:::: १९८० ::::
::: १ :::
मैं सर झुका कर उस वक़्त बिक्री का हिसाब लिख रहा था कि उसकी धीमी आवाज सुनाई दी, "अभय, खाना खा लो" ,मैंने सर उठा कर उसकी तरफ देखा, मैंने उससे कहा ," माया , मै आज डिब्बा नहीं लाया हूं ।" दरअसल सच तो यही था कि मेरे घर
में उस दिन खाना नहीं बना था
। गरीबी का वो ऐसा दौर था कि बस कुछ पूछो मत । जो मेरे पढने का
वक़्त था , उसमे मैं उस मेडिकल शॉप में सेल्समेन
का काम करता था ।
वो सामने खड़ी थी । मैंने उसे गहरी नज़र से
देखा । वो एक साधारण सी साड़ी पहने हुई थी । जिस पर नीले रंग के फूल
बने हुए थे। पता नहीं उस साड़ी को कितनी बार धोया जा चूका था , उन नीले फूलो का रंग भी उतर सा गया था । उसने मुस्करा कर कहा
" मेरे डिब्बे में थोडा सा खाना तुम्हारे लिए भी है । चलो खाना खा लो, लंच का समय है"। मैंने हंसकर कहा, " अच्छा
ये बताओ कि , तुम्हारे डिब्बे में मेरे लिए कब से खाना आने लगा ।"
उसने कुछ नहीं कहा , बस मुस्करा कर
अन्दर के कमरे में चली गयी । मैंने भी हिसाब किताब बंद किया और उस कमरे में चल दिया जहाँ उस मेडिकल शॉप के दुसरे बन्दे भी
बैठकर दोपहर का खाना खा रहे रहे थे। उसने
डब्बा खोला । कुल मिलाकर उसमे चार रोटी, आलू प्याज की सब्जी, और एक अचार का टुकड़ा था । उसने डब्बे के कवर में मुझे तीन रोटी और कुछ सब्जी दी, खुद एक
रोटी, सब्जी और अचार के साथ खाने लगी ।
मैंने कहा, " ये क्या माया , एक रोटी से क्या होंगा ,"
उसने कहा , "मैं बहुत कम खाती हूँ ,अभय" मैंने ध्यान से उसे देखा । उसके
चेहरे में कोई आकर्षण नहीं था , पर वो अच्छी दिखती
थी या हो सकता है कि उस दौर में या उस वक़्त में , ये सिर्फ उस उम्र का आकर्षण था , पर कुछ भी हो उसमे कुछ अच्छा लगता था मुझे । डब्बे का खाना खत्म हो गया था और दूकान मालिक की आवाज आ रही थी , चलो सब काम पर लगो, ग्राहक आ रहे है ।
::: २ :::
मेरा नाम अभय है और उस वक़्त, मेरी उम्र करीब २२ साल
थी। मैं कामर्स विषय में डिग्री की पढाई कर रहा था, साथ में ये नौकरी भी । घर के हालात कुछ अच्छे नहीं थे ।
इसलिए नौकरी करना जरुरी था । सो सुबह कॉलेज जाता था और दोपहर में कॉलेज से सीधा इस दूकान में आ जाता था , जिसमे मैं सेल्समन की नौकरी करता था। करीब रात के ८ बजे तक यहाँ नौकरी करता था और फिर नए सपनो की उम्मीद में मैं अपने घर चला जाता था। माया को हमारी दूकान में आये करीब १ महीना हो गया था । वो यहाँ पर अकाउंटेंट का काम करती थी । उसकी उम्र मुझसे ज्यादा ही थी । रोज वो साइकिल से आती और चुपचाप अपना काम
करती और चली जाती , कभी
भी किसी से कोई ज्यादा बात नहीं करती थी , दुकान मालिक ने जो कहा उसे सुन लिया। वो एक दुबली पतली सी लड़की थी और उसके रख
- रखाव से जाहिर था कि वो भी गरीब थी । वो भी का मतलब ये था कि मैं भी गरीब ही था । मैं स्लीपर पहनता था । सिर्फ
दो पेंट थी । और चार शर्ट, बस उसी से गुजारा चलता था। इस मेडिकल शॉप में मैं सेल्समेन था । मन में कल के लिए सपने थे लेकिन राह नज़र नहीं आती थी ।
यूँ ही ज़िन्दगी गुजर रही थी । उन दिनों मुझ
जैसे गरीब आदमी के सपने और ख्वाइशे भी छोटी ही होती थी ।
::: ३ :::
धीरे धीरे माया से मेरी दोस्ती हो गयी । और बीतते हुए समय
के साथ ये दोस्ती और गहरी होती चली गयी । उसको मुझमे कुछ अच्छा लगने लगा और
मुझे उसमे कुछ । मुझे लगा कि ये
प्यार ही था । उस वक़्त प्यार शब्द भी अच्छा लगता था और उसका अहसास भी । खैर ,ज़िन्दगी कट रही थी । दोपहर से शाम तक
काम और सिर्फ काम , दुनियादारी की दूसरी बातो के लिए समय नहीं मिलता था । कभी कभी काम के इन्ही मुश्किल
और न ख़त्म होने वाले पलो में हम एक दुसरे की ओर देख कर मुस्करा लिया करते थे। हाँ
वो ज्यादा मुस्कराती नहीं थी । पर मुझे अच्छी लगती थी ।
हम अक्सर बाते कर लेते थे । उसने मुझे बताया कि वो अपने पिता और दो छोटे भाई बहन के साथ रहती थी । कॉमर्स
में उसने ग्रेजुएशन किया था और पढाई के तुरंत बाद ही नौकरी करने लगी थी , क्योंकि उसके पिता के पास कोई रोजगार नहीं था और अब सारे परिवार की जिम्मेदारी उस पर ही थी ।
बस नौकरी और घर , इन दोनों के सिवा उसकी ज़िन्दगी का कोई ओर मकसद नहीं था । पर उसकी
ज़िन्दगी में शायद अब मैं भी था ।
गुजरते दिनों के साथ मैं उसके और करीब आने लगा था , मुझे वो अब और ज्यादा अच्छी लगने लगी थी
। उसकी मेहनत, उसका भोलापन, उसकी ज़िन्दगी को जीने की जुस्तुजू और अपने
परिवार के लिए उसकी अपनी खुशियों का गला घोंट देना
मुझे बहुत अपना सा लगने लगा था। क्या ये प्यार था? आज सोचता हूँ तो उन
अहसासों के कई नाम थे , पर मुझे लगता है कि उस वक़्त वो
सिर्फ प्यार ही था।
::: ४ :::
दूकान के मालिक ने दिवाली की ख़ुशी में सबको उपहार दिए। मैंने धीरे से
अपना उपहार भी उसके बैग में डाल दिया, उसने ये देखकर मुझसे कहा, “देखो ऐसा न करो , मेरी अपनी खुद्धारी है, सिर्फ वो ही अब मेरे पास बची रह गयी है, उसे तो
न छीनो।“ मैंने उससे कहा “ऐसी कोई बात नहीं है, बस इस उपहार का मैं क्या करूँगा? हाँ, अगर ये तुम्हारे काम आया तो मुझे अच्छा
लगेंगा। देखो, मना मत करो , इसे
रख लो।“ उसने बहुत मना किया , पर मैं भी नहीं माना और उसे अपना भी उपहार दे दिया ।
उपहार लेते समय उसकी आँखे भर आई । उस दिन मुझे बहुत अच्छा लगा । सारा दिन आकाश में बादल छाये रहे । मन बावरा पक्षी बन उड़ता रहा ।
::: ५ :::
समय बीतता रहा , मेरी तनख्वाह बढ़ी । जब नयी तनख्वाह मिली तो मैंने माया से कहा कि
उसे मैं पार्टी देना चाहता हूँ । वो हंस दी । उसने कहा कि उसने मेरे
लिए एक शर्ट खरीदी है । क्योंकि मेरा जन्मदिन नजदीक आ रहा था , तो
दोनों बातो को एक साथ ही सेलिब्रेट करे। मैंने भी कहा, हां ये ठीक है । और हंसकर अपनी अपनी
साइकिल से वापस घर की ओर चल दिये।
माया मेरे मोहल्ले से करीब ८ किलोमीटर दूर रहती थी । हमारे घरो को अलग अलग करने वाला एक मोड़ था ।
उस पर आकर हम रुकते थे और अपनी अपनी राह पर चल पडते थे, दुसरे दिन फिर से मिलने के लिये। उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ ।
हम रुके , माया से मैंने कहा कि कल
मिलते है । और कल दोपहर का खाना कहीं बाहर खा लेंगे , तुम डब्बा नहीं
लाना । माया ने मुस्करा कर हां कहा । मुझे पता नहीं पर क्यों उसकी
भोली सी मुस्कराहट बहुत अच्छी लगती थी ।
दुसरे दिन माया नहीं आई । मैं पहली बार परेशान हुआ ।
कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था । उन दिनों फ़ोन की सुविधा भी ज्यादा नहीं थी, क्या हुआ, क्यों नहीं आई? जैसे तमाम सवाल
मन में उमडने लगे। शाम को मैं जल्दी ही निकल पड़ा और अपनी साइकिल से उसके घर तक गया , उसने
मुझे एक बार अपने घर का पता बताया था। घर पहुंचा, वो
एक छोटा सा घर था, शायद सिर्फ दो कमरों का ।
मैंने दरवाजे की सांकल खड़खड़ायी , दरवाज खुद माया ने ही खोला । मुझे देख कर चौंक सी गयी ।
मैंने पुछा क्या हुआ , दूकान क्यों नहीं आई
। उसका चेहरा उदास था । उसने कुछ नहीं कहा , बस अन्दर आने का इशारा किया । घर के भीतर गया तो देखा कि एक
चटाई है और उसपर उसके पिताजी और दोनों भाई बहन बैठे हुए है , सभी उदास। उसके पिताजी मुझे जानते थे , वो एक दो बार
दूकान पर भी आये हुए थे , तब मुलाक़ात हुई थी । मैंने उन्हें नमस्ते की और बच्चो से उनकी पढाई के बारे में पूछा ।
फिर माया से पूछा
कि वो दूकान पर क्यों नहीं आई तो पता चला कि कल जो तनख्वाह माया को मिली
थी वो रास्ते में साइकिल से उसके बैग सहित गिर गयी , जब तक वो उतर कर वापस जाती वो बैग ही गायब हो चूका था। उसने शाम को
पूरे तीन चक्कर लगाए घर से ऑफिस और ऑफिस से घर , पर
बैग को न मिलना था और वो न मिला । मेरी
जेब में कल की मिली हुई तनख्वाह का करीब आधा हिस्सा बचा
था। वो मैंने निकाल कर उसके हाथ में रख दिया । उसने आँखे भर कर
मुझे देखा । मैंने कहा, " कुछ न कहो , बस ले लो । मुझे अच्छा लगेंगा । " उसके पिताजी ने
मुझे देखकर हाथ जोड़ दिए । मैंने उनके हाथो को अपने हाथो में ले लिया और
दोनों बच्चो के सर पर हाथ फेरकर बाहर निकल गया । उस दिन मुझे फिर से बहुत अच्छा लगा । सारा दिन आकाश
में बादल छाये रहे । मन बावरा पक्षी बन
उड़ता रहा ।
::: ६ :::
हम अक्सर यूँ ही मिलते रहे। ऑफिस में , राह में , बस यूँ ही । कभी कुछ भी कहा नहीं एक दुसरे से , बस
मिलते रहे । और एक दुसरे को देखते रहे। कई बार बहुत कुछ कहने को हुआ , पर कह नहीं पाए । वो मुझे देखती और मैं उसे देखता । बस दिन
यूँ ही गुजर जाते । बीच में उसका एक जन्मदिन आया ।, मैंने उसे एक छोटा सा लॉकेट दिया । जिसमे चांदी से अंग्रेजी में
"A" बना हुआ था । उसने मुझे कहा कि वो
ये लॉकेट हमेशा अपने पास रखेंगी । ज़िन्दगी के दिन बीतते गए । मुझे
मेरे दोस्त दुसरे शहर में अक्सर बुलाते रहे, ताकि मैं एक
बेहतर नौकरी कर सकू ; लेकिन मैं कभी नहीं गया , एक तो मुझे दुसरे शहर में जाकर बसना , इस
बात से ही डर लगता था और दूसरा मुझे माया से अलग
नहीं रहना था।
::: ७ :::
उस दिन शिवरात्री थी । वो शिव की पूजा करती थी । कुछ ज्यादा ही पूजा करती
थी । मैंने उससे पूछा , "क्यों इतनी ज्यादा पूजा
करती हो शिव की ", उसने कहा ,
"शिव भगवान की पूजा करने से अच्छा
पति मिलता है । बिलकुल तुम्हारे जैसा ।" ये कहकर वो शर्मा गयी । मैं भी शर्मा गया । उसने कहा ,"आज मैं डिब्बे में साबुदाने की खिचड़ी
लायी हूँ । आओ, खाना खा लो । " हमने लंच में साबुदाने की खिचडी खाई,
फिर उसने कहा कि वो शिव मंदिर जा रही है । मुझे भी साथ आने को कहा । मैं भी चल पड़ा , मैं बहुत ज्यादा भगवान को नहीं मानता था, पर ठीक है चलो... मंदिर चलो ।
शिव मंदिर में भीड़ थी । वो मंदिर शहर के एक पुराने तालाब
के किनारे बना हुआ था। उसने पूजा की
और हम दोनों तालाब के किनारे जाकर बैठ गए।
शाम गहरी होती जा रही थी । कुछ देर में अँधेरा छा गया । अब कुछ इक्का दुक्का
लोग ही रह गए थे , वो मुझसे टिक कर बैठी थी ।
हम चुपचाप थे। पता नहीं क्या हुआ , मैंने
उसका हाथ पकड़ा। उसने कुछ नहीं कहा। मुझे कुछ होने लगा । फिर मैंने उसका
चेहरा थामा अपने हाथो में और धीरे से उसके होंठो को छुआ । वो ठन्डे से
थे। मैंने तुरंत उसका चेहरा देखा , वो मेरी ओर ही देख रही थी । मैंने कहा कि मुझे शायद उससे प्रेम हो गया है
। उसने धीरे से कहा कि वो मुझसे प्रेम करती है । मैंने फिर उसका चेहरा
छुआ । वो फिर से ठंडा ही लगा । मैंने सकपका कर पुछा ,
"माया तुम्हे कुछ नहीं होता" उसने
सर उठा कर पुछा , "मतलब ?" मैंने पूछा कि तुम कुछ रियेक्ट ही
नहीं कर रही है । "तुम ऐसी क्यों हो?" उसने
सर झुका लिया , उसकी आँखे
गीली हो गयी । उसने धीरे से कहा , "अभय , मैं ऐसी ही हो गयी हूँ। मेरा जीवन, मेरी
गरीबी और मेरे घर के हालात , सबने मिलकर मुझे ऐसा
बना दिया है । मेरे मन में किसी के लिए कोई भावना नहीं उमड़ती है "। मैंने कुछ नहीं कहा ।
बस चुप रह गया । बहुत देर तक हम दोनों में ख़ामोशी रही । फिर पुजारी ने आकर
कहा कि मंदिर बंद हो रहा है , अब हम जाए ।
हम दोनों चुपचाप बाहर की ओर निकले और अपनी
अपनी साइकिल उठायी और चल दिए । मैंने उसे उसके घर तक छोड़ा, हम दोनों में से
किसी ने कुछ नहीं कहा ।
::: ८ :::
दुसरे दिन माया ने मुझसे कहा , "आज तुमसे कुछ
बाते करनी है ।" मैंने कहा ,"हाँ कहो न ।" उसने कहा ,
"वहीं उसी मंदिर में चलो।" हम दोनों फिर उसी मंदिर में
उसी जगह जाकर बैठ गए । उसने मेरा हाथ पकड़ा। शाम हो रही थी। सूरज
डूब रहा था, तालाब के उस किनारे और हम दोनों बैठे थे इस
किनारे।
उसने कहा , " देखो अभय । आज मैं तुमसे
जो कहने जा रही हूँ सुनकर तुम्हे अच्छा नहीं लगेंगा, पर यही
सच है और यही हम दोनों के लिए अच्छा होंगा ।" मैं चुप था। उसने कहा, "मैं जानती हूँ कि
तुम मुझसे प्रेम करते हो और मैं भी तुमसे प्रेम करती हूँ," ये कहकर उसने मेरा हाथ दबाया । मैं थोडा सा आश्वस्त सा हुआ। फिर उसने कहा ," लेकिन हम शादी के लिए नहीं बने है
।" मुझे एकदम से सदमा सा लगा। माया ने कहा ,
"देखो , तुम्हे अगर लगता है कि हम दोनों बहुत अच्छे पति -पत्नी साबित होंगे तो ये तुम्हारी
ग़लतफ़हमी है । शादी के कुछ दिनों या महीनो के बाद तुम अपने प्रेम को खो दोंगे और
यही से तुम और मैं अलग अलग होते चले जायेंगे ।" मैंने एकदम से कहा , "ये तुम क्या
कह रही हो माया और कैसे कह सकती हो ; ये सच नहीं है ।" माया ने कहा , मैंने तुमसे ज्यादा दुनिया देखी है अभय । तुम बहुत अच्छे इंसान हो अभय और मैं
नहीं चाहती कि तुम्हारे भीतर का ये इंसान जीते जी ही मर जाए ।" मैंने कहा , "नहीं माया ऐसा कुछ नहीं
होंगा । बस कुछ दिनों की ही बात और है, फिर एक नयी नौकरी के साथ ही सब कुछ ठीक हो
जायेंगा । हम शादी कर लेंगे ।"
माया ने कहा , "तुम समझ नहीं
रहे हो , मैं अपने पिताजी और छोटे भाई बहन को नहीं
छोड़ सकती हूँ । मेरा जीवन उन्ही के लिए है ।" मैंने कुछ रुकते हुए कहा , "मैं कुछ दिन इन्तजार कर लूँगा ।" माया
ने मेरा चेहरा हाथ में लेकर कहा कि "नहीं अभय , तुम इस इन्तजार को नहीं सह पावोगे और अगर हमने जल्दबाजी में शादी कर भी ली
तो , सब कुछ थोडे ही दिनों में ख़त्म हो जायेंगा। मैं तुम्हे और तुम्हारी अच्छाई को ख़त्म होते नही
देख सकती।"
मेरी आँखे भीग गयी । माया ने कहा ,
"देखो हम दोनों हमेशा ही अच्छे दोस्त रहेंगे और प्रेम तो है ही,
तुम्हे प्रेम में , मेरा ये शरीर भी चाहिए तो ये भी तुम्हारा ही है । लेकिन मैं तुम्हे कभी भी ख़त्म
होते नहीं देख सकती हूँ और अगर हमने शादी की तो
दुनिया की दुनियादारी तुम्हारे प्रेम को ख़त्म कर
देंगी, मैं ये जानती हूँ । "
मैंने एक अनजानी सी आवाज में पुछा,
" तुम बहुत देर से मेरे प्रेम और मेरे ही बारे में बात कर रही हो , क्या तुम्हारा प्रेम कभी ख़त्म नहीं होंगा?
माया ने मुस्कराकर कहा ,"नहीं मेरे अभय , मेरा प्रेम तुम्हारे लिए कभी भी खत्म नहीं होंगा । तुम देख लेना । मैं खुद
को भी जानती हूँ और तुम्हे भी ।"
मैंने गुस्से में कहा , "तुमने ये बात
कैसे कह दी कि मुझे तुम्हारा शरीर चाहिए?" माया
ने कहा ,"मैं जानती हूँ कि तुम्हे नहीं चाहिए पर अगर
तुम्हारे भीतर मौजूद पुरुष को चाहिए तो ये भी तुम्हारा
ही है। मैंने सिर्फ हम दोनों के बीच में मौजूद प्रेम की बात की है। "
मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था , मुझे कुछ समझ भी नहीं आ रहा
था कि ऐसा क्या करूँ कि कहीं कोई
समस्या न रहे । पर गरीबी अपने आप में बहुत बड़ी समस्या होती है ये मुझे उस दिन ही
पता चला । मुझे अपने आप पर , अपनी गरीबी पर उस दिन पहली
बार गुस्सा आया और बहुत ज्यादा आया और मैं भीतर तक टूट गया । मेरी ज़िन्दगी का पहला
सपना ही बिखर रहा था ।
मैं गुस्से में चिल्ला बैठा, " मुझे कुछ
भी नहीं चाहिए , न तुम , न तुम्हारा प्रेम और न ही तुम्हारा शरीर ।" और मैं उसे छोड़कर चल दिया
, वो मुझे पुकारती ही रह गयी । और मैं चला गया ।
उस दिन मैंने पहली
बार शराब पी , घर में चिल्लाता हुआ घुसा ।
माँ से कहा , अब मैं शहर चला जाऊँगा , यहाँ नहीं रहना है मुझे, दुनिया ख़राब है, ये ऐसा है, वो वैसा है, पता नहीं क्या क्या बकते हुए मैं
नींद के आगोश में चला गया ।
दुसरे दिन मैं दूकान नहीं गया ।
मैंने बहुत सोचा , मुझे कोई समाधान नहीं मिला । गरीबी
का कोई तुरंत समाधान नहीं होता , ये बात भी मुझे उसी वक़्त पता चली। मैं तीन दिन
दूकान नहीं गया , माया भी नहीं मिलने आई। मैं तीसरे दिन दूकान पहुंचा तो पता चला कि माया ने नौकरी छोड़ दी
है। इस बात से मुझे बड़ा धक्का लगा। मैं
शाम को उसके घर पहुंचा । वो घर पर नहीं थी । मैंने उसका इन्तजार करता रहा। उसके पिताजी ने
कहा कि उसे कोई दूसरी नौकरी मिल गयी है। ये सुनकर मुझे
बहुत बुरा लगा। थोड़ी ही देर में माया आ गई। मुझे देखकर उसने ख़ुशी से कहा, “चलो अच्छा हुआ तुम आ
गए , तुम्हे एक खबर सुनानी थी।“ मैंने
गुस्से में कहा , “मुझे मालूम है। मैं चलता हूँ।“ माया ने कहा, “ अरे बाबा,
रुको तो, तुम तो हमेशा ही गुस्से में रहते हो । थोडा शांत भी हो जावो, अच्छा
बैठो।” फिर उसने मुझे चिवडा खिलाया और फिर
मुझे साथ लेकर बाहर आ गयी। उसने बड़े गंभीर स्वर में कहा
, “देखो अभय अगर मैं वहां रहती तो
न तुम काम कर पाते और न ही मैं । हम दोनों का जीवन ही खराब हो जायेंगा । इसलिए मैंने
दूसरी जगह नौकरी कर ली है । हम अब हफ्ते में एक
बार मिलेंगे । दोनों
का मन ठीक रहेंगा और हम दोनों की दोस्ती और प्रेम भी जिंदा रहेंगा ।” मैं बहुत देर तक उसे देखता रहा , कुछ नहीं कह पाया . मेरी आँखों में आंसू
आ रहे थे । थोड़ी देर तक मैं उसका हाथ थामे बैठा रहा, कुछ देर बाद मैं चुपचाप चला
आया !
::: ९ :::
मैं करीब एक हफ्ते दूकान पर नहीं गया । बहुत सोचा , फिर लगा कि
माया की सोच ठीक है । हमें अभी जीवन को और सुदृढ, कल को और अधिक
मजबूत बनाने की ओर ध्यान देना होगा। हो सकता है कल कुछ अधिक
बेहतर रास्ता निकल आये। सो पढाई फिर शुरू हो गयी , नौकरी
भी चलने लगी , हफ्ते में एक दिन माया से मिलता , बहुत सी बाते करता । और इस तरह समय को पंख लगाकर उड़ते
हुए देखता रहा।
लेकिन , जल्दी ही लगने लगा कि कुछ नया नहीं
होंगा , जीवन बस ऐसे ही चलने वाला है। गरीबी के दिन पहाड़ जितने लम्बे थे, कुछ सूझता नहीं था। कुछ दोस्त जो बाहर चले गए थे , वो बार बार बुला रहे
थे , माँ भी कह रही थी कि दुसरे
शहर में जाकर एक नयी नौकरी ढूँढू जिससे कि घर की आमदनी बढे। बस मेरा मन ही नहीं
मान रहा था, पता नहीं किस मृग मरिचिका में
मैं भटक रहा था , अब कभी कभी शराब भी पीने लगा था । माया भी
अब पता नहीं क्यों उदास रहने लगी थी। जब भी हम मिलते , वो
बार बार मेरा हाथ पकड़कर रो देती थी। मुझे ये सब बाते और पागल बना रही थी ।
वो मेरे कॉलेज का आखरी साल था। उम्मीद थी कि एक अच्छी
नौकरी मिल जायेंगी । रिजल्ट
निकला , मैं पास हो गया था । अब कुछ नया करने का समय आ गया था ।
::: १० :::
उस दिन शिवरात्रि थी । मुझे मालुम था कि माया आज फिर मंदिर में जायेगी। उसने कल
ही कहा था कि आज वो ऑफिस नहीं जाएँगी। दोपहर के बाद वो मंदिर में आएँगी।
मैंने कहा, " मैं भी उसे मंदिर में मिलूँगा
।" दोपहर के बाद मैं उसी मंदिर में पहुंचा, जहाँ
मैं उसे मिलता था । आज भीड़ थी , मैं मंदिर
के कोने वाली एक जगह पर बैठ गया । धीरे धीरे शाम हो रही थी । अचानक
माया की आवाज आई , "लो
तुम यहाँ बैठे हो और मैं तुम्हे सारे मंदिर में
ढूंढ रही हूँ ।" मैंने उसकी ओर मुड़कर कहा "अरे बाबा
, यही तो अपनी जगह है ।" वो पास आकर
बैठ गयी । उसके साथ उसके दोनों भाई बहन भी आये थे। उन्होंने मुझे
नमस्ते की । मैंने भी उन्हें आशीर्वाद दिया ।
माया ने मुझे पूजा के लिए आने को कहा । मैंने मुस्करा कर कहा ,
"तुम जानती हो , मैं भगवान को
नहीं मानता । तुम जाओ और पूजा कर के आ जाओ
।" उसने कहा , "देखना , एक दिन तुम ,
इसी मंदिर में इसी भगवान को हाथ जोडोंगे
।" मैं मुस्करा दिया । थोड़ी देर बाद
वो आई और मेरे पास बैठ गयी । उसने अपनी झोली में से एक डब्बा निकाला, उसे मेरी ओर बढाकर कहा ," इसमें तुम्हारे लिए
लड्डू और चिवडा है ।" मैंने हंसकर कहा "अरे तुम कब तक मेरे लिए
डब्बा लाती रहोंगी?"
माया ने कहा , "जब तक मैं जिंदा
हूँ , तब तक तुम्हारे लिए हर शिवरात्री को मैं ये
डब्बा लाऊंगी ये वादा रहा ।" मेरी आँखे भीग
गयी । मैंने कुछ नहीं कहा और डब्बे में रखा खाना बच्चो के साथ बांट कर खाने लगा।
माया ने धीरे से मेरा हाथ पकड़ कर कहा ,
"अभय एक खबर है तुम्हे बताना है ।" मैंने कहा "बताओ ।"
माया ने बच्चो को वहां से हटाने की गर्ज से उन्हें खेलने
भेज दिया और उसने मेरा हाथ पकड़ा, बहुत कसकर पकड़ा, मानो उसे छूट जाने का डर हो, फिर उसने मेरी ओर बहुत प्यार से , बहुत गहरी नज़र से देखते हुये कहा ,"अभय मेरी
शादी तय हो गयी आज ।"
मैं अवाक रह गया जैसे मुझ पर बिजली आ गिरी हो। मैं अजीब सी आँखों से माया को देखने लगा। माया ने कहा देखो ,
" हमने सोचा था कि हम एक दुसरे से शादी नहीं करेंगे ताकि
हमारा प्रेम बचा रहे । और मुझे ये शादी करनी पड़ी। मैं शादी नहीं करनी
चाहती थी, कभी भी नहीं और किसी से भी नहीं, ये बात तुम जानते हो। लेकिन मुझे परिवार के लिए
ये शादी करनी पड़ेंगी।" मैं चुपचाप था।
बहुत अजीब सा अहसास हो रहा था। दिमाग और दिल दोनों हवा में तैर से रहे थे। जो हमने तय किया था ये ठीक भी था कि
हम दोनों एक दुसरे से शादी नहीं करेंगे ताकि हमारा प्रेम बचा रहे हमेशा ही , लेकिन माया की शादी किसी और से , ये मैं सहन नहीं कर पा रहा था। मैंने माया से गुस्से में पुछा ,
"ये क्या बात हुई , जब शादी ही
करनी थी तो मुझसे कर लेती, मैं तो तैयार ही था?" माया ने शांत
स्वर में कहा , "अभय , तुम समझ नहीं रहे हो , हम दोनों की सामाजिक
परिस्थिति अलग अलग है । मैं तो खुश हो जाती तुमसे शादी
करके , लेकिन तुम कभी भी खुश नहीं हो पाते ।"
मैं भड़क कर बोला "और तुम अब जो शादी कर रही हो , उससे तुम खुश हो ?" माया ने बहुत
शांत स्वर में मेरा हाथ पकड़ कर कहा ," अभय , मेरे लिए तुमसे बेहतर कोई और पुरुष नहीं । भगवान शिव की कसम । मैं ये शादी अपनी ख़ुशी के लिए नहीं कर रही हूँ , मैं ये शादी सिर्फ अपने परिवार के लिए कर रही हूँ , जिनकी जिम्मेदारी मुझ पर ही है ।
तुम मेरे साथ कभी भी खुश नहीं रह सकते थे। थोड़ी देर की ख़ुशी रहती और फिर ज़िन्दगी भर का चिडचिडापन ! तुम्हारे लिए हमारा प्रेम
सिर्फ बोझ बनकर रह जाता । और हर बीतते हुए
वक़्त के साथ तुम ख़त्म होते जाते। और मैं ये नहीं चाहती थी । मैं चाहती
हूँ कि तुम जिंदा रहो , न कि सिर्फ शरीर में बल्कि , ज़िन्दगी के विचारों में , तुम बहुत अच्छे
इंसान हो । इस दुनिया को , और बहुत सी माया
और दुसरे इंसानों को तुम्हारी जरुरत है । मैं तुम्हे जीते हुए देखना
चाहती हूँ । "
पता नहीं माया कि बातो में क्या था , मैं शांत होते गया । मैंने धीरे से कहा , "पर माया , हमारा प्यार उसका क्या ?" माया ने कहा , "प्यार कभी नहीं मरता अभय ।
वो तो हमेशा ही जिंदा रहेंगा । और हमारा प्यार तो कभी भी ख़त्म नहीं होंगा "
मैंने धीरे से पुछा , "तुम्हारे होने वाले पति के बारे में तो बताओ?" माया ने
कहा ,"तुम्हे उनके बारे में जानकार
बहुत अच्छा नहीं लगेंगा , लेकिन जैसा कि
मैंने कहा है ये शादी मैं सिर्फ अपने परिवार के लिए कर रही हूँ , तुम वादा करो कि तुम मुझे रोकोंगे नहीं ।" मैंने शक से उसे देखते हुए कहा , "क्या
बात है माया , अगर तुम खुश न हो तो , क्यों कर रही हो ये शादी?" माया ने
कहा , "मैंने बहुत पहले ही तुमसे कहा था अभय कि मैं अब मेरी ख़ुशी के लिए नहीं जीती हूँ । मेरे
लिए मेरी ज़िन्दगी कि सबसे बड़ी ख़ुशी सिर्फ और सिर्फ
तुम ही हो। तुम ही मेरे शिव का सबसे बड़ा प्रसाद हो । लेकिन मेरी किस्मत में तुम होकर भी नहीं हो ।" फिर माया चुप हो गयी । इतने में बच्चे आ गए । वो घर चलने की जिद करने लगे। माया धीरे से उठी , उठते
समय मेरे हाथ से उसका हाथ नहीं छूट रहा था ।
मैं उसके साथ बाहर तक आया । मंदिर के बाहर आकर उसने
मेरी तरफ देखा। उसकी आँखों में आंसू थे। उसने
कहा , "अभय तुम मेरी शादी में मत आना। तुम
सह नहीं पावोगे ।" पता नहीं मुझे कुछ भी
अच्छा नहीं लग रहा था । उसने मेरी तरफ देखा । मेरे होंठो को माया ने अपने दायें हाथ से छुआ और उस हाथ को अपने माथे पर , अपने सर पर , अपने दिल पर और अंत में अपने होंठो पर लगा दिया । उसने कहा , "अभय , हमेशा ही ऐसे अच्छे इंसान बनकर रहना । सोचना कि कोई माया थी जिसने तुम्हे ये कहा था ।" मेरी आँखे फिर भीग गयी । मैंने कहा ,
“माया , मैं तुम्हे कभी भी भूला नहीं पाऊंगा ।”
उसने एक रिक्शा वाले को हाथ दिखाया । रिक्शा पास आकर रुका । रिक्शे
में उसने बच्चो को बिठाया और मुझे देखा । जी भर कर देखा । उसका दिल उसकी आँखों में
साफ़ नजर आ रहा था। फिर उसने धीरे से कहा ,"मेरे होने वाले पति विधुर है । उन्होंने वादा किया है कि वो मेरे पूरे परिवार की देखभाल करेंगे , जब तक सभी है , उन सभी का ख्याल रखेंगे । दोनों भाई बहनों को पढ़ाएंगे , उनका जीवन
बनायेंगे , कभी भी कोई कमी नहीं होने देंगे । सबने पिताजी से और मुझसे कहा कि ये रिश्ता स्वंय भगवान ने भेजा है । वरना कौन आजकल किसी के परिवार को पालने की बात करता है? मैं भी मान गयी अभय , क्या करु । मेरा जीवन अभिशप्त सा जो है । पर मेरे लिए ये भी भगवान
का ही प्रसाद है । मैं चलती हूँ , कल से
ऑफिस नहीं जाउंगी , अगले हफ्ते शादी है ।
तुम शादी में न आना ।" कहकर वो रोने
लगी ।
मैं पत्थर का बन गया था , उसके कहे हुए
शब्द पारे की तरह मेरे कानो में बरस रहे थे
। मेरी आँखों से आंसू बह रहे थे। वो रिक्शे में बैठने के लिए मुड़ी , फिर
पता नहीं क्या हुआ , मुझसे लिपट गयी , झुक कर मेरे पैर छुए , पैरो की मिट्टी अपने सर पर लगाई और अपनी रुलाई को दबाते हुए रिक्शे में बैठ
गयी और फिर चली गयी। मुझे लगा कि मेरा जीवन ही जा रहा है। मैं पागल सा हो
रहा था । बहुत देर तक मैं वहीं खड़ा उसको रिक्शे में
जाते हुये देखता रहा ।
कुछ देर में मंदिर की घंटियाँ बजने लगी , ये मंदिर के बंद
होने का संकेत थी। मैं भीतर गया और भगवान को जी भर कर कोसा, मैंने कहा "इसीलिए मैं तेरी पूजा नहीं करता हूँ। तू है ही नहीं, तू इस दुनिया में अगर होता तो
क्या ये होने देता?
इसी तरह का अनर्गल प्रलाप करते हुए और पता
नहीं क्या क्या बोलते हुए मैं मंदिर में चिल्लाने लगा। पुजारी ने मुझे मंदिर
के बाहर निकाल दिया।
मैं रोते कलपते हुए घर आ गया, मां से कहा , मैं ये शहर छोड़कर जा रहा हूँ , दूसरी नौकरी ढूंढता हूँ और फिर तुझे भी ले जाता हूँ , मैंने उसी रात वो शहर छोड़ दिया ।
:::: १९९२ ::
::: १ :::
बहुत बरस बीत गए । मैं अपने शहर को छोड़कर दुसरे शहर में नौकरी करने आगया और वहीं बस भी गया। बीतते समय के साथ मेरा
भी एक छोटा सा परिवार बन गया । लेकिन फिर भी कभी कभी मुझे , माया की बहुत याद आ जाती , वो कैसी होंगी? उसका जीवन कैसा होंगा? लेकिन
मुझे ये तृप्ति थी मन में कि जब मैं उससे अलग हुआ तो वो ज़िन्दगी में बस गयी थी , उसका परिवार बस गया था। मैं अक्सर सोचता था कि क्या वो मेरे लिए एक बेहतर
जीवन संगिनी साबित होती? और भी कुछ इसी तरह की अनेकों बाते... जिनका अब कोई मतलब नहीं था ।
::: २ :::
फिर अचानक किसी काम के सिलसिले में मुझे अपने शहर जाना पड़ा।
वहां पहुंच कर मेरे मन में सबसे पहली याद
सिर्फ और सिर्फ माया की ही आयी थी। संयोगवश उस दिन शिवरात्री भी थी। जिस काम के सिलसिले में मुझे जाना पडा था, उसे पूरा करते करते मुझे शाम हो गयी थी, रात की गाडी थी वापसी के लिए और मैं एक बार माया से जरूर मिलना चाह रहा था। मेरे कदम खुद ब खुद उसके घर
की तरफ मुड गये, अब
वहां पर काफी कुछ बदल चूका था । उसके घर की जगह अब वहां कोई और बिल्डिंग सी बनी हुई थी । मैंने वहां पर पूछा तो पता चला कि माया
के पिताजी गुजर चुके हैं, उनके गुजरने के बाद माया और उसका पति, माया के दोनों भाई बहन के साथ कहीं और रहने चले गए हैं। कहाँ गए किसी को मालुम नहीं
था । मैं निराश होकर वापस लौट आया , रास्ते में मुझे
तालाब के किनारे वाला वही मंदिर दिखाई दिया , आँखों में बहुत सी बाते तैर गयी । मेरे पास कुछ समय था, सो मैंने सोचा कि उसी मंदिर में बैठकर समय बिता लिया जाए ।
मैं मंदिर में गया और उसी कोने पर जाकर बैठ गया जहां कभी माया के साथ बैठा करता
था। कुछ भीड़ थी , पर मैं वहीं जगह बनाकर बैठ गया और माया के साथ इस जगह बिताये हुये लम्हों को याद करने लगा । थोड़ी देर बाद मंदिर
लगभग खाली सा हो गया । मेरे दिमाग में बस यही चलता रहा कि माया कैसी होंगी? कहाँ होंगी?... कि तभी एक आवाज आई.... "मुझे मालुम था , तुम एक दिन यही मिलोंगे । " मैं चौंक कर पलटा और देखा तो , माया खड़ी थी ।
मैं बहुत चकित हुआ और प्रभु की लीला पर खुश भी [ शायद पहली बार प्रभु की महता
को स्वीकारा था ] ।
मैंने माया को गौर से देखा । वो और भी उम्र दराज लग रही थी । उसके साथ उसके छोटे
भाई और बहन भी थे , जो
कि अब काफी बड़े हो गए थे, साथ में एक छोटा सा लड़का
भी था । मैंने मुस्कराकर कहा , "आओ बैठो , तुम्हारी ही जगह है, तुम्हारा ही इन्तजार कर रही है ।" वो पास आकर बैठ गई ।
मैंने उसकी तरफ हाथ बढ़ाया , उसने मेरा हाथ थामा और मेरी तरफ देखने लगी । मैंने कहा ," कैसी हो माया " उसने कहा , "मैं ठीक
हूँ और तुम ?"
"मैं भी ठीक हूँ ।" मैंने कहा । मैंने फिर उसके भाई बहन की तरफ इशारा करके पुछा , "ये दोनों ठीक है ? " उसने कहा ,
"हां अब तो अच्छी स्कूल में पढ़ते है ।" मैं चुप हो गया । फिर उसने उस छोटे लड़के की ओर इशारा करके कहा "ये
मेरा बेटा है ।" मेरे मन में एक कसक सी उठी , फिर
भी मैंने उसके बेटे की तरफ मुस्कराकर हाथ हिलाया ।
उसने पूछा , "तुम कैसे हो । शादी कर ली ?" मैंने कहा "हां , कर तो ली , पर सच कहूँ तो कभी कभी तुम्हारी
बहुत याद आती है । और आज यहाँ इस शहर में आना हुआ तो तुम्हारे घर गया , तुम नहीं मिली तो इस मंदिर में आ गया । और देखो तुम मिल भी गयी । यह तो बस भगवान का करिश्मा ही है । "
माया ने कहा ," अच्छा तो अब तुम भगवान् को भी मानने लग गए हो?" मैंने कहा ,
" ऐसी कोई बात नहीं है बस ऐसे ही कह दिया , लेकिन तुमको यहाँ देखकर बहुत ख़ुशी हुई, सच मैं सबसे पहले तुम्हारे
घर गया था लेकिन वहां तुम नही थी। वैसे आजकल रहती कहाँ हो?"
माया ने मुस्कराकर कहा , “सब बताती हूँ , बाबा , पहले भगवान के दर्शन तो कर लूं , नहीं तो मंदिर
बंद हो जायेंगा । " मैंने कहा जरूर, पहले दर्शन कर आओ
।
मैंने उसे देखा , वो बच्चो के साथ
भीतर की ओर चली गयी और मैं तालाब के पानी को देखता
रहा और माया के बारे में सोचते रहा ।
बस इसी सोच में था कि उसकी आवाज आई ।
"लो प्रसाद खा लो, और हाँ...कहते हुये उसने
बैठते हुये अपने झोले से एक डब्बा निकाला, " कुछ
लड्डू और चिवडा है तुम्हे पसंद था न? ये लो , खा लो
।" मैंने आश्चर्य चकित होकर पुछा ,
"तुम्हे पता था कि मैं आज मिलूँगा?”
उसने कहा , मैं हर शिवरात्रि को तुम्हारे लिए लड्डू और चिवडे का डब्बा लेकर यहां जरूर आती हूँ , यही सोचकर कि कभी तो तुम मिलोंगे... और
देख लो....आज तुम मिल भी गए । "
मेरे गले में कुछ अटकने लगा। मेरी आँखे भी भर आई । माया ने मेरे आंसू पोंछते हुए कहा "अरे पागल अब भी रोते हो?" मैंने थोड़ी देर बाद पूछा ,
"तुम अपने बारे में बताओ , कैसी
हो? कहाँ हो?" माया ने बच्चे को प्रसाद खिलाते हुए कहा,
" शादी के कुछ दिन बाद ही बाबूजी नहीं रहे । मैं
अपने भाई और बहन को लेकर अपनी ससुराल चली
आई । कुछ दिनों बाद , मेरा बेटा हुआ ।
और फिर दो साल पहले ही वो गुजर गए , उन्हें
दिल की बिमारी थी । जो कि बाद में पता चली
।" मेरी आँखों से फिर आंसू बहने लगे , हे भगवान इसे और कितने दुःख देंगा?
माया कह रही थी ," पर उन्होंने कुछ पैसा मेरे लिए
रख छोड़ा था, मैंने उसी पैसे से एक किराने की दूकान
खोल ली है और लोगो को डब्बा पार्सल भी बना कर देती हूँ । कुल मिलाकर , अब ज़िन्दगी की गाडी ठीक चल रही है ।
घर भी है , दूकान भी है , डब्बे का काम भी अच्छा चल रहा है , दोनों
भाई बहन भी अच्छे से पढ़ रहे है । शिव भगवान की कृपा
है ।" फिर वो चुप हो गयी । मैं भी चुप था , पता नहीं क्या सोच रहा था , मन में विचारों का अजीब सा झंझावात चल रहा था।
हम बहुत देर तक चुप रहे । रात गहरी हो गयी थी । पुजारी ने
आकर कहा कि मंदिर बंद होने वाला है। माया ने कहा , "अच्छा अब चलती
हूँ , अगली शिवरात्री को मिलना " मैं भी उठ खड़ा हुआ। मैंने यूँ ही पुछा ,"माया
मेरी याद नहीं आती क्या?" माया ने मुस्कराकर
मेरा हाथ पकड़ा और कहा कि , "ऐसा कोई दिन नहीं जब
मैं तुम्हे याद नहीं करती हूँ पर तुम नहीं होकर भी मेरे पास ही रहते हो ।"
मैंने उसकी ओर गहरी नज़र से
देखा , उसने कहा ,"मैंने
अपने बेटे का नाम अभय ही रखा है । इसलिए , हमेशा , घर में अभय के नाम की गूँज उठती रहती है
......."
मैं अवाक रह गया । वो कहने लगी ,
"बेटा अभय , इनके पैर
छुओ ।" और जब वो छोटा अभय झुका तो
उसके गले में से बाहर की ओर एक लॉकेट लटक गया . मैंने उसे पहचान लिया . वो मेरा
माया को दिया हुआ लॉकेट था जिसमे "A " लिखा हुआ था
; मेरी आँखे आंसुओ से भर गयी , धुंधला गयी और उसी धुंध
में माया एक बार फिर चली गयी ।
::: ३ :::
मेरी आँखों में आंसू थे । पुजारी फिर मेरे
पास आया । वही पुराना पुजारी था , जिसने हमारे प्रेम की शुरुवात और अलग होना देखा
था ; उसने मुझे और मैंने उसे पहचान लिया था । उसने मेरे कंधे पर हाथ रखा । मैं
अकेला ही था , मैंने मंदिर को देखा और फिर धीरे
धीरे मेरे कदम भगवान शिव की मूर्ती की ओर बडे। और मैंने पहली बार भगवान को हाथ जोडे। मेरी आँखों में आंसू
थे और मैं भगवान को पूज रहा था और कह रहा था कि वो जो
भी करता है अच्छा ही करता है । और हाँ
भगवान है ।
मैं भागते हुए मंदिर के बाहर आया और दूर अँधेरे में माया को
खोजने की नाकाम कोशिश की ...पर वक़्त और माया दोनों ही रेत की तरह हाथ से निकल गए
थे ................!
मैं वापस चल पड़ा.
आज भी ज़िन्दगी में जब उदास और अकेला सा महसूस करता हूँ तो
बस यही सोचता हूँ कि माया है कहीं
........ और मैं एक आह भरकर अपने आप से कहता हूँ एक थी माया ............!!!
दोस्तों ;
ReplyDeleteनमस्कार ;
मेरी नयी कहानी "एक थी माया .........!!!" आप सभी को सौंप रहा हूँ ।
दोस्तों , हम सब के जीवन में कोई न कोई माया आती है , कोई न कोई अभय आता है . ये कथा ; जीवन के शुरुवाती हिस्से में उस कच्चे - पक्के प्रेम की एक अनूठी कहानी है . ये कहानी हम में से किसी की भी हो सकती है . हो सकता है कि , हममे में से ही कोई माया हो , कोई अभय हो ...........!!!
जहाँ मैंने अभय के मन को व्यक्त किया है कि कैसे आदमी भावुक होता है , कमजोर भी होता है . वही माया को मैंने बहुत मजबूत दर्शाया है .. इस कहानी का सबसे मजबूत पक्ष ये है कि , इसमें किसी को कोई धोखा नहीं देता है . समय के नियम और निर्णय को स्वीकार करना ही इंसान की सबसे बड़ी नियति होती है .कहानी का flow हमें उस काल में ले जाता है . और हम इस कथा को घटित होते हुए देखते है .
कहानी के दोनों पात्र , मेरी दुनिया के सच्चे पात्र है . घटनाएं भी सच्ची ही है . माया का इस समाज में होना एक नयी सुबह की तरह है .
कहानी का plot / thought हमेशा की तरह 5 मिनट में ही बन गया । कहानी लिखने में करीब ३०-४० दिन लगे | कहानी के thought से लेकर execution तक का समय करीब ३ महीने था । व्याकरण तथा भाषा की गलतियों के लिए हमेशा की तरह माफ़ी !!
मैं बहुत कुछ लिखना चाहता हूँ , बस समय की कमी देरी करवा देती है |
दोस्तों ; कहानी कैसी लगी , बताईये , आपको जरुर पसंद आई होंगी । कृपया अपने भावपूर्ण कमेंट से इस कथा के बारे में लिखिए .और मेरा हौसला बढाए । कोई गलती हो तो , मुझे जरुर बताये.
आपका अपना
विजय
मेने आपका link कवितालोक पर देखा , शुक्रिया साँझा करने के लिए >>> आभार >>
DeleteBahut Acchi Kahani hai sir ji
Deletejindgi ki Hakikat se Aamana Samana Ho gYa
Dr. Pankaj
hoi hain vahi jo raam rachi raakha! Jo hota hai achchhe ke liye hi hota hai. Kahani achchhi lagi.
DeleteVry nice Sir Ji ... <3
Deleteबहुत ही प्यारी और संजीदा कहानी है …………सच्चा प्रेम यही होता है जो शरीरों से परे अहसासों में बसर करता है और उसे आपने बखूबी उकेरा है ………बधाई।
ReplyDeleteविजय जी, कहानी निसंदेह यथार्थपरक और मार्मिक है. अभय और माया का चरित्र आपने बहुत ही सशक्त बुना है. अभय में भी और माया में भी मानवीय कमजोरियां हैं इसके बावजूद भी वो यथार्थ में जीते हैं.
ReplyDeleteरामराम.
विजय ...मैं भी ताऊ जी की बात से सहमत हूँ ....कहानी का एक एक शब्द पढ़ा ..
Deleteपढ़ने के बाद एक पल भी ऐसा नहीं लगा की कहानी में कोई बनावटीपन है ...
सशक्त कहानी के लिए ढेरों बधाई
माया चाहती तो अभय से शादी कर सकती थी पर उसने अपनी जिम्मेदारियों से मुंह ना मोडते हुये कर्तव्यों को तरजीह दी. अभय में भी सामान्य मानवीय स्वार्थ मौजूद होते हुये भी उसने समझदारी का परिचय दिया. कहानी अनुकरणिय है.
ReplyDeleteरामराम.
कहानी का अंत दुखद तो नही कहूंगा क्योंकि माया की शादी जिन शर्तों पर हुई थी उससे इस बात का अंदेशा तो था ही पर अंत करूणा मय जरूर हो गया. चुंकि अभय भी अब शादीशुदा था सो कहानी में वापस मिलन भी संभव नही था. इसका यही अंत अच्छा लगा.
ReplyDeleteरामराम
आपकी कहानी सच लग रही है वर्ना यदि कोई कहानीकार यह कहानी लिखता तो माया के विधवा होने तक नायक को कुंआरा रखता या उसकी भी पत्नी को मार चुका होता.
ReplyDeleteआपकी यह सच पर आधारित कहानी बेहद मार्मिक और सटीक लगी.
रामराम.
व्याकरण की अशुद्धियां काफ़ी जगह हैं जिनकी जगह आपने क्षमा मांग ली है पर क्षमा से काम नही चलता, इसे दुरूस्त करवा दें तो कहानी का आनंद कई गुना बढ जायेगा, यदि आप इजाजत दें तो इसे मैं दुरूस्त करके भिजवा सकता हूं, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
राम राम ताऊ .
Deleteआपका आशीर्वाद हो तो फिर क्या कहना . आपका भेजा हुआ corrected version मुझे मिला और मैंने उसे इस पोस्ट में update कर लिया .
वाकई में मेरी बहुत व्याकरण की गलतिया होती है . पर अब जैसे गुरु का साथ है तो आगे से ऐसा नहीं होने दूंगा .
यूँ ही अपना आशीर्वाद मुझे देते रहे .
आपका अपना
विजय
अच्छी कहानी है ...
ReplyDeleteअब तुम्हें याद करें भी तो भला कैसे करें,
हम तो भूले ही नहीं,सुन के मुस्कुराओगे |
bahut pyari si kahani...
ReplyDeletedil ko chhoo gayeee..
Vijai jee ! Lucknow me kissa goyee ek vidha hai . Issame katha vachak shrotavon ko kisse sunatey hain . Shrota mantra mugdh hokar katha sunate hain . Aaj bahut din bad aisee katha padhane ka nahee balki sunane jaisa anand mila hai . Aap ka patra chayan . Katha vastu , kathop kathan , paristhitiyon ka sanyojan , bhasha , sab kuchh , utkrisht laga . Han kayee bar vartanee dosh khatak rahe the . Bahut sundar . Aisa hee likhatey rahiye . Aap ke lekhan atulaneeya evam prasanshaneeya hai . Aap ko badhayee aur DHANYAVAAD gyapit karata hoon .
ReplyDeleteNISWARTH PREM HI MAYA KABHI BHULA NAHI PAYEGA. SUNDAR RACHNA KE SADHUWAD MITR
ReplyDeleteFB Comment
ReplyDeleteRashmi Tarika
bahut hii sundar kahanni vijjay ji ...
bahut acchhi lagi kahani.....
ReplyDeleteEmail comment :
ReplyDeleteविजय जी,
ह्रदय-स्पर्शी कहानी है.
बधाई .
सादर
राकेश तिवारी
KAHANI KA TAANAA - BAANAA AAPNE KHOOB BUNA HAI .
ReplyDeleteACHCHHEE KAHANI KE LIYE AAPKO BADHAAEE DETAA HUN .
KAVITAON KEE TARAH AAPKEE KAHANIYON MEIN BHEE
NIKHAAR HAI .
ह्रदय-स्पर्शी कहानी है.बधाई .सादर
ReplyDeleteEmail Comment :
ReplyDeletePRIY VIJAY JI ,
AAPKEE KAHANI MAN KO CHHOO GAYEE HAI . USKAA TAANAA -
BAANAA . AAPNE KHOOB BUNA HAI . IS VIDHAA MEIN BHEE AAPKAA
JAWAAB NAHIN HAI . YUN HEE LIKHTE RAHIYE . MEREE SHUBH KAMNAAYEN
AAPKE SAATH HAIN .
AAPKAA MUREED ,
PRAN SHARMA
FB comment :
ReplyDeletePunita Bawa
khoobsurat khani ,pyaar hamesha jeevit rehta hai jewan ke baad tabhi ,kewal shridaye vyakti hi ise jaan or pehchaan sakte hai ,aaj aise udhaharan dekhne ko bhi nahi mil sakte
ह्रदय-स्पर्शी कहानी..बहुत बहुत बधाई!
ReplyDeleteइसे कहानी की जगह आत्मकथ्य कहना अधिक उचित होगा. क्या यह सत्य घटना है? ( पढ़कर ऐसा आभास हो रहा है) शैली को और अधिक भावपूर्ण बनाया जा सकता है
ReplyDeleteभारती
bahut hi achhi kahani hai .. padhate padhte kai bar mere ankhon me aansu aaye or kai baar mere rogte khare ho gaye ... ek ek drishy aankhon ke samne se gujati hui chali gai ... hamesha ki tarha bahut hi sundar story !!
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी कहानी है...!
ReplyDeleteपूरी कहानी में बस प्रेम ही प्रेम है...!
अपने अपने परिवेश में अपनी जिम्मेदारियों के साथ अपने प्रेम को भी पूरा सम्मान देना कई बार मुश्किल हो जाता है...! कहानी में नायक-नायिका के माध्यम से एक सन्देश भी है...! सुन्दर....सरल और भावनात्मक....!
गरीबी और आदर्शों की वेदी पर एक और प्यार का बलिदान...कहानी के पात्र अपने आसपास के अपने समय के दिखाई देते हैं, फ़र्क केवल इतना है कि आज ऐसा सच्चा प्यार बहुत कम दिखाई देता है....बहुत मर्मस्पर्शी भावपूर्ण कहानी....
ReplyDeleteFB Comment :
ReplyDeleteअशोक जैन -
बहुत ही प्यारी कहानी है
FB comment :
ReplyDeleteArvind Dixit --
kachchi umar ki kahaani ...ki kahaniyo ki janani ,,,,kidini baad koi kahaani dekhi ....bhawuk kahaani
मर्मस्पर्शी है कहानी ,जीवन के सच को उजागर करती हुई.
ReplyDeletebahut sundar kahani ...
ReplyDeleteEk sundar hriday-sparshi kahani ke liye badhaayi aur dhanyavaad.
ReplyDeleteFB comment :
ReplyDeleteShivani Pall
Read your story of Maya....very true and nice. Deeply touched....yes Maya and Abhay do exists....amazingly sad and true!!!
बहुत सुन्दर , भावुक करती कहानी ........
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर कहानी .... सच्ची सी
ReplyDeleteFB comment :
ReplyDeletePoojary Meera
such a beutiful story it is. I hv not completed it, but feel like reading and being with each emotion. How life is, for the poors......
How beutifully depicted.....
man sunnh ho gaya reading....no words.
the way it enthralled , while reading.... hattts off for the way it was narrated.
it assured the feeling of oneness in love. distance does not matter and yet the bonding can be felt and strengthed day by day....what a feel !!!
कहानी अच्छी है। पर दुनिया में न ऐसे पात्र मिलेंगे न ही ऐसी घटनाएँ।
ReplyDeleteAankho kee boondon ko agar is comment pe daal sakta to wahi daalta. Is kahani ke liye koi shabd nahi hai mere paas... Thanks.
ReplyDelete
ReplyDeleteबहुत मार्मिक और भाव प्रवण कहानी ! प्रेम को ज़िंदा रखने की नायिका की सोच बहुत सही थी यद्यपि कष्टकारक थी ! लीक से हट कर , स्वस्थ दृष्टि देती हुई, इस कहानी के लिए ढेर सराहना स्वीकार करें ! भाषा संबंधी कुछ अन्य बाते इमेल से !
सादर,
दीप्ति
EMail Comment :
ReplyDeleteDr. Pankaj Raisinghani :
Bahut Acchi Kahani hai sir ji
jindgi ki Hakikat se Aamana Samana Ho gYa
Dr. Pankaj
Email comment :
ReplyDeleteSheel Nigam :
kahani dil ko choo lene wali jeevan ki sachchayee hai,Badhayee.
Email comment :
ReplyDeletevijai Ji
Your story 'Aik Thi Maya"
A real depiction of poverty and its impact on the life of affected people.
A very touching and nicely written story, rather pecturization of real life situation.
Congratulations.
Regards.
Narendra Agrawal
वाह! मार्मिक और भाव प्रवण कहानी... उम्दा, बेहतरीन अभिव्यक्ति...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDelete@मेरी बेटी शाम्भवी का कविता-पाठ
Email comment :
ReplyDeleteमा. विजयकुमारजी,
सस्नेह नमस्कार!
बडी ही अच्छी सीधी सरल और रोचक कहानी है माया और अभय की | इतनी सुंदर कहानी भेजने के लिए धन्यवाद | कभी ज्यादा बातचित नही हुईं, पर हम लोग काफी दिनों सोशल नेटवर्किंग के जरिये जुडे हुए है | मै कोई टीका-टिप्पणी करने में जादा यकिन नही रखता, इसलिये इंटरनेट पे कम ही लिखता हू | पर आपकी तरफ से आनेवाली लिंक पे में आप का साहित्य समय समय पे पढता आया हू | मै मुंबई में रहता हू और मेरे ही निर्माण किये हुए आनंदऋतू ई-मॅगझिन का संपादक पद पे कार्यरत हू | ये एक मराठी भाषा में प्रकाशित होनेवाला कथा और कविताओं के लिये जाना जानेवाला ई-मॅगझिन है | जो सभासदों के ईमेल पे हर माह के दस तारीख को पीडीएफ फॉरमॅट में आता है और साथ ही साथ में स्वतंत्र वेबसाईट पे भी हर माह के दस तारीख को प्रकाशित होता है | वैसे तो ई-मॅगझिन मराठी भाषा के लिये बनाया गया है और जाना भी जाता है, लेकिन हिंदी या फिर अंग्रेजी भाषा में कोई अगर कुछ अच्छा या फिर अलग से लिखता हो, तो उनका साहित्य भी हम मराठी वाचकों को अन्य भाषा और प्रांत की साहित्य एवं संस्कृती का पता चल सके, इसलिये हमारे ई-मॅगझिन में सम्मिलित कर लेते है | अगर आप चाहे तो आपकी बारह सर्वोत्कृष्ट कहानियाँ, हर माह एक करके एक साल तक ई-मॅगझिन में प्रकाशित की जा सकती है | आपसे विनयपुर्वक अनुरोध है की आप इस विषय के बारे में अपने विचारों से हमें अवगत किजिये |
आप को आनंदऋतू ई-मॅगझिन की रुपरेखा पता चले, इसलिये इस माह की पीडीएफ फाईल आप को इस मेल के साथ भेज रहा हू | कृपया डाऊनलोड कर के देख लिजिये | और जानकारी के लिये आनंदऋतू की वेबसाईट भी एक नजर लिजिये | http://aanandrutu.com/
आपका स्नेहाभिलाषी,
किमंतु ओंबळे.
एक अच्छी और मर्मस्पर्शी कहानी जिसमें किस्सागोई के साथ जिंदगी की सच्चाइयाँ बख़ूबी बुनी गईं हैं.
Deleteमाया खुदग़र्ज़ नहीं खुद्दार थी. संशोधन कर लीजिए.
शुक्रिया उषा जी ,
Deleteमैंने कहानी में संशोधन कर लिया है . आपका बहुत आभार .
धन्यवाद.
विजय
कहानी पढ्कर आखे नम हो गयी दिल के करीब से गुजरती हुई मह्सुस हुयी मर्मस्पर्शी कहानी के लिये कोटि कोटि बधाई
DeleteFB Comment :
ReplyDeleteSAmir Sharma
Great Sir ...मेरी आँखे आंसुओ से भर गयी Nice & touching
email comment :
ReplyDeleteRamesh Sharma
"वो जो भी करता है अच्छा ही करता है..."
marmik kahani prerak.. likhte rahie shukriya
adbhut! prerak!! dhanyavad.
ReplyDeleteमुझे कहानी अच्छी लगी. साहित्यिक प्रपंच से दूर, सीधीसादी. मैं अपने जानपहचान वालों में कई मायाओं को जानता हूँ, जिन्हों ने अपने परिवार के लिए अपने को होम दिया.
ReplyDeleteअरविंद कुमार
arvind@arvindlexicon.com
email comment :
ReplyDeleteVijay ji namakar!
Kahaini bahut achchi lagi . Alag shailee Allag kahani
Aik baat: Aapko mera email address kaise mila! par achchi baat hai achchi sunder kahaani padhne ko mili. Aur kahniyon ka link Bhej den. Agli baar Hindi men likhungi. jara jaldi men hun.
Namastey
Dhanyawad
Madhu
Email comment :
ReplyDeleteदिल को छूती है । अच्छी है ।
suman sinha
Email comment :
ReplyDeleteMr.Vijayji namaskar mein mukulchandrajoshi 77 yrs. Noida mein TRAFFICBABA k nam sey janajata hoin,ap merey barey mein GOOGLE mein trafficbaba search karein aur UTUBE mein surrakhshababa apko merey abhiyan k barey pata lagjayega,apki kahani EK THI MAYA pari bahut achhi dil dey likhi kahani hai,bahut baria asey hi likhtey rahia hamara aur ISHWAR ka ashirwad hai JAIHIND
\
Mukul Joshi
विजय जी ,कहानी का कथानक अच्छा है । उद्देश्य भी । प्रेम का बडा उदात्त स्वरूप प्रस्तुत किया है । कहानी निस्सन्देह किस्सा कहने की तरह ही सुनाई है । बस कहानी में थोडी कसावट होती तो ज्यादा अच्छा होता ।
ReplyDeleteमार्मिक और भाव प्रवण कहानी... माया की सोच एक खुद्दार नारी की सोच दर्शाती है। बहुत बहुत बधाई....
ReplyDeleteAaj padh paayi aapki kahani bahut bhavpurn lagi meri hardik badhai....
ReplyDeleteApane Aradhya ki kuch lines likhana chahunga................. " Kuch smritiya aisi hoti hai, jo ek sath hi dukh ki anubhuti bhi deti hai, sukh ki bhi. Vastav me ek bindu par aakar dukh sukh ka bhed hi samapt ho jaata hai. Pida me bhi ek tarah ke sukh ki anubhuti hoti hai....... asim santushti ki......... HUM UNKE SAATH BHI TO REHTE HAI, UNKE SAATH BHI TO JEETE HAI NA, JO LOG DIKHLAI NAHI DETE. UNKA KYA KOI ASTITVA NAHI??????????????
ReplyDeleteNice Story.......... Vijay Ji........ Congratulations.....
सब से पहले तो आप से अभी अभी फोन पर बात करके बहुत अच्छा लगा।
ReplyDeleteआप की कहानियां मन को उद्वेलित करने जैसी होती हैं --- खुशवंत सिहं की तरह बिंदास हो कर लिखना हरेक के बस की बात नहीं होती...आप के लेखन में बोल्डनैस है, पसंद आई।
आप की कहानियाों से प्रेरित हो कर मुझे भी लगता है कि मुझे भी अपनी बात कहानियों के माध्यम से ही कहनी चाहिए--मेरी बात से मतलब कि वो संदेश जो मैं पाठकों तक पहुंचाना चाहता हूं।
लिखते रहिए, विजय जी... लिखते रहिए.... हल्केपन का अहसास होता है ना?.......अच्छा है, होना ही चाहिए।
ज़िंदगी ज़िंदादिली का नाम है, डरने वाले क्या खाक जिया करते हैं...........
ReplyDeleteexceelent Vijay ji
maan gaye aapko ...kya khoob andaj-e-bayaN hai.
dil ko choo gayii.........
bandhaii swikaren....memorable story
सारा दिन आकाश में बादल छाये रहे । मन बावरा पक्षी बन उड़ता रहा ।
विजय जी,
ReplyDeleteकहानी पढ़ कर वह कहावत झूठी साबित होती है "माया महाठगिनी हम जानी'
कहानी ना सिर्फ बांधे रखती है, वरन तब अंत को लेकर उत्कंठा और बढ़ जाती है जब माया की शादी अन्यत्र हो जाती है और अभय फिर से मंदिर में उसी जगह माया से मिलता है.
कहानी का अंत दिल को दुखाता है लेकिन माया के निर्णय से सहमत भी होता है, अभय हम सब पाठकों की हमदर्दी का हकदार बनता है तो यह आप की सोच का चमत्कार ही है.हम सब भी अभय की तरह मजबूरी में यह अंत स्वीकारने के अलावा और कुछ कर भी तो नहीं सकते.
बस यही कामना है की लिखते रहें, व्याकरण की अशुद्धियाँ होने की चिंता न करें, जब आप का लेखन बांधे रखने वाला रहता है तो आँखें अशुद्धियो को भी सही पढ़ती जाती हैं.
"सारा दिन आकाश में बादल छाये रहे । मन बावरा पक्षी बन उड़ता रहा..."यह लाइन पढ़ते हुए जाने क्यों कोलेज के दिन याद आते रहे.
बहुत बधाइयां.
विजय भाई,
ReplyDeleteपूरी कहानी एक बैठक में एक सॉंस में पढ़ ली। उम्दा कहानी। कहानी में केवल प्यार ही प्यार है। अच्छा लगा, आजकल ऐसे प्यार के दर्शन कम ही होते हैं। नि:स्वार्थ प्यार अब एक सपना है। दिल को छूती है आपकी कहानी। वैसे मुंझसे पढ़ना कम ही हो पाता है, पर आज आपकी कहानी पढ़कर ऐसा लगा कि पढ़ना सार्थक हो गया। आप लिखते रहें, भाषा की चिंता न करें, एक बार फिर पढ़ेंगे, तो वह गलती सामने आ जाएंगी। उसे सुधार लीजिएगा। आपकी भाषा में शब्दों की गलतियॉं नहीं है, केवल उ औ ऊ में ही गलती होती है। जिसे सुधारा जा सकता है। आपको बधाई ढेर सारी।
डॉ: महेश परिमल
Lovely Innovative Story
ReplyDeleteKeep Going On, and Thanks for Sharing.
Regards
Royal Gangar
Email comment :
ReplyDeleteविजय कुमार जी
नमस्कार
आपकी कहानी एक थी माया। पढ़कर मन प्रसन्न हुआ। सबसे बड़ी ख़ुशी कि बात यह है कि आज भी आप जैसे मेहनती और दिल से लिखने वाले लोग हैं जिससे समाज तो लाभान्वित होता ही है, हिंदी भाषा को भी बल मिलता है। जिसकी आज उपेक्षा हो रही है।
सच्चे अर्थों में आप जैसे लोगों कि समाज को सख्त जरूरत है।
आपका अपना
जय प्रकाश भरद्वाज
सम्पादक
'द वैदिक टाइम्स'
Email Comment :
ReplyDeleteek thi maya mai jo dard hai vah vo to dil ka chhu jata hai ehs lagta hai ish kahani koi koi ansh hamare saath juda huaa ho.
- Swarna ,Delhi
रुला दिया भैय्या आपने
ReplyDeleteशब्दश: मन को छूती हुई ... बहुत ही अच्छी कहानी
ReplyDeleteएकदम बांधकर रखने वाली कहानी लिखी है विजय जी, अभिवादन स्वीकार करें।
ReplyDeleteऐसी दुख भरी कहानी पढ़ने से हमेशा बचता हूं....आंखे में हल्की सी नमी आ ही गई..व्याकरण की कमी सुधार ली होगी तो पता नहीं.....दरअसल पढ़त वक्त ध्यान नहीं गया किसी गलती पर..यहां माया को अभय में विश्वास नहीं था या वो अपने बनाए संसार से बाहर नहीं आना चाहती थी....मैं कभी भी ऐसी कोरी भावुकता के साथ नहीं रहना चाहता...पता नहीं अंत नहीं पंसद था..पर जब हकीकत है तो हकीकत ही है....मैं फिर भी ऐसे अंत के सदैव खिलाफ रहा हूं..या शायद इसी तरह का अंत जीवन के किसी हिस्से का रहा इसलिए ऐसे अंत का सख्त विरोध करता हूं...खैर क्या कहूं अब..इससे ज्यादा कुछ कह भी नहीं सकता.
ReplyDeleteपरिकल्पना ब्लॉग के ज़रिये आप तक आया..कहानी पढ़ मन को अतीव प्रसन्नता हुई...साथ ही परिकल्पना साहित्य सम्मान पाने के लिये हार्दिक बधाई...
ReplyDeleteपरिकल्पना साहित्य सम्मान पाने के लिये हार्दिक बधाई
ReplyDeleteसुन्दर
भ्रमर ५
परिकल्पना साहित्य सम्मान पाने के लिये हार्दिक बधाई
ReplyDeleteसुन्दर
भ्रमर ५
very sensitive story......
ReplyDeletevery very sensitive story viyay sir
ReplyDeleteबहुत ही मार्मिक कहानी। कहानी में इतना डूब गयी कि रोती गयी और पढ़ती गयी। बहुत अच्छी लगी। मनीषा जैन
ReplyDeleteAap ki lekh ka koi javab hi nahi mujhe bahut din baad kisi ka lekh itna pasand aaya...
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