी . मैंने एक छोटी सी कोशिश की है कि एक ‘क्लासिक’ लिख सकूँ . कितना सफल हुआ हूँ, ये तो आप ही बताये .
कहानी का plot / thought हमेशा की तरह 5 मिनट में ही बन गया । कहानी लिखने में करीब ३०-५० दिन लगे | इस बार मैंने कहानी के thought से लेकर execution तक का समय करीब १५ साल था !!! . हमेशा की तरह अगर व्याकरण और भाषा में कोई कमी रह गयी तो मुझे क्षमा करे और मुझे सूचित करे . मैं सुधार कर लूँगा.
मेरा अहोभाव तो आप सभी के शिष्यत्व के लिए हमेशा लालायित रहता है .
दोस्तों ; कहानी कैसी लगी , बताईये , आपको जरुर पसंद आई होंगी । कृपया अपने भावपूर्ण कमेंट से इस कथा के बारे में लिखिए .और मेरा हौसला बढाए । कोई गलती हो तो , मुझे जरुर बताये.
आपका अपना
विजय
+91 9849746500
vksappatti@gmail.com
Dear Sandeepji, thanks for a beautiful story. I agree with the message ,we are what we think hemlata
Deletethanks Hemlata ji , for liking the concept and story .
DeleteGOD bless you.
regards
vijay
िवजय जी आपकी कहानी पढ़ी । जैसा झरने का िनमर्ल जल होता है एकदम शुद्ध, पारदरशी, िबना किसी िमलावट के िबल्कुल वैसी ही भाषा शैली एक दम शुद्ध, भले ही कहानी पुरानी हो पर आपने नव शब्दो आैर शैली से नवजीवन िदया है। अत्यन्त भावुक व प्रेरणापद कहानी । अत्यन्त सुन्दर । आैर अन्त की ये लाइने हम अपने विचारों से ही स्वंय को अच्छी तरह ढालते हैं; हम वही बनते हैं जो हम सोचते हैं| जब मन पवित्र होता है तो ख़ुशी परछाई की तरह हमेशा हमारे साथ चलती है | सत्य के रास्ते पर चलने वाला मनुष्य कोई दो ही गलतियाँ कर सकता है, या तो वह पूरा सफ़र तय नहीं करता या सफ़र की शुरुआत ही नहीं करता | मनुष्य का दिमाग ही सब कुछ है, जो वह सोचता है वही वह बनता है | और यही सच्चा संन्यास है.” पूरी कहानी का सार है। आभार आप का जो आपके द्वारा इतनी अच्छी कहानी पढ़ने काे िमलीं
ReplyDeleteसंदीप जी , आपका दिल से आभार . आपने कथा और कथा के moral को पसंद किया. बहुत बहुत शुक्रिया . जी.
Deleteसारा मानव रचनाक्रम एक दूसरे पर प्रभाव क्षेत्र का ही तो है, काश अच्छे लोग ऐसे ही जीतते रहें, अपने तप से सबको राह दिखाते रहें।
ReplyDeleteशुक्रिया प्रवीण जी . आपने सही कहा . आपका आभार !
DeleteMja aa gya Kahani padkar Vijay bhai. Cong
ReplyDeleteशुक्रिया मदन मोहन सक्सेना जी . आप को कथा अच्छी लगी . मुझे बहुत ख़ुशी हुई.
Deleteधन्यवाद.
विजय
निश्चित ही कथानक का चयन बहुत ही उम्दा है. इस कहानी का ओशो ने तो कई बार जिक्र किया है और अन्य जगह भी यह बहुत ही जानी पहचानी है.
ReplyDeleteआपके लेखन में एक सहज फ़्लो है जो पाठक को बांधे रखता है, बहुत ही सुंदर लिखा आपने, शुभकामनाएं.
रामराम.
आदरणीय ताऊ जी.
Deleteनमस्कार .
आपके कमेंट का शुक्रिया .
मैं यहाँ सारे पाठको को बताना चाहूँगा कि ताऊ जी ने मेरी व्याकरण संबधी गलतियों को ठीक किया है. उनका प्रेम और आशीर्वाद सदा मेरे साथ है.
धन्यवाद ताऊ
विजय
Email Comment :
ReplyDeleteVery touchy and nice story....its a fact true reverence does transforms the soul ....this has radiant and vast effect on other things which comes into the contact of that transformed soul....very impressive story and hindi vocab....great work !!! Many congratulations for that.This story uplifted my mood and thank you for that...Buddham sharanam Ghachami!! ))
Shivani Pall
thanks shivani .
Deleteyou said it : true reverence does transforms the soul ....this has radiant and vast effect on other things which comes into the contact of that transformed soul
Thanks a lot
vijay
FB Comment :
ReplyDeletebahut bahut sunder.atyant sunder shabd ati sunder presentation.yeh katha maine padi hui hai per aapne bahut sunder dhang se prastut kari hai.aapko badhai ho.
Veena Malik
बहुत बहुत धन्यवाद वीणा जी .
Deleteआपका आभार .
विजय
behad shaj sidhi aur rochak bna kar likhi gai kataha...badhai aapko..likhate rhiye...
ReplyDeleteशुक्रिया शैलजा जी .
Deleteआपका आभार
विजय
Email comment :
ReplyDeleteaapki kahani bahut achhi hai realy padhkar man khush huya
seema kumari
शुक्रिया सीमा जी .
Deleteआपका आभार
विजय
bahut sunadar aur sarthak kahani vijay sir
ReplyDeleteशुक्रिया सुधीर जी .,
Deleteआपको कथा पसंद आई . .धन्यवाद.
आपका आभार
विजय
गज़ब!!
ReplyDeleteयूं भी मैं ओशो का भक्त हूँ..उम्दा बंधनात्मक प्रवाह...आप जादूगर हो भावों के ..और शब्दों कें खिलाड़ी...बधाई और शुभ शुभ!!
शुक्रिया समीर जी .,
Deleteआप का प्रेम और आशीर्वाद है दादा ... आप से ही सीखता हूँ . .धन्यवाद.
आपका आभार
विजय
समीर भाई की बात से सहमत। आप शब्दों के जादूगर हैं। भाषा के चयन से कहानी का भाव निखर गया है।
ReplyDeleteआपको बधाई।
शुक्रिया शिव भाई जी .,
Deleteआप सब का प्रेम और आशीर्वाद है ... आप सब से ही सीखता हूँ . .धन्यवाद.
आपका आभार
विजय
कहानी का मूल संदेश थामे रहे ,उसके चारों ओर जो कथानक बुना ,वह बहुत स्वाभाविकता से पूर्ण और पात्रानुकूल रहा . समापन भी प्रभावपूर्ण !
ReplyDeleteशुक्रिया प्रतिभा जी .,
Deleteकहानी ने आप पर प्रभाव छोड़ा .धन्यवाद.
आपका आभार
विजय
bahut badhiya prastutikaran ......
ReplyDeleteशुक्रिया निशा जी .,
Deleteआपका आभार
विजय
शुक्रिया श्रीराम जी .,
ReplyDeleteआपका आभार
विजय
एक दम मूल बुद्ध-कथा है ...शब्द, भाव, कथ्य से भी.......बधाई...कुछ बिंदु देखिये....
ReplyDelete१.-- भगवान जिन ने आगे कहा :
“ को नु हासो किमानन्दो निच्चं पज्जलिते सति |
अंधकारेन ओनद्धा पदीपं न गवेसथ ||”----- मेरे विचार से ..भगवान् जिन तो महाबीर को कहा जाता है , क्या बुद्ध को भी कहा जाता है ?????? यह कथन बुद्ध का है या महाबीर का....
२.---- और यदि सत्य किसी शास्त्र, आगम या उपदेशक द्वारा ज्ञात हो गया है तो वो एक खोज नहीं है , अत: अपनी खोज सत्य की सही दिशा के लिए ही रखनी चाहिए तथा स्वंय ही अपने लिए सत्य की खोज करनी चाहिए ।”
, हाँ ये जरुर कह सकता हूँ की जो मेरे बताये हुए मार्ग पर पूर्ण समर्पण से चलेगा, उसे निर्वाण की प्राप्ति अवश्य होगी।"...उपरोक्त दोनों कथन परस्पर विरोधी हैं ....
---यदि प्रथम कथन पर चलें तो बुद्ध की खोज भी मानने को मानव बाध्य नहीं है ... द्वितीय कथन अहं को प्रदर्शित करता है एवं अपने ही प्रथम कथन के विपरीत है, यदि हम किसी अन्य की बजाय अपना ही सत्य खोजें तो बुद्ध की खोज को क्यों मानें ..
---- बुद्ध ने धनी लोगों से अपने विहार आदि हेतु स्थान स्वीकार किये जो अनैतिकता को बढ़ावा देना था ... .जबकि शंकराचार्य एवं शिव ने ( महाभक्त रावण से ) कुछ भी स्वीकार नहीं किया ....
--- वस्तुतः बुद्ध ने अनीश्वरवादी तत्व स्वीकार किया.जिससे मानव व समाज की श्रृद्धा व आस्था अपनी संस्कृति व इतिहास से हटती गयी... गुरु के बिना ज्ञान नहीं प्राप्त होता .शास्त्र, इतिहास, पुरा ज्ञान एवं अनुभवी विद्वान् गुरु का कार्य करते हैं व सही दिशा का ज्ञान देते हैं ...ज्ञान प्राप्ति का कर्म तो व्यक्ति को स्वयं ही करता है ..यही बुद्ध की देशनाओं व विचार में त्रुटि थी जिससे बौद्ध धर्म का इतनी जल्दी पतन हुआ और आज वह अपने ही जन्म स्थान से विलुप्त है...
आदरणीय श्याम जी ,.
Deleteजिन भी बुद्ध का ही एक नाम है . जैसे की मैंने लिखा है की मैंने बुद्धा के २० नामो को इस कथा में उपयोग किया है . तो जिन भी गौतम बुद्ध का ही एक नाम है .और जो कथन मैंने इस कथा में उपयोग किया है , वो भी बुद्ध ने ही कहा है .
दोनों कथन / उपदेश अलग अलग ही है श्याम जी , एक कथन है स्वंय ही सत्य की खोज करना ,तथा किसी और के उपदेश को ही पूर्ण सत्य नहीं मान लेना . और दूसरा उपदेश ये हैकि बुद्ध ने जो संतोषी रहने का मार्ग बताया है , उस पर चलने से मन को शान्ति उपलब्द होंगी और उसी से मन को निर्वाण की प्राप्ति होंगी .
अब जो उस वक़्त के ग्रंथो में कहा गया है ,मैंने उसे ही यहाँ प्रस्तुत किया है . अब यहाँ पर मैं किसी का किसी से comparison नहीं करना चाहता हूँ.
आपकी आगे की बातो के लिए मेरे पास कोई उत्तर नहीं है.
मूलतः ये कथा इस बात के लिए है की अगर मन में शुद्धि हो तो कोई और बात किसी को भी नहीं डिगा सकती है . और मैंने इसीलिए ये कथा लिखी है , और मैं आपसे भी ये निवेदन करूँगा की बाकी की बातो पर ध्यान न दे . मेरी कथा के शिल्प पर कुछ कहे , मैंने बड़ी मेहनत की है .
धन्यवाद
विजय
FB comment :
ReplyDeleteVirendra Tripathi :
Vijay Sappatti bhayee ! Adviteey ! Maa saraswati kee kripa hai aap par ! Mandakini ............ !
Jaishankar prasad kee bhasha ! Yaad dila gaye aap ! Vishay vastu ke kya kahane ! Vaise bouddh dharm ka achchhabaddhyayan hai aap ka ! Anupam !
3 minutes ago via mobile · Like
वीरेंद्र जी , दिल से शुक्रिया .
Deleteकहानी ने आप पर प्रभाव छोड़ा .आप का प्रेम और आशीर्वाद है ... आप से ही सीखता हूँ.
धन्यवाद.
आपका आभार
विजय
Ati Sundar Shreeman Jee
ReplyDeleteशुक्रिया विकास जी .,
Deleteकहानी ने आप पर प्रभाव छोड़ा .धन्यवाद.
आपका आभार
विजय
जय श्री कृष्ण!
ReplyDeleteआदरणीय विजय जी नमस्कार!
आज मैंने आपकी कहानी तीसरी बार पढ़ी,पहली अभी तक कुछ प्रतिक्रिया इसलिए नहीं की थी,क्योंकि पहली बार जल्दी में पढी,दूसरी बार में लगा अभी और रसास्वादन कर लूं।
क्या कहूं,इतनी उच्च स्तर के साहित्य के लिए कुछ भी कहने में स्वयं को अक्षम पा रही हूं आदरणीय!
कहानी के शीर्षक ''आसक्ति से विरक्ति की ओर'' ने मुझे बहुत आकर्षित किया,फिर शिक्षाओं से भरी कहानी ने तो हृदय में अमिय छाप छोड़ी।
टिप्पणी के रूप मे प्रस्तुत कहानी का 'preface' बहुत प्रभावी है और कहानी को समालोचनात्मक ढंग से पढने के लिए बाध्य करता है।
वास्तव में आप बधाई के पात्र हैं इस सफल सम्प्रेषण के लिए।
सादर
-वन्दना
शुक्रिया वंदना जी .,
Deleteकहानी ने आप पर इतना प्रभाव छोड़ा . मुझे सच में बहुत ख़ुशी हुई. धन्यवाद.
आपका आभार
विजय
Priy Vijay ji,
ReplyDeleteItnee sundar kahanee bahut dinon baad padhee. Bahut achchha laga kyonki sahity rachane ka uddeshya sadaiv ek behatar samaj ka nirman hona chahiye. Apkee yah kahanee sabhee tarah se ek ati uttam rachna hai. Apko bahut - bahut Badhai aur shubhkamnayen!
शुक्रिया सुभाष जी .,
Deleteआप सही कह रहे है . एक बेहतर समाज का निर्माण ही साहित्य का उद्देश्य होना चाहिए .
कहानी ने आप पर प्रभाव छोड़ा .धन्यवाद.
आपका आभार
विजय
सुंदर तथा ज्ञानवर्धक कहानी ! :)
ReplyDeleteआभार :)
शुक्रिया महेश जी .,
Deleteकहानी ने आप पर प्रभाव छोड़ा .धन्यवाद.
आपका आभार
विजय
Email Comment :
ReplyDeleteप्रिय विजय जी,
"आसक्ति से विरक्ति" एक ह्रदय स्पर्शी रचना है।
हार्दिक धन्यवाद्।
शुभाकांक्षी,
देवेन्द्र
मारखम,ओन्टारिओ
कनाडा
शुक्रिया देवेन्द्र जी .,आपको कथा अच्छी लगी और कहानी ने आप पर प्रभाव छोड़ा .
Deleteधन्यवाद.
आपका आभार
विजय
शुक्रिया दिलबाग जी .,
ReplyDeleteआपने इस कहानी के लिंक को चर्चा मंच के लिए चुना . मैं जरुर आऊंगा .कहानी ने आप पर प्रभाव छोड़ा .धन्यवाद.
आपका आभार
विजय
Classic kahani hai ... Badhai (MAHAVIR UTTRANCHALI)
ReplyDeleteशुक्रिया महावीर जी ., आपके कमेंट ने हौसला बढ़े है.
Deleteकहानी ने आप पर प्रभाव छोड़ा .धन्यवाद.
आपका आभार
विजय
कहानी का पेज कई बार खोला पर किसी न किसी कारण से पढ़ नहीं पाया. आज इसको पढ़ने का निश्चय किया और पढ़ते पढ़ते किसी और ही संसार में पहुँच गया और इसे ४ बार एक सिटिंग में पढ़ गया. पीरियड कहानी लिखना एक आसान कार्य नहीं. उस समय का वातावरण, भाव, भाषा को जीवंत करना आसान नहीं. श्री विजय जी का कथा-विन्यास, शैली, चरित्र और भाव, कथ्य विषय से पूर्ण न्याय करने में सफल हुए हैं. अंतस को छूते गहन भाव कहानी को अविस्मरणीय बना देते है...एक उत्कृष्ट पीरियड कहानी लेखन के लिए विजय जी को हार्दिक बधाई!
ReplyDeleteधन्यवाद कैलाश जी . आपका कमेंट मेरे लिए अमृत कण की तरह है . मैंने इस कहानी के लिए बहुत मेहनत की थी . कहानी ने आप पर प्रभाव छोड़ा .आपका दिल से आभार. यूँ ही अपना प्रेम और आशीर्वाद बनाए रखे .
Deleteविजय
प्रिय भाई विजय जी आपने बहुत खूबसूरती से इस कहानी का ताना-बाना बुना है जो पूरे समय
ReplyDeleteबांधे रखती है तथा इसके साथ ही हमें महात्मा बुध को अच्छी तरह से समझने का मौका भी मिलता है.आपकी यह कहानी मुझे अन्दर तक छूती चली गयी मैं समझता हूँ कि हमारी भटकी हुई पीढी को इसे जरूर पड़ना चाहिए उनके लिए बहुत पावरफुल सन्देश इस कहानी में छिपा हुआ है जो उन्हें सही रास्ता दिखाती है,बधाई.
धन्यवाद अशोक जी .
Deleteआपने बहुत अच्छी बात कही है . आज की भटकी हुई पीढ़ी को इसमें मौजूद सन्देश को समझना चाहिए . आपका कमेंट मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण है .कहानी ने आप पर प्रभाव छोड़ा .आपका दिल से आभार. यूँ ही अपना प्रेम और आशीर्वाद बनाए रखे .
विजय
कहानी अच्छी लगी। बधाई । रचना में भाव, भाषा और शिल्प का ताना बाना सम्यक है ।
ReplyDeleteधन्यवाद प्रभु जी . कहानी ने आप पर प्रभाव छोड़ा .आपका दिल से आभार. यूँ ही अपना प्रेम और आशीर्वाद बनाए रखे .
Deleteविजय
FB comment :
ReplyDeletePrakash Kanungo :
Yah kahani hi nahi he, varan jeevan jeene ki kala ka vistrat varnan he. Grahan karne walon ke liye ratna liye. Bahut hi sundar kahani.
धन्यवाद प्रकाश जी . कहानी ने आप पर प्रभाव छोड़ा . आप सही कह रहे है .आपका दिल से आभार.
Deleteविजय
जहाँ तक मुझे याद है ऐसे ही विषय पर एक मूवी आई थी ...सुनील दत्त और वैजंतीमाला की
ReplyDeleteफिर भी इसे ऐसे कहानी के रूप में पढ़ने का मज़ा अलग ही है |अनुभव और बहुत मेहनत से बौद्ध काल की सोच...शब्दों की पकड़ कर लिखना ...बहुत मुश्किल है फिर भी तुमने सब कुछ लिखा......सलाम है तुम्हारी लेखनी को विजय
धन्यवाद अंजू जी . कहानी ने आप पर प्रभाव छोड़ा .आपका दिल से आभार. यूँ ही अपना प्रेम और आशीर्वाद बनाए रखे .
Deleteविजय
प्रिय विजय कहानी तो लोगों ने हजारों बार सुनी है.....परंतु आपका कहने का अंदाज एक बौद्धमय माहोल तैयार कर गयी। एक सराहनिय कदम है। जो चलते रहने चाहिए। इस बात की परवाह नहीं करनी चाहिए....कि मैं गलत लिख गया। लिखेते रहने चाहिए....सकारात्म। जो लोगों को उस माहोल से प्रेरणा लेने को मजबुर करे। मेरा प्रेम ओर आंनद आपके साथ है....जय ओशो।
ReplyDeleteस्वामी जी , प्रणाम ,
Deleteइसकी प्रेरणा का स्त्रोत तो हमारे गुरु ओशो ही है . आपकी कहानी ने भी मुझे बहुत मदद दी . मैंने बहुत समय आपसे कहा था की आपकी इस कथा पर आधारित मैं एक कहानी लिखूंगा . वो मैंने लिख ली है और , ये सिर्फ आपके प्रेम और आशीर्वाद के कारण ही संभव हो सका है .
मेरे प्रणाम स्वीकार करे.
आपका
स्वामी प्रेम विजय
विजय जी बहुत सुंदर कथा लिखी है आपने जो हमें तथागत के काल में ले जाती है । लगता है कि हम विचित्रसेन के नगरवधू पर प्रभाव को स्वयं देख रहे हों । अपना सत्य तो हमें ही खोजना पडेगा शास्त्र तो केवल मार्ग दिखाते हैं ।
ReplyDeleteएक बार फिर आपकी प्रभावी लेखन को सलाम ।
आदरणीय आशा दीदी,
Deleteआपको कथा पसंद आई , मुझे बहुत ख़ुशी हुई. इसे मैंने बहुत मेहनत से लिखा है .
आपका आभार
विजय
bahut shodh aur mehnat se likhi gayee gyanvardhak aur rochak kahani ....abhar
ReplyDeleteधन्यवाद कविता जी . कहानी ने आप पर प्रभाव छोड़ा .आपका दिल से आभार.
Deleteविजय
आसक्ति में विरक्ति सोदाहरण प्रस्तुत हुई है।
ReplyDeleteसरस भाषा !
धन्यवाद वाणी जी . कहानी ने आप पर प्रभाव छोड़ा .आपका दिल से आभार.
Deleteविजय
Email Comment :
ReplyDeleteविजय कुमारजी,कहानी,"आसक्ति से विरक्ित की ओर"एक सुन्दर प्रस्तुति के लिए बधाई ।
सुदर्शन रत्नाकर
धन्यवाद सुदर्शन जी . कहानी ने आप पर प्रभाव छोड़ा .आपका दिल से आभार. यूँ ही अपना प्रेम और आशीर्वाद बनाए रखे .
Deleteविजय
Email Comment :
ReplyDeleteप्रिय विजय जी,
आसक्ति से विरक्ति की ओर कहानी के लिए आभारी हूँ। आपने प्रेरणाप्रद कहानी लिखी, इसके लिए आपको धन्यवाद। " हम वैसे ही बनते हैं, जैसे हमारे विचार होते हैं " गौतम बुद्ध के इस सन्देश में वेदों और गीता के सन्देश की ही छाया है। आपने उसे कहानी के माध्यम से रोचक बना दिया है, इसके लिए आपको बधाई। आशा है भविष्य में भी आप मानव जीवन को सुन्दर बनाने वाले सदेश देते रहेंगे। हार्दिक शुभकामनाओं सहित,
रवीन्द्र अग्निहोत्री
धन्यवाद रवींद्र जी . कहानी ने आप पर प्रभाव छोड़ा .आपका दिल से आभार. बुद्ध के विचार आज भी उतने ही सार्थक है ,जितने की उस वक़्त थे.
Deleteयूँ ही अपना प्रेम और आशीर्वाद बनाए रखे .
विजय
Email comment :
ReplyDeleteप्रिय श्री विजय जी,
"आसक्ति से विरक्ति की ओर " जैसी प्रेरणाप्रद कहानी के लिए आपको धन्यवाद। " हम वैसे ही बनते हैं, जैसे हमारे विचार होते हैं " गौतम बुद्ध के इस सन्देश में वेदों और गीता के सन्देश की छाया है। आपकी कहानी रोचक है, इसके लिए आपको बधाई। हार्दिक शुभकामनाओं सहित
आपका
अनिल दुबे
राष्ट्रीय सचिव
राष्ट्रीय लोकदल
धन्यवाद अनिल जी . कहानी ने आप पर प्रभाव छोड़ा .आपका दिल से आभार. बुद्ध के विचार आज भी उतने ही सार्थक है ,जितने की उस वक़्त थे.और ये बात तो वाकई सिद्ध बात है की हम जो सोचते है वैसे ही बनते है .
Deleteयूँ ही अपना प्रेम और आशीर्वाद बनाए रखे .
विजय
“मेरा प्रथम और अंतिम सन्देश तो यही है कि अप्पो दीपो भव: , स्वंय के दीपक स्वंय ही बनो , खुद की चेतना से खुद को रौशनी से अनुग्रहित करो . जब हम खुद के दीपक बन जायेंगे तो ,सारा सम्यक मार्ग प्रकाशित हो जायेंगा और वही सच्चा संन्यास का मार्ग होंगा और वही सच्ची दीक्षा होंगी.” विजय जी, जिस तरह आपने शब्दों को चयन कर इस आध्यात्म की माला में पिरोया है वह अनुकरणीय है। कई बार बीच बीच में आत्मा का बोध और कर्मबोध कर कथा ने रुलाया है। बहुत अच्छा व्याख्या आपने की है। आपको साधुवाद।
ReplyDeleteधन्यवाद इंदु जी . कहानी ने आप पर प्रभाव छोड़ा .आपका दिल से आभार. बुद्ध के विचार आज भी उतने ही सार्थक है ,जितने की उस वक़्त थे.और ये बात तो वाकई सिद्ध बात है की हम जो सोचते है वैसे ही बनते है . कथा हमें उस काल में ले जाती है और हम घटनाओ को जैसे घटित होते हुए देखते है .
Deleteयूँ ही अपना प्रेम और आशीर्वाद बनाए रखे .
विजय
Email Comment :
ReplyDeleteप्रिय विजय जी,
नमस्ते|
आपकी कहानी ‘आसक्ति से विरक्ति की ओर पढ़ी| कथानक बहुत सुंदर है| प्रस्तुतीकरण भी अच्छा है|
शुभ कामनाओं सहित
-दिनेश श्रीवास्तव
ऑस्ट्रेलिया
धन्यवाद दिनेश जी . कहानी ने आप पर प्रभाव छोड़ा .आपका दिल से आभार.
Deleteयूँ ही अपना प्रेम और आशीर्वाद बनाए रखे .
विजय
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ReplyDeleteकितना अच्छा/पवित्र सन्देश ,उपदेश ,सच्चा ज्ञान देती कहानी ,बहुत खूबसूरत कहानी .. वाह ,शुक्रिया ,
Manoj Sharma
धन्यवाद मनोज जी . कहानी ने आप पर प्रभाव छोड़ा .आपका दिल से आभार.
Deleteयूँ ही अपना प्रेम और आशीर्वाद बनाए रखे .
विजय
Email comment :
ReplyDeleteGreat story...i loved d way u project d characters...God bless u...K S
Kavita Seth
Thanks Kavita ji ,
Deleteyou liked the placement of the story . Thanks !
GOd Bless you too.
Regards
Vijay
Dear Vijay ji,
ReplyDeleteFirst of my apology for belated response.
The subject, period, thoughts and language reminded me of Two things. It took me to down the memory lane. Many, many years ago, may be in 60s and 70s I read many times my favourite novel 'Chitralekha.' Even today I read this novel by Bhagwati Charan Verma (Please correct me if I am wrong). Very nice story indeed. I enjoyed each and every word. I forwarded it to my more than 50 contacts.
This also reminded me of a song written by my friend and great shayar Late Sahir Ludhiyanwi. He wrote it for the movie 'Chitralekha.' The words are:
Sansar se bhaage firte ho, Bhagwan kahan se paaoge?
Is lok ko apna na sake , us lok ko tum kya paaoge?
Sahir, as I know him was down to earth shaayar. Believe me, if today Sahir would have alive I would have sent your this story to him too. I am impressed.
May we get more such stuff from your mighty pen and undiluted imagination. May Allah bless you and your pen.
Best wishes.
Firoz Khan,
Toronto, Canada.
Dear Firoz ji ,
DeleteThanks for your soulful and valuable comment .
Yes . The novel "chitrlekha' is written by Bhagwati ji .
Shahir is undoubtedly is the best poets of our times. in fact all my favorite songs are written by him only. I am touched by your humble gesture.
I am so glad that you have liked the story and the placement of the characters and the crafting. Thanks for your love and care for me. GOD Bless you.
All is GOD's grace.
Thanks and warm regards
Vijay
bahut hi achha varnan kiya hai kahani mein. rochak prastuti.
ReplyDeletebest wishes
प्रीती जी , आपका धन्यवाद और और मैं शुक्रगुजार हूँ.
Deleteआभार
विजय
VIJAY JI , KYAA BAAT HAI ! BAHUT DINON KE BAAD EK ACHCHHEE KAHANI PADHNE KO MILEE HAI . AAPKO SHAT - SHAT BADHAAEEYAAN . AAPKEE
ReplyDeleteKAHANI KAA PRAARAMBH , MADHYA AUR ANT TEENON HEE SASHAKT HAIN YANI KATHAANAK KAA TAANAA - BAANAA BADEE HEE MAJBOOTEE SE BUNAA GAYAA HAI . KAHANI MEIN GEET KAA SHAAMIL HONA USKE SAUNDARYA KO CHAAR CHAAND LAGAATAA HAI . SAMEER LAL SAMEER NE SAHEE KAHAA HAI - ` AAP JAADUGAR HAIN BHAAVON KE - -- AUR SHABDON KE KHILAADEE HAIN .`
धन्यवाद प्राण जी . आपका आशीर्वाद ही मेरी निधि है . कहानी ने आप पर प्रभाव छोड़ा .आपका दिल से आभार. यूँ ही अपना प्रेम और आशीर्वाद बनाए रखे .
Deleteविजय
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ReplyDeleteBeautiful naration of happenings of that time period. Its difficult for people of this generation to connect with happenings of that time period and yet find it interesting. As I read not only could I connect, but was transported to period of that era being a live spectator to whats unfolding..... A calmness a peacefulness dawns inspite of being one with the characters, not wanting to analyse anything further..... This must be due to the magic of your writing skills.
Poorary Meera
thanks Meera.
DeleteAll GOD's Grace !
Regards
Vijay
एक उत्कृष्ट शास्त्रीय रचना। पढ़ने में जितना अच्छा लगा, इसका मौलिक सन्देश, अप्पो दीपो भव: अर्थात स्वंय के दीपक स्वंय ही बनो, उस से भी ज्यादा मनन और ग्रहण करने योग्य है, अपनाने योग्य है।
ReplyDeleteकहते हैं, वक्र होना आसान है, सरल होना नहीं। सरल होने के लिए सारी वक्रताओं का परित्याग करना पड़ता है। श्रीमंतश्रेष्ठ बुद्ध की महान शिक्षा 'मध्यम मार्ग' पर चलकर ही यह सरलता पायी जा सकती है। इससे सुन्दर और सहज कुछ और नहीं।
परम साधुवाद, एक सारगर्भित कथा के लिए। हार्दिक धन्यवाद।
अद्भुत कहानी, और कहानी से भी अच्छी लगी, उसके बाद की आपकी सृजनप्रक्रिया की बातें, कैसे यह एक लोक कथा है, या ऐतिहासिक कथा, और आपने उसे शब्द ही नहीं, कुछ घटनाक्रम भी दिए हैं. तथागत के २० से ज़्यादा नामों का उल्लेख हमारी सांस्कृतिक समृद्धता का द्योतक है.
ReplyDeleteब्लॉग के लिए ख़ास तौर से धन्यवाद, और भी पढ़कर विस्तार से लिखूँगी।