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Wednesday, May 18, 2016

||| शिष्टाचार |||






आलेख





||| शिष्टाचार |||

ईश्वर के द्वारा रचे गए इस संसार में सबसे अद्भुत प्राणी सिर्फ मनुष्य ही है. मनुष्य को ही ईश्वर ने ज्ञान और बुध्दि से नवाज़ा है ,ताकि वो अन्य सभी प्राणियों में श्रेष्ठ रहे . मनुष्य जैसे जैसे बढता गया वैसे वैसे उसके जीवन में आमूल परिवर्तन आये है . और इन्ही परिवर्तनों ने उसके जीवन को और बेहतर बनाया और इस बेहतरी ने उसे अपने जीवन में अचार ,विचार, व्यवहार और संस्कारों से भरने का अवसर भी दिया . इन्ही सब बातो की वजह से उसने अपने जीवन में शिष्टाचार को भी स्थान दिया . इसी शिष्टाचार ने उसे समाज में  एक अच्छा स्थान भी दिलाया . आईये हम मानव जीवन में मौजूद शिष्टाचार के बारे में जाने.

हमारे जीवन में शिष्टाचार का अत्याधिक महत्व है . शिष्टाचार की वजह से हमें सभ्य समाज का एक हिस्सा समझा जाता है .

हम लोग समाज में रहते हैं. समाज में रहने पर विभिन्न प्रकार के लोगों के साथ सम्बन्ध भी पड़ता है. घर में - अपने माता-पिता, भाई-बहन, सगे-संबन्धियों, पास-पडोस या टोला-मुहल्ला के लोगों के साथ या इष्ट-मित्र, स्कूल-कॉलेज या कार्य-क्षेत्र के सहकर्मियों के साथ, हाट-बाजार,या राह चलते समय भी विभिन्न प्रकार के व्यक्तियों के साथ हमें मिलना-जुलना पड़ता है. हम लोगों का यह मेल-जोल प्रीतिकर या अप्रीतिकर दोनों तरह का हो सकता है. पुराने समय में यात्रा-क्रम में कहीं बाहर निकलने पर किसी अपरिचित व्यक्ति के साथ भी लोगों का व्यवहार शिष्टता पूर्ण ही होता था. किन्तु, आजकल इस शिष्टता का लगभग लोप ही हो गया है. आज वार्तालाप करते समय यदि कोई शिष्टता के साथ उत्तर देता है, तो हमें आश्चर्य होता है. क्योंकि, अब तो राह चलते, बस-ट्रेन से सफर करते समय प्रायः लोग एक दुसरे का स्वागत कटु शब्दों, ओछी हरकतों या कभी-कभी तो थप्पड़-मुक्कों से करते हुए भी दिखाई पड़ जाते हैं. परस्पर व्यव्हार में ऐसा बदलाव क्यों दिख रहा है ? इसका कारण यही है कि अब हमारे संस्कार पहले जैसे नहीं रह गये हैं. यदि हमारे व्यवहार और वाणी में शिष्टता न हो तो हमें स्वयं को सुसंस्कृत मनुष्य क्यों समझना चाहिए ?

प्राचीन कवि भर्तृहरी ने कहा है :

|| केयूराणि न भूषयन्ति पुरुषं हाराः न चंद्रोज्ज्वलाः
न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं नालंकृताः मूर्द्धजाः
वाण्येका समलङ्करोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते
क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम्. ||

अर्थात - शिष्ट+आचार= शिष्टाचार- अर्थात विनम्रतापूर्ण एवं शालीनता पूर्ण आचरण शिष्टाचार ही  वह आभूषण है जो मनुष्य को आदर व सम्मान दिलाता है, शिष्टाचार ही मनुष्य को मनुष्य बनाता है.

शिष्टाचार का हमारे जीवन में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है. कहने को तो शिष्टाचार की बातें छोटी-छोटी होती हैं, लेकिन ये बहुत महत्त्वपूर्ण होती हैं. व्यक्ति अपने शिष्ट आचरण से सबका स्नेह और आदर पाता है. मानव होने के नाते प्रत्येक व्यक्ति को शिष्टाचार का आभूषण अवश्य धारण करना चाहिए. शिष्टाचार से ही मनुष्य के जीवन में प्रतिष्ठा एवं पहचान मिलती है और वह भीड़ में भी अलग नजर आता है.जब कोई मनुष्य शिष्टाचार रूपी आभूषण को धारण करता है तब वह एक महान व्यक्ति के रूप में सबके लिए प्रेरणास्रोत बन जाता है. ये छोटी-छोटी बातें जीवन भर साथ देती हैं. मनुष्य का शिष्टाचार ही उसके बाद लोगों को याद रहता है और अमर बनाता है.

किस समय, कहाँ पर, किसके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए- उसके अपने-अपने ढंग होते हैं. हम जिस समाज में रहते हैं, हमें अपने शिष्टाचार को उसी समाज में अपनाना पड़ता है, क्योंकि इस समाज में हम एक-दूसरे से जुड़े होते हैं. जिस प्रकार एक परिवार के सभी सदस्य आपस में जुड़ होते हैं ठीक इसी प्रकार पूरे समाज में, देश में- हम जहाँ भी रहते हैं, एक विस्तृत परिवार का रूप होता है और वहाँ भी हम एक-दूसरे से जुड़े हुए होते हैं. एक बालक के लिए शिष्टाचार की शुरूआत उसी समय हो जाती है जब उसकी माँ उसे उचित कार्य करने के लिये प्रेरित करती है. जब वह बड़ा होकर समाज में अपने कदम रखता है तो उसकी शिक्षा प्रारंभ होती है. यहाँ से उसे शिष्टाचार का उचित ज्ञान प्राप्त होता है और यही शिष्टाचार जीवन के अंतिम क्षणों तक उसके साथ रहता है. यहीं से एक बालक के कोमल मन पर अच्छे-बुरे का प्रभाव आरंभ होता है. अब वह किस प्रकार का वातावरण प्राप्त करता है और किस वातावरण में स्वयं को किस प्रकार से ढालता है- वही उसको इस समाज में उचित-अनुचित की प्राप्ति करवाता है.

समाज में कहाँ, कब, कैसा शिष्टाचार किया जाना चाहिए, आइए इसपर एक दृष्टि डालें- 

1
. विद्यार्थी का शिक्षकों और गुरुजनों के प्रति शिष्टाचार
2
. घर में शिष्टाचार
3
. मित्रों से शिष्टाचार
4
. आस-पड़ोस संबंधी शिष्टाचार
5
. उत्सव सम्बन्धी शिष्टाचार
6
समारोह संबंधी शिष्टाचार
7
भोज इत्यादि संबंधी शिष्टाचार
8
. खान-पान संबंधी शिष्टाचार
9
. मेजबान एवं मेहमान संबंधी शिष्टाचार
10
. परिचय संबंधी शिष्टाचार
11
. बातचीत संबंधी शिष्टाचार
12
. लेखन आदि संबंधी शिष्टाचार
13
. अभिवादन संबंधी शिष्टाचार

शिष्टाचार हमारे जीवन का एक अनिवार्य अंग है. विनम्रता, सहजता से वार्तालाप, मुस्कराकर जवाब देने की कला प्रत्येक व्यक्ति को मोहित कर लेती है. जो व्यक्ति शिष्टाचार से पेश आते हैं वे बड़ी-बड़ी डिग्रियां न होने पर भी अपने-अपने क्षेत्र में पहचान बना लेते हैं. प्रत्येक व्यक्ति दूसरे शख्स से शिष्टाचार और विनम्रता की आकांक्षा करता है.  शिष्टाचार का पालन करने वाला व्यक्ति स्वच्छ, निर्मल और दुर्गुणों से परे होता है. व्यक्ति की कार्यशैली भी उसमें शिष्टाचार के गुणों को उत्पन्न करती है. सामान्यत: शिष्टाचारी व्यक्ति अध्यात्म के मार्ग पर चलने वाला होता है. अध्यात्म के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति का जन्म किसी वजह से हुआ है. हमारे जीवन का उद्देश्य ईश्वर की दिव्य योजना का एक अंग है. ऐसे में शिष्टाचार का गुण व्यक्ति को अभूतपूर्व सफलता और पूर्णता प्रदान करता है.

यदि व्यक्ति किसी समस्या या तनाव से ग्रस्त है, लेकिन ऐसे में भी वह शिष्टाचार के साथ पेश आता है तो अनेक लोग उसकी समस्या का हल सुलझाने के लिए उसके साथ खड़े हो जाते हैं. ऐसा व्यक्ति स्वयं भी समस्या के समाधान तक पहुंच जाता है. शिष्टाचार को अपने जीवन का एक अंग मानने वाला व्यक्ति अकसर अहंकार, ईष्र्या, लोभ, क्रोध आदि से मुक्त होता है. ऐसा व्यक्ति हर जगह अपनी छाप छोड़ता है. कार्यस्थल से लेकर परिवार तक हर जगह वह और उससे सभी संतुष्ट रहते हैं. शिष्टाचारी व्यक्ति शारीरिक व मानसिक रूप से भी स्वस्थ रहता है, क्योंकि ऐसा व्यक्ति सद्विचारों से पूर्ण व सकारात्मक नजरिया रखता है. उसके मन के सद्भाव उसे प्रफुल्लित रखते हैं. चिकित्सा विज्ञान भी अब इस तथ्य को सिद्ध कर चुका है कि अच्छे विचारों का प्रभाव मन पर ही नहीं, बल्कि तन पर भी पड़ता है. 

मस्तिष्क की कोशिकाएं मन में उठने वाले विचारों के अनुसार कार्य करती हैं. इसके विपरीत नकारात्मक विचारों का मन व तन पर नकारात्मक प्रभाव ही पड़ता है. जेम्स एलेन ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि अच्छे विचारों के सकारात्मक व स्वास्थ्यप्रद और बुरे विचारों के बुरे, नकारात्मक व घातक फल आपको वहन करने ही पड़ेंगे. व्यक्ति जितना अधिक अपने प्रति ईमानदार और शिष्टाचारी होता है वह उतनी ही ज्यादा सच्ची और वास्तविक खुशी को प्राप्त करता है.

मनुष्य को स्वर्णालंकार बाजूबंद आदि सुशोभित नहीं करते, चंद्र की भांति उज्ज्वल कान्तिवाले हार भी शोभा नहीं बढ़ाते, न नहाने-धोने सेन उबटन मलने से, न फूल टांकने या पुष्पमाला धारण करने से, न केश-विन्यास या जुल्फ़ी  संवारने-सजाने से ही उसकी मान और शोभा बढ़ती है.  अपितु जिस  वाणी को शिष्ट, सभ्य, शालीन और व्याकरण-सम्मत मानकर धारण किया जाता  है; एकमात्र वैसी वाणी ही पुरुष को सुशोभित करती है. बाहर के सब अलंकरण तो निश्चित ही घिस जाते हैं, या चमक खो बैठते हैं (किंतु) मधुरवाणी का अलंकरण हमेशा चमकने वाला आभूषण है. इसलिये मनुष्य कि वाणी ही उसका यथार्थ आभूषण है-'वाग़ भूषणम भूषणम'. अर्थात व्यवहार और वाणी में सज्जनता और शिष्टाचार ही चरित्र का वह गुण है जो उसे जीवन के हर क्षेत्र में विजय दिला सकती है. 




गायत्री परिवार ने शिष्टाचार के निम्न नियमो के बारे में कहा है .
यदि हम इन नियमो का पालन करे तो हमारा जीवन निश्चिंत ही सुवासित होंगा. जीवन में उपयोगी सारे शिष्टाचार के नियमो को इसमें शामिल किया है. आईये इन्हें पढ़ते है और अपने जीवन को इनकी खुशबु से सुवासित करते है

|||  बड़ों का अभिवादन |||

१. बड़ों को कभी ‘तुम’ मत कहो, उन्हें ‘आप’ कहो और अपने लिए ‘मैं’ का प्रयोग मत करो ‘हम’ कहो.
२. जो गुरुजन घर में है, उन्हें सबेरे उठते ही प्रणाम करो. अपने से बड़े लोग जब मिलें/जब उनसे भेंट हो उन्हें प्रणाम करना चाहिए.
३. जहाँ दीपक जलाने पर या मन्दिर में आरती होने पर सायंकाल प्रणाम करने की प्रथा हो वहाँ उस समय भी प्रणाम करना चाहिए.
४. जब किसी नये व्यक्ति से परिचय करया जाय, तब उन्हें प्रणाम करना चाहिए.
५. गुरुजनों को पत्र व्यवहार में भी प्रणाम लिखना चाहिए.
६. प्रणाम करते समय हाथ में कोई वस्तु हो तो उसे बगल में दबाकर या एक ओर रखकर दोनों हाथों से प्रणाम करना चाहिए.
७. चिल्लाकर या पीछे से प्रणाम नहीं करना चाहिए. सामने जाकर शान्ति से प्रणाम करना चाहिए.
८. प्रणाम की उत्तम रीति दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुकाना है. जिस समाज में प्रणाम के समय जो कहने की प्रथा हो, उसी शब्द का व्यवहार करना चाहिए. महात्माओं तथा साधुओं के चरण छूने की प्राचीन प्रथा है.

||| बड़ों का अनुगमन |||

१. अपने से बड़ा कोई पुकारे तो ‘क्या’, ‘ऐं’, ‘हाँ’ नहीं कहना चाहिए . जी हाँ , जी , अथवा आज्ञा कहकर प्रत्युत्तर देना चाहिए .
२. लोगों को बुलाने, पत्र लिखने या चर्चा करने में उनके नाम के आगे ‘श्री’ और अन्त  में ‘जी’ अवश्य लगाओ. इसके अतिरिक्त पंडित, सेठ, बाबू, लाला आदि यदि उपाधि हो तो उसे भी लगाओ.
३. अपने से बड़ों की ओर पैर फैलाकर या पीठ करके मत बैठो. उनकी ओर पैर करके मत सोओ.
४. मार्ग में जब गुरुजनों के साथ चलना हो तो उनके आगे या बराबर मत चलो उनके पीछे चलो. उनके पास कुछ सामान हो तो आग्रह करके उसे स्वयं ले लो. कहीं दरवाजे में से जाना हो तो पहले बड़ों को जाने दो. द्वार बंद है तो आगे बढ़कर खोल दो और आवश्यकता हो तो भीतर प्रकाश कर दो. यदि द्वार पर पर्दा हो तो उसे तब तक उठाये रहो, जब तक वे अंदर न चले जायें.
५. सवारी पर बैठते समय बड़ों को पहले बैठने देना चाहिए. कहीं भी बड़ों के आने पर बैठे हो तो खड़े हो जाओ और उनके बैठ जाने पर ही बैठो. उनसे ऊँचे आसान पर नहीं बैठना चाहिए. बराबर भी मत बैठो. नीचे बैठने को जगह हो तो नीचे बैठो. स्वयं सवारी पर हो या ऊँचे चबूतरे आदि स्थान पर और बड़ों से बात करना हो तो नीचे उतर कर बात करो. वे खड़े हों तो उनसे बैठे बैठे बाते नहीं करनी चाहिए
६. जब कोई आदरणीय व्यक्ति अपने यहाँ आएँ तो कुछ दूर आगे बढ़कर उनका स्वागत करें और जब वे जाने लगें तब सवारी या द्वार तक उन्हें पहुँचाना चाहिए. 

||| छोटों के प्रति |||

१. बच्चों को, नौकरों को अथवा किसी को भी ‘तू’ मत कहो. ‘तुम’ या ‘आप’ कहो.
२. जब कोई आपको प्रणाम करे तब उसके प्रणाम का उत्तर प्रणाम करके या जैसे उचित हो अवश्य दो.
३. नौकर को भी भोजन तथा विश्राम के लिए उचित समय दो. बीमारी आदि में उसकी सुविधा का ध्यान रखो. किसीको भी कभी नीच मत समझो.
४. आपके द्वारा आपसे जो छोटे हैं, उन्हें असुविधा न हो यह ध्यान रखना चाहिए. छोटों के आग्रह करने पर भी उनसे अपनी सेवा का काम कम से कम लेना चाहिए. 

||| महिलाओं के प्रति |||

१. अपने से बड़ी स्त्रियों को माता, बराबर वाली को बहिन तथा छोटी को कन्या समझो.
२. बिना जान पहचान के स्त्री से कभी बात करनी ही पड़े तो दृष्टि नीचे करके बात करनी चाहिए. स्त्रियों को घूरना, उनसे हँसी करना उनके प्रति इशारे करना या उनको छूना असभ्यता है, पाप भी है.
३. घर के जिस भाग में स्त्रियाँ रहती हैं, वहाँ बिना सूचना दिये नहीं जाना चाहिए. जहाँ स्त्रियाँ स्नान करती हों, वहाँ नहीं जाना चाहिए. जिस कमरे में कोई स्त्री अकेली हो, सोयी हो, कपड़े पहन रही हो, अपरिचित हो, भोजन कर रही हो, वहाँ भी नहीं जाना चाहिए.
४. गाड़ी, नाव आदि में स्त्रियों को बैठाकर तब बैठना चाहिए. कहीं सवारी में या अन्यत्र जगह की कमी हो और कोई स्त्री वहाँ आये तो उठकर बैठने के लिए स्थान खाली कर देना चाहिए.

||| सर्वसाधारण के प्रति |||

१. यदि किसी के अंग ठीक नहीं नाक या कान या कोई और अंग ठीक नहीं है , अंधा लंगड़ा या कुरूप है अथवा किसी में तुतलानेआदि का कोई स्वभाव है तो उसे चिढ़ाओ मत. उसकी नकल मत करो. कोई स्वयं गिर पड़े या उसकी कोई वस्तु गिर जाये, किसी से कोई भूल हो जाये, तो हँसकर उसे दुखी मत करो. यदि कोई दूसरे प्रान्त का तुम्हारे रहन सहन का पालन नहीं करता है और बोलने के ढंग में भूल करता है. तो उसकी हँसी मत उड़ाओ.
२. कोई रास्ता पूछे तो उसे समझाकर बताओ और संभव हो तो कुछ दूर तक जाकर मार्ग दिखा आओ. कोई चिट्ठी या तार पढ़वाये तो रुक कर पढ़ दो. किसी का भार उससे न उठता हो तो उसके बिना कहे ही उठवा दो. कोई गिर पड़े तो उसे सहायता देकर उठा दो. जिसकी जैसी भी सहायता कर सकते हो, अवश्य करो. किसी की उपेक्षा मत करो.
३. अंधों को अंधा कहने के बदले सूरदास कहना चाहिए. इसी प्रकार किसी में कोई अंग दोष हो तो उसे चिढ़ाना नहीं चाहिए. उसे इस प्रकार बुलाना या पुकारना चाहिए कि उसको बुरा न लगे.
४. किसी भी देश या जाति के झण्डे, राष्ट्रीय गान, धर्म ग्रन्थ अथवा सामान्य महापुरुषों को अपमान कभी मत करो. उनके प्रति आदर प्रकट करो. किसी धर्म पर आक्षेप मत करो.
५. सोये हुए व्यक्ति को जगाना हो तो बहुत धीरे से जगाना चाहिए.
६. किसी से झगड़ा मत करो. कोई किसी बात पर हठ करे व उसकी बातें आपको ठीक न भी लगें, तब भी उसका खण्डन करने का हठ मत करो.
७. मित्रों, पड़ोसियोंपरिचतों को भाई, चाचा आदि उचित संबोधनों से पुकारो.
८. दो व्यक्ति झगड़ रहे हों तो उनके झगड़े को बढ़ाने का प्रयास मत करो. दो व्यक्ति परस्पर बातें कर रहे हों तो वहाँ मत आओ और न ही छिपकर उनकी बात सुनने का प्रयास करो. दो आदमी आपस में बैठकर या खड़े होकर बात कर रहे हों तो उनके बीच में मत जाओ.
९. आपने हमें पहचाना. ऐसे प्रश्न करके दूसरों की परीक्ष मत करो. आवश्यकता न हो तो किसी का नाम, गाँव, परिचय मत पूछो और कोई कहीं जा रहा हो तो ‘‘कहाँ जाते हो?” भी मत पूछो.
१०. किसी का पत्र मत पढ़ो और न किसी की कोई गुप्त बात जानने का प्रयास करो.
११. किसी की निन्दा या चुगली मत करो. दूसरों का कोई दोष तुम्हें ज्ञात हो भी जाये तो उसे किसी से मत कहो. किसी ने आपसे दूसरे की निन्दा की हो तो निन्दक का नाम मत बतलाओ. 
१२. बिना आवश्यकता के किसी की जाति, आमदनी, वेतन आदि मत पूछो.
१३. कोई अपना परिचित बीमार हो जाय तो उसके पास कई बार जाना चाहिए. वहाँ उतनी ही देर ठहरना चाहिए जिसमें उसे या उसके आस पास के लोगों को कष्ट न हो. उसके रोग की गंभीरता की चर्चा वहाँ नहीं करनी चाहिए और न बिना पूछे औषधि बताने लगना चाहिए.
१४. अपने यहाँ कोई मृत्यु या दुर्घटना हो जाये तो बहुत चिल्लाकर शोक नहीं प्रकट करना चाहिए. किसी परिचित या पड़ोसी के यहाँ मृत्यु या दुर्घटना हो जाये तो वहाँ अवश्य जाना व आश्वासन देना चाहिए.
१५. किसी के घर जाओ तो उसकी वस्तुओं को मत छुओ. वहाँ प्रतीक्षा करनी पड़े तो धैर्य रखो. कोई आपके पास आकर कुछ अधिक देर भी बैठै तो ऐसा भाव मत प्रकट करो कि आप उब गये हैं.
१७. किसी से मिलो तो उसका कम से कम समय लो. केवल आवश्यक बातें ही करो. वहाँ से आना हो तो उसे नम्रतापूर्वक सूचित कर दो. वह अनुरोध करे तो यदि बहुत असुविधा न हो तभी कुछ देर वहाँ रुको. 

||| अपने प्रति |||

१. अपने नाम के साथ स्वयं पण्डित, बाबू आदि मत लगाओ.
२. कोई आपको पत्र लिखे तो उसका उत्तर आवश्यक दो. कोई कुछ पूछे तो नम्रतापूर्वक उसे उत्तर दो.
३. कोई कुछ दे तो बायें हाथ से मत लो, दाहिने हाथ से लो और दूसरे को कुछ देना हो तो भी दाहिने हाथ से दो.
४. दूसरों की सेवा करो, पर दूसरों की अनावश्यक सेवा मत लो. किसी का भी उपकार मत लो.
५. किसी की वस्तु तुम्हारे देखते, जानते, गिरे या खो जाये तो उसे दे दो. तुम्हारी गिरी हुई वस्तु कोई उठाकर दे तो उसे धन्यवाद दो. आपको कोई धन्यवाद दे तो नम्रता प्रकट करो.
६. किसी को आपका पैर या धक्का लग जाये तो उससे क्षमा माँगो. कोई आपसे क्षमा माँगे तो विनम्रता पूर्वक उत्तर देना चाहिए, अकड़ना नहीं चाहिए. क्षमा माँगने की कोई बात नहीं अथवा आपसे कोई भूल नहीं हुई कहकर उसे क्षमा करना / उसका सम्मान करना चाहिए.
७. अपने रोग, कष्ट, विपत्ति तथा अपने गुण, अपनी वीरता, सफलता की चर्चा अकारण ही दूसरों से मत करो.
८. झूठ मत बोलो, शपथ मत खाओ और न प्रतीक्षा कराने का स्वभाव बनाओ.
९. किसी को गाली मत दो. क्रोध न करो व मुख से अपशब्द मत निकालो.
१०. यदि किसी के यहाँ अतिथि बनो तो उस घर के लोगों को आपके लिये कोई विशेष प्रबन्ध न करना पड़े ऐसा ध्यान रखो. उनके यहाँ जो भोजनादि मिले, उसकी प्रशंसा करके खाओ. वहाँ जो स्थान आपके रहने को नियत हो वहीं रहो. भोजन के समय उनको आपकी प्रतीक्षा न करनी पड़े. आपके उठने- बैठने आदि से वहाँ के लोगों को असुविधा न हो. आनको जो फल, कार्ड, लिफाफे आदि आवश्यक हों, वह स्वयं खरीद लाओ.
११. किसी से कोई वस्तु लो तो उसे सुरक्षित रखो और काम करके तुरंत लौटा दो. जिस दिन कोई वस्तु लौटाने को कहा गया हो तो उससे पहले ही उसे लौटा देना उत्तम होता है.
१२. किसी के घर जाते या आते समय द्वार बंद करना मत भूलो. किसी की कोई वस्तु उठाओ तो उसे फिर से यथास्थान रख देना चाहिए. 

|||  मार्ग में |||

१. रास्ते में या सार्वजनिक स्थलों पर न तो थूकें,  लघुशंकादि करें और न वहाँ फलों के छिलके या कागज आदि डालें. लघु शंकादि करने के नियत स्थानों पर ही करें. इसी प्रकार फलों के छिलके, रद्दी कागज आदि भी एक किनारे या उनके लिये बनाये स्थलों पर डालें.
२. मार्ग में कांटेकांच के टुकड़े या कंकड़ पड़े हो तो उन्हें हटा दें.
३. सीधे शान्त चलें. पैर घसीटते सीटी बजाते, गाते, हँसी मजाक करते चलना असभ्यता है. छड़ी या छत्ता घुमाते हुए भी नहीं चलना चाहिए.
४. रेल में चढ़ते समयनौकादि से चढ़ते- उतरते समय, टिकट लेते समय, धक्का मत दो. क्रम से खड़े हो और शांति से काम करो. रेल से उतरने वालों को उतर लेने दो. तब चढ़ो. डिब्बे में बैठे हो तो दूसरों को चढ़ने से रोको मत. अपने बैठने से अधिक स्थान मत घेरो.
५. रेल के डिब्बे में या धर्मशाला में वहाँ की किसी वस्तु या स्थान को गंदा मत करो. वहाँ के नियमों का पूरा पालन करो.
६. रेल के डिब्बों में जल मत गिराओ. थूको मत, नाक मत छिनको, फलों के छिलके न गिराओ, कचरा आदि सबको डिब्बे में बने कूड़ापात्र में ही डालो.
७. रेल में या किसी भी सार्वजनिक स्थान पर धू्रमपान न करो.
८. बाजार में खड़े- खड़े या मार्ग चलते कुछ खाने लगना बहुत बुरा स्वभाव है.
९. जहाँ जाने या रोकने के लिए तार लगे हों, दीवार बनी हो, काँटे डाले गये हों उधर से मत जाओ.
१०. एक दूसरे के कंधे पर हाथकर रखकर मार्ग में मत चलो.
११. जिस ओर से चलना उचित हो किनारे से चलो. मार्ग में खड़े होकर बातें मत करो. बात करना हो तो एक किनारे हो जाओ.
१२. रास्ता चलते इधर- उधर मत देखो. झूमते या अकड़ते मत चलो. अकारण मत दौड़ो. सवारी पर हो तो दूसरी सवारी से होड़ मत करो.

|||  तीर्थ स्थल और सभा स्थल में |||

१. कहीं जल में कुल्ला मत करो और न थूको. अलग पानी लेकर जलाशय से कुछ दूर शौच के हाथ धोओ तथा कुल्ला करो और मल मूत्र पर्याप्त दूरी पर त्यागो.
२. तीर्थ स्थान के स्थान पर साबुन मत लगाओ. वहाँ किसी प्रकार की गंदगी मत करो. नदी के किनारे से पर्याप्त दूरी पर मलमूत्र त्यागो
३. देव मंदिर में देवता के सामने पैर फैलाकर या पैर पर पैर चढ़ाकर मत बैठो और न ही वहाँ सोओ. वहाँ शोरगुल भी मत करो.
४. सभा में या कथा में परस्पर बात चीत मत करो. वहाँ कोई पुस्तक या अखबार भी मत पढ़ो. जो कुछ हो रहा हो उसे शान्ति से सुनो.
५. किसी दूसरे के सामने या सार्वजनिक स्थल पर खांसना, छींकना या जम्हाई आदि लेना पड़ जाये तो मुख के आगे कोई वस्त्र रख लो. बार- बार छींक या खाँसी आती हो या अपानवायु छोड़ना हो तो वहाँ से उठकर अलग चले जाना चाहिए.
६. कोई दूसरा अपानवायु छोड़े खांसे या छींके तो शान्त रहो. हँसो मत और न घृणा प्रकट करो.
७. यदि तुम पीछे पहुँचे हो तो भीड़ में घुसकर आगे बैठने का प्रयत्न मत करो. पीछे बैठो. यदि तुम आगे या बीच में बैठे हो तो सभा समाप्त होने तक बैठे रहो. बीच में मत उठो. बहुत अधिक आवश्यकता होने पर इस प्रकार धीरे से उठो कि किसी को बाधा न पड़े.
८. सभा स्थल में या कथा में नींद आने लगे तो वहाँ झोंके मत लो. धीरे से उठकर पीछे चले जाओ और खड़े रहो.
९. सभा स्थल में, कथा में बीच में बोलो मत कुछ पूछना, कहना हो तो लिखकर प्रबन्धकों को दे दो. क्रोध या उत्साह आने पर भी शान्त रहो.
१०. किसी सभा स्थल में किसी की कहीं टोपी, रूमाल आदि रखी हो तो उसे हटाकर वहाँ मत बैठो.
११. सभा स्थल के प्रबंधकों के आदेश एवं वहाँ के नियमों का पालन करो.
१२. किसी से मिलने या किसी सार्वजनिक स्थान पर प्याज, लहसुन अथवा कोई ऐसी वस्तु खाकर मत जाओ जिससे तुम्हारे मुख से गंध आवे. ऐसा कोई पदार्थ खाया हो तो इलायची, सौंफ आदि खाकर जाना चाहिए.
१३. सभा में जूते बीच में न खोलकर एक ओर किनारे पर खोलो.

||| विशेष सावधानी |||

१. चुंगी, टैक्स, किराया आदि तुरंत दे दो. इनको चुराने का प्रयत्न कभी मत करो.
२. किसी कुली, मजदूर, ताँगे वाले से किराये के लिए झगड़ो मत. पहले तय करके काम कराओ. इसी प्रकार शाक, फल आदि बेचने वालों से बहुत झिकझिक मत करो.
३. किसी से कुछ उधार लो तो ठीक समय पर उसे स्वयं दे दो. मकान का किराया आदि भी समय पर देना चाहिए.
४. यदि कोई कहीं लौंग, इलायची आदि भेंट करे तो उसमें से एक दो ही उठाना चाहिए.
५. वस्तुओं को धरने उठाने में बहुत आवाज न हो ऐसा ध्यान रखना चाहिए. द्वार भी धीरे से खोलना बंद करना चाहिए. दरवाजा खोलो तब उसकी अटकनें लगाना व बंद करो तब चिटकनी लगाना मत भूलो. सब वस्तुएँ ध्यान से साथ अपने- अपने ठिकाने पर ही रखो, जिससे जरूरत होने पर ढूंढना न पड़े.
६. कोई पुस्तक या समाचार पत्र पढ़ना हो तो पीछे से या बगल से झुककर मत पढ़ो. वह पढ़ चुके तब नम्रता से माँग लो. 
७. कोई तुम्हारा समाचार पत्र पढ़ना चाहे तो उसे पहले पढ़ लेने दो.
८. जहाँ कई व्यक्ति पढ़ने में लगे हों, वहाँ बातें मत करो, जोर से मत पढ़ो और न कोई खटपट का शब्द करो.
९. जहाँ तक बने किसी से माँगकर कोई चीज मत लाओ, जरूरत हो तभी लाओ व उसे सुरक्षित रखो और अपना काम हो जाने पर तुरंत लौटा दो. बर्तन आदि हो तो भली भाँति मांजकर तथा कपड़ा, चादर आदि हो तो धुलवाकर वापस करो.
१०. किसी भी कार्य को हाथ में लो तो उसे पूर्णता तक अवश्य पहुँचाओ, बीच में/अधूरा मत छोड़ो.

|||  बात करने की कला |||

अपनी बात को ठीक से बोल पाना भी एक कला है. बातचीत में जरूरी नहीं है कि बहुत ज्यादा जाए .अपनी बात को नम्रता पूर्वक, किन्तु स्पष्ट व निर्भयता वे बोलने का अभ्यास करें. जहाँ बोलने की आवश्यकता हो वहाँ अनावश्यक चुप्पी न साधें. स्वयं को हीन न समझें. धीरे- धीरे गम्भीरता पूर्वक, मुस्कराते हुए, स्पष्ट आवाज में, सद्भावना के साथ बात करें. मौन का अर्थ केवल चुप रहना नहीं वरन उत्तम बातें करना भी है. बातचीत की कला के कुछ बिन्दु नीचे दिये गये हैं इन्हें व्यवहार में लाने का प्रयास करें. 

१. बेझिझक एवं निर्भय होकर अपनी बात को स्पष्ट रूप से बोलें.
२. भाषा में मधुरता, शालीनता व आपसी सद्भावना बनी रहे.
३. दूसरों की बात को भी ध्यान से व पूरी तरह से सुनें, सोचें- विचारें और फिर उत्तर दें. धैर्यपूर्वक किसी को सुनना एक बहुत बड़ा सद्गुण है. बातचीत में अधिक सुनने व कम बोलने के इस सद्गुण का विकास करें. सामने देख कर बात करें. बात करते समय संकोच न रखें, न ही डरें.
४. बोलते समय सामने वाले की रूचि का भी ध्यान रखें. सोच- समझ कर, संतुलित रूप से अपनी बात रखें. बात करते हुए अपने हावभाव व शब्दों पर विशेष ध्यान देते हुए बात करें.
५. बातचीत में हार्दिक सद्भाव व आत्मीयता का भाव बना रहे. हँसी-  ज़ाक में भी शालीनता बनाए रखें.
६. उपयुक्त अवसर देखकर ही बोलें. कम बोलें. धीरे बोलें. अपनी बात को संक्षिप्त और अर्थपूर्ण शब्दों में बताएँ. वाक्यों और शब्दों का सही उच्चारण करें.
७. किसी बात की जानकारी न होने पर धैयपूर्वक, प्रश्न पूछकर अपना ज्ञान बढ़ाएँ.
८. सामने वाला बात में रस न ले रहा हो तो बात का विषय बदल देना अच्छा है.
९. पीठ पीछे किसी की निन्दा मत करो और न सुनो. किसी पर व्यंग मत करो.
१०. केवल कथनी द्वारा ही नहीं वरन करनी द्वारा भी अपनी बात को सिद्ध करें.
११. उचित मार्गदर्शन के लिए स्वयं को उस स्थिति में रखकर सोचें. इससे सही निष्कर्ष पर पहुँच सकेंगे. किसी की गलत बात को सुनकर उसे तुरंत ही अपमानित न कर, उस समय मौन रहें. किसी उचित समय पर उसे अलग से नम्रतापूर्वक समझाएं.
१२. दो लोग बात कर रहे हों तो बीच में न बोलें. बिन मांगी सलाह न दें. समूह में बात हो रही हो तो स्वीकृति लेकर अपनी बात संक्षिप्त में कहना शालीनता है.
१३.प्रिय मित्र, भ्राता श्री, आदरणीया बहनजी, प्यारे भाई, पूज्य दादाजी, श्रद्धेय पिताश्री, वन्दनीया माता जी आदि संबोधनों से अपनी बात को प्रारंभ करें.
१४. मीटिंग के बीच से आवश्यक कार्य से बाहर जाना हो तो नम्रता पूर्वक इजाजत लेकर जाएँ. बहस में भी शांत स्वर में बोलो. चिल्लाने मत लगो. दूर बैठे व्यक्ति के पास जाकर बात करो, चिल्लाओ मत.
१५. बात करते समय किसी के पास एकदम सटो मत और न उसके मुख के पास मुख ले जाओ. दो व्यक्ति बात करते हों तो बीच में मत बोलो.
१६. किसी की ओर अंगुली उठाकर मत दिखाओ. किसी का नाम पूछना हो तो आपका शुभ नाम क्या है. इस प्रकार पूछो किसी का परिचय पूछना हो तो, आपका परिचय? कहकर पूछो. किसी को यह मत कहो कि आप भूल करते हैं. कहो कि आपकी बात मैं ठीक नहीं समझ सका.
१७. जहाँ कई व्यक्ति हो वहाँ काना फूसी मत करो. किसी सांकेतिक या ऐसी भाषा में भी मत बोलो जो आपके बोलचाल की सामान्य भाषा नहीं है और जिसे वे लोग नहीं समझते. रोगी के पास तो एकदम काना फूँसी मत करो, चाहे आपकी बात का रोगी से कोई संबंध हो या न हो.
१८. जो है सो आदि आवृत्ति वाक्य का स्वभाव मत डालो .. बिना पूछे राय मत दो.
१९. बहुत से शब्दों का सीधा प्रयोग भद्दा माना जाता है. मूत्र त्याग के लिए लघुशंका, मल त्याग के लिए दीर्घशंका, मृत्यु के लिए परलोकगमन आदि शब्दों का प्रयोग करना चाहिए.

अगर हम सभी स्वंय और स्वंय के बच्चो को इन सभी बातो का पालन करवाए तो हमारा जीवन पूरी तरह से शिष्टाचार से भर जाता है . शिष्टाचार मनुष्य के व्यक्तित्व का दर्पण होता है. शिष्टाचार ही मनुष्य की एक अलग पहचान करवाता है .शिष्टाचारी मनुष्य समाज में हर जगह सम्मान पाता है- चाहे वह गुरुजन के समक्ष हो परिवार में हो, समाज में हो, व्यवसाय में हो अथवा अपनी मित्र-मण्डली में.  शिष्ट व्यवहार मनुष्य को ऊँचाइयों तक ले जाता है.

शिष्ट व्यवहार के कारण मनुष्य का कठिन-से-कठिन कार्य भी आसान हो जाता है. शिष्टाचारी चाहे कार्यालय में हो अथवा अन्यत्र कहीं, शीघ्र ही लोगों के आकर्षण का केन्द्र बन जाता हैं. लोग भी उससे बात करने तथा मित्रता करने आदि में रुचि दिखाते हैं. एक शिष्टाचारी मनुष्य अपने साथ के अनेक लोगों को अपने शिष्टाचार से शिष्टाचारी बना देता शिष्टाचार वह ब्रह्मास्त्र है जो अँधेरे में भी अचूक वार करता है- अर्थात् शिष्टाचार अँधेरे में भी आशा की किरण दिखाने वाला मार्ग है. 

||| समाप्त |||


विशेष नोट : इस आलेख के लिखने हेतु , कई पेपर्स, पत्रिकाओ और इन्टरनेट के साधनों से सामग्री जुटायी गयी है . ये हो सकता है कि इस लेख के कई हिस्से, इससे पूर्व प्रकाशित लेखो से मिलते हो . मैं उन सभी महानुभावो का [ both print and internet media ] और मुख्यतः गायत्री परिवार के वेबसाइट और उनकी समिति को धन्यवाद देना चाहूँगा , जिनकी सामग्री की मदद लेकर मैंने ये आलेख बनाया है. चित्र के लिए  google images  का आभार ! 

धन्यवाद

विजय कुमार


16 comments:

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    1. आपका दिल से शुक्रिया जी
      प्रणाम
      विजय

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  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" गुरुवार 19 मई 2016 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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    1. आपका दिल से शुक्रिया जी
      प्रणाम
      विजय

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  3. विजयजी...हमने पूरा लेख ठीक से नहीं पढ़ा पर जो भी पढ़ें इतना जरुर कहेंगे कि आपने बहुत ही सुन्दरता से शिस्त जीवन को प्रस्तुत किया है।।।।जीवन के सभी क्षेत्रों को आपने कवर किया है।।।जब ध्यान से पढ़ेंगे तब शायद कुछ सवाल उठाएगें।।।।

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    1. आपका दिल से शुक्रिया जी
      प्रणाम
      विजय

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  4. बहुत विचारणीय और सारगर्भित आलेख...

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    1. आपका दिल से शुक्रिया जी
      प्रणाम
      विजय

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  5. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन बुद्ध मुस्कुराये शांति-अहिंसा के लिए - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

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    1. आपका दिल से शुक्रिया जी
      प्रणाम
      विजय

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  6. Email comment :
    Dear Vijay Kumar,

    I think that we met probably on "Holi Kauya Gosthi".

    I saw your message on the whatsapp group and then I read on you tube about your essay on "Sistachaar".

    Its very nice.

    Appreciate such a nice essay.

    My special thanks to you.

    Ram Borana

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    1. आपका दिल से शुक्रिया जी
      प्रणाम
      विजय

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  7. भ्रष्ट आचरणों के इस युग में शिष्टाचार की बात ऐसी लगी जैसे रेगिस्तान में बरसा-बूँदी.ये संस्कार परिवार और परिवेश से मिलते हैं.आपका यह लेख इस दिशा में एक अच्छा प्रयत्न सिद्ध हो और लोग इन मानों को आत्मसात् करें यही इच्छा मन में उठ रही है.

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    1. आपका दिल से शुक्रिया जी
      प्रणाम
      विजय

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  8. Email comment :
    प्रिय विजय कुमार जी,
    शिष्टाचार पर आलेख के लिए बधाई. आलेख अच्छा है, केवल अच्छा नहीं उपयोगी है. पर बहुत लंबा है. अतः मेरा सुझाव है कि यदि बच्चों के लिए इसका संक्षिप्त रूप तैयार कर सकें, तो यह विद्यार्थियों के लिए बहुत लाभदायक होगा.
    भवदीय
    रवीन्द्र अग्निहोत्री

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  9. Email comment :
    आलेख अत्यन्त परिश्ररमसाध्य और बहुत अधिक विस्तार से लिखा गया है, जिसमें जीवन के सूक्ष्मातिसूक्ष्म शिष्टाचार का उल्लेख है। बहुत ही सार्थक आलेख है । साधुवाद !! मैंने तो जैसे तैसै पूरा पढ़ ही लिया है । लेकिन आज मोबाइल तथा आइ पैड / व्हाटसैप में पूरी तरह से डूबी तरुण ,युवा और नई पीढ़ी यदि इसे पढ़कर आत्मसात करके आचरण में उतार सकी , तो आपका आलेख धन्य हो सकेगा । कृपया मेरी प्रतिक्रिया को अन्यथा न लें । यही आज का सत्य है ।

    shakuntala bahadur

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